
लखनऊ विद्युत आपूर्ति प्रशासन (Lucknow Electricity Supply Administration) के अनुसार, लखनऊ में बिजली की मांग 1688.93 मेगावाट दर्ज की गई। इसमें सबसे ज़्यादा लोड, गोमती नगर के 220 के वी (kV) सब-स्टेशन पर था, जहां 183.40 मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ी। इसके बाद मेहताब बाग के 132 केवी सब-स्टेशन की मांग 130 मेगावाट और कानपुर रोड के 220 केवी सब-स्टेशन की मांग 113 मेगावाट रही। इसमें कोई शक नहीं कि इस बिजली का एक हिस्सा बांधों से पैदा हुआ था।
इसी से जुड़ी बात करें, तो आज हम भारत में जलविद्युत उत्पादन के ऐतिहासिक विकास के बारे में जानेंगे। फिर, हम समझेंगे कि इस तरह की बिजली उत्पादन प्रणाली के क्या नुकसान होते हैं। इसके अलावा, हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि भारत की नदियों की जैव विविधता पर बांधों का क्या असर पड़ता है। खासतौर पर, हम देखेंगे कि गंगा नदी में पाए जाने वाले डॉल्फिन पर इसका क्या प्रभाव होता है। अंत में, हम बड़े बांधों के अलावा बिजली उत्पादन के अन्य विकल्पों पर भी चर्चा करेंगे।
भारत में जलविद्युत उत्पादन का ऐतिहासिक विकास
साल 1947 से 1967 के बीच, भारत में जलविद्युत क्षमता में 13% से अधिक की वृद्धि हुई और जलविद्युत संयंत्रों से बिजली उत्पादन 11% बढ़ा। इस समय में सरकार ने बड़े बहुउद्देशीय बांधों के निर्माण को बढ़ावा दिया। इन बांधों को ‘भारत के मंदिर’ कहा गया क्योंकि ये न केवल सिंचाई बल्कि बिजली उत्पादन के लिए भी बनाए गए थे।
इसके बाद के दो दशकों (1967-87) में जलविद्युत क्षमता 18% बढ़ी, लेकिन उत्पादन केवल 5% ही बढ़ सका। इस दौरान, कोयले से बनने वाली बिजली का उत्पादन (Thermal Power Production) तेज़ी से बढ़ने लगा, जिससे जलविद्युत उत्पादन को पीछे हटना पड़ा। अधिकतर बड़े बांधों का उपयोग नहर आधारित सिंचाई के लिए किया जाने लगा। इस समय, देशभर में बिजली की सरकारी सब्सिडी के कारण भूजल पंपिंग (पानी खींचने) में भी इज़ाफ़ा हुआ, लेकिन इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से कोयले से बनने वाली बिजली का उपयोग किया गया।
1987 से 2007 के बीच जलविद्युत उत्पादन में गिरावट आई और इसकी वृद्धि दर केवल 3% रह गई। 1980 के दशक में बड़े बांधों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का विरोध शुरू हुआ, जो इस दौर में और तेज़ हो गया। हालांकि, निजी क्षेत्र (Private Sector) को भी जलविद्युत उत्पादन की अनुमति दी गई, फिर भी 2007 से 2019 के बीच जलविद्युत क्षमता और उत्पादन, दोनों की वृद्धि दर घटकर सिर्फ़ 1% रह गई।
भारत में जलविद्युत ऊर्जा के नुकसान
1. मछलियों को नुकसान - बांध बनने से नदियों का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियाँ अपने अंडे देने की जगह तक नहीं पहुँच पातीं। इससे वे जीव भी प्रभावित होते हैं जो मछलियों को खाते हैं। इसके अलावा, नदी किनारे रहने वाले जानवरों को भी पानी मिलना बंद हो सकता है।
2. कम जगहों पर ही बन सकते हैं - जलविद्युत संयंत्र बनाने के लिए बहुत कम जगहें उपयुक्त होती हैं। कई बार ये जगहें बड़े शहरों से दूर होती हैं, जिससे वहाँ की बिजली का सही उपयोग नहीं हो पाता।
3. बनने में ज़्यादा पैसा लगता है - कोई भी बिजली घर बनाना आसान नहीं होता, लेकिन जलविद्युत संयंत्र के लिए बांध भी बनाना पड़ता है। इससे इसकी शुरुआती लागत ज़्यादा होती है। हालाँकि, बाद में इसे ईंधन खरीदने की ज़रूरत नहीं होती, जिससे पैसे की बचत होती है।
4. प्रदूषण हो सकता है - बिजली बनाने के दौरान जलविद्युत संयंत्र खुद कोई धुआँ नहीं छोड़ते, लेकिन जहाँ पानी जमा होता है, वहाँ नीचे दबे पौधे सड़ने लगते हैं। इससे कार्बन और मीथेन जैसी हानिकारक गैसें निकल सकती हैं।
5. सूखे में काम नहीं करता - अगर किसी जगह पर बारिश कम हो जाए या सूखा पड़ जाए, तो जलविद्युत संयंत्र से बिजली नहीं बन पाएगी। जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में सूखा ज़्यादा हो सकता है।
6. बाढ़ का खतरा - अगर कोई बांध, ऊँचाई पर बनाया गया हो और वह टूट जाए, तो नीचे के गाँवों और शहरों में बाढ़ आ सकती है। इतिहास में सबसे बड़ा बांध हादसा, चीन में ‘बानकियाओ बांध’ (Banqiao Dam) का था, जिसमें 1,71,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे।
भारत में बांधों का नदी जैव विविधता पर प्रभाव
थोड़े समय पहले यह देखा गया कि ब्रह्मपुत्र नदी में गंगा नदी की कुछ मादा डॉल्फ़िन बहुत कमज़ोर होकर धीरे-धीरे तैर रही थीं। पहले ये डॉल्फ़िन काफी फुर्तीली और स्वस्थ होती थीं, लेकिन अब उनकी चमकदार त्वचा मुरझा गई है, पेट पिचक गए हैं, और वे मुश्किल से पानी की सतह पर आकर सांस ले पा रही थीं। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर लगातार बांध बनाए जा रहे हैं, जिससे इन नदियों का प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और जीवन प्रभावित हो रहा है।
मछलियों और अन्य जीवों पर असर
बांध बनाने से नदी का बहाव रुक जाता है, जिससे मछलियों का प्रवास मार्ग कट जाता है और वे अंडे नहीं दे पातीं। जब मछलियाँ नहीं मिलतीं, तो उन्हें खाने वाले गंगा डॉल्फ़िन जैसे जीव भी भूख से मरने लगते हैं। इसके अलावा, रॉयल बंगाल टाइगर, भारतीय गेंडा, इरावदी डॉल्फ़िन, साइबेरियन सारस और कई अन्य जीव भी ऐसे प्रभावित होते हैं। ये सभी जीव एक स्वस्थ नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं, जो बांधों की वजह से नष्ट हो रहा है।
पोषक तत्वों की कमी
नदी में पानी के साथ पोषक तत्व जैसे कार्बन, नाइट्रोजन, सिलिकॉन और फॉस्फोरस भी बहते हैं, जो नदी के किनारे और समुद्र में मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। लेकिन जब बांध बनाए जाते हैं, तो ये तत्व उपरी हिस्से में जमा हो जाते हैं और नीचे नहीं बह पाते। इससे खेती और समुद्र में शैवाल की वृद्धि पर असर पड़ता है, जो जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देता है।
भूकंप और बाढ़ का खतरा
कुछ बांध भूकंप संभावित इलाकों में बनाए जाते हैं, जैसे हिमालय में। अगर वहां कोई भूकंप आता है और बांध टूटता है, तो नीचे के इलाके में बाढ़ आ सकती है। इससे लाखों लोगों की जान जा सकती है। चीन के जिन्शा नदी (Jinsha River) पर बने शिलुओडू बांध (Xiluodu Dam) का उदाहरण देखा गया, जहां बड़े पैमाने पर भू-स्खलन हुआ और घाटी के आकार में बदलाव आया।
क्या बांध पानी बचाते हैं?
बांधों के समर्थक कहते हैं कि ये पानी को संग्रहीत करके उसका उपयोग करते हैं, जिससे पानी की कमी दूर होती है। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। दरअसल, बांधों में जमा पानी सूर्य की गर्मी से वाष्पित हो जाता है और बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। दुनियाभर में जलाशय हर साल करीब 170 घन किलोमीटर पानी वाष्पित कर देते हैं, जो 7% मीठे पानी के बराबर है।
जलविद्युत ऊर्जा कितनी स्वच्छ है ?
हमें लगता है कि जलविद्युत ऊर्जा कोयला और पेट्रोलियम से बनी बिजली से साफ होती है, लेकिन यह भी सही नहीं है। बांधों में जमा जलाशयों में सड़े हुए पौधे और मलबा ग्रीनहाउस गैसों (GHG) जैसे मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड को छोड़ते हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं। पर्यावरण समूह इंटरनेशनल रिवर्स (International Rivers) की निदेशक केट हॉर्नर (Kate Horner) ने इसे लेकर चेतावनी दी थी कि, “यह गलत होगा कि हम बांधों को जलवायु संकट का समाधान मान लें।”
खतरनाक अपशिष्ट भंडारण
कुछ बांधों का उपयोग, खतरनाक खनन कचरे (toxic mining waste) को संग्रहित करने के लिए किया जाता है। हालांकि, इन बांधों के टूटने का खतरा ज़्यादा होता है। जब ये बांध टूटते हैं, तो ज़हरीले पदार्थ मिट्टी में समा जाते हैं और इससे पर्यावरण को बहुत नुकसान होता है। बांधों का विफल होना एक सामान्य समस्या बन चुकी है।
भारत में बड़े बांधों के कुछ वैकल्पिक तरीके
1.) पानी का पुनः उपयोग/पुनर्चक्रण: पानी को पुनः उपयोग या पुनर्चक्रित करने का एक तरीका है सीवेज का उपचार। सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र (Sewage Treatment Plants) गंदे पानी (सीवेज) या ग्रे पानी को साफ कर सकते हैं और इसे फिर से औद्योगिक प्रक्रियाओं, सिंचाई, शौचालयों आदि के लिए उपयोग में ला सकते हैं। इससे पानी की कमी को कम किया जा सकता है।
2.) भूमिगत जल पुनर्भरण: यह प्रक्रिया, वर्षा के पानी को जमीन में समाने की होती है, ताकि भूजल स्तर बढ़ सके। यदि मृदा रेत वाली हो, तो पानी 2 दिन में मिट्टी में समा जाता है और यह सबसे तेज़ तरीका है।
3.) मौजूदा बांधों का पुनर्निर्माण: नए बांध बनाने के बजाय, हम पुराने बांधों की क्षमता बढ़ा सकते हैं। नए चैनल खोल सकते हैं और उन्हें नए कामों के लिए उपयोग कर सकते हैं। यह तरीका, नए बांध बनाने से सस्ता और आसान है, और इससे पर्यावरण और समाज पर कम असर पड़ता है।
4.) बाढ़ प्रबंधन के अन्य तरीके: बांध बाढ़ के नियंत्रण में मदद करते हैं, लेकिन इसके अलावा भी कई तरीके हैं जैसे - पानी के बहाव को कम करना, नदी किनारे और नदी के अंदर बाढ़ प्रबंधन करना, और लोगों को खतरे से दूर रखना आदि।
5.) ऊर्जा उत्पादन के वैकल्पिक तरीके: बांधों का मुख्य काम जल विद्युत (हाइड्रो पावर) उत्पादन होता है, लेकिन इससे होने वाली समस्याओं के कारण हमें दूसरे तरीके भी सोचने चाहिए। कुछ विकल्प हैं - ऊर्जा के सही इस्तेमाल की तकनीकें, सौर ऊर्जा, थर्मल ऊर्जा आदि का उपयोग।
इन विकल्पों से हम बड़े बांधों से होने वाली समस्याओं को कम कर सकते हैं और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पानी और ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: श्रीनगर में अलकनंदा जलविद्युत परियोजना (Wikimedia)
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