
समयसीमा 233
मानव व उनकी इन्द्रियाँ 976
मानव व उसके आविष्कार 768
भूगोल 214
जीव - जन्तु 277
निःसंदेह, लखनऊ के कुछ लोग, इस्लामिक वित्तीय प्रणाली के बारे में जानते होंगे।यह प्रणाली, इस्लामी कानून, जिसे शरीयत कहा जाता है, के नियमों का पालन करती है।इसका मूल विचार यह है कि, पैसा केवल लेन-देन का एक माध्यम है, न कि कोई वस्तु जिससे खुद पैसा कमाया जा सके। इस्लामिक वित्त में ब्याज (जिसे ‘रिबा’ कहा जाता है) लेने या देने की सख़्त मनाही है।
आज, यह प्रणाली, दुनिया भर में फैली हुई है और इसका कुल मूल्य 3.96 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। इस क्षेत्र में 1,650 से भी अधिक संस्थाएँ काम कर रही हैं। 2023 के स्टेट ऑफ़ ग्लोबल इस्लामिक इकोनॉमी रिपोर्ट (State of Global Islamic Economy Report) के अनुसार, 2026 तक इस्लामिक वित्तीय संपत्तियाँ 5.95 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ सकती हैं।
तो चलिए, आज हम, इस वित्तीय प्रणाली को और गहराई से समझते हैं। सबसे पहले, हम जानेंगे कि, इस्लामिक बैंक पैसे कैसे कमाते हैं। फिर, हम इस प्रणाली में इस्तेमाल होने वाले कुछ महत्वपूर्ण तरीकों पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम उन गतिविधियों के बारे में चर्चा करेंगे जो इस्लामिक बैंकिंग में प्रतिबंधित होती हैं। आखिर में, हम जानेंगे कि, इस प्रणाली के सामने कौन-कौन सी बड़ी चुनौतियाँ हैं।
इस्लामिक वित्तीय प्रणाली क्या है ?
इस्लामिक वित्त में सबसे महत्वपूर्ण नियम, सूद (ब्याज) की मनाही है। इसका मतलब यह है कि, इस प्रणाली में ऋणदाता और उधारकर्ता, ब्याज लेने या देने के लिए प्रतिबंधित होते हैं। शरीयत के अनुसार चलने वाले बैंक ब्याज आधारित ऋण नहीं देते।
इस्लामिक बैंक पैसा कैसे कमाते हैं ?
इस्लामिक बैंक आम बैंकों की तरह ग्राहकों को ब्याज पर पैसा उधार नहीं देते। इसके बजाय, वे जिस वस्तु की ज़रूरत होती है, उसे खुद खरीदते हैं—जैसे घर, कार या फ़्रिज —और फिर उसे ग्राहक को मासिक किस्तों में या किराए पर देते हैं। इस प्रक्रिया में बैंक एक निश्चित लाभ कमाते हैं, जो आमतौर पर बाज़ार मूल्य से अधिक होता है।
इस प्रणाली का मुख्य सिद्धांत जोखिम को साझा करना है। बैंक ग्राहक के साथ जोखिम उठाते हैं और उसी के आधार पर लाभ अर्जित करते हैं। ब्याज पर निर्भर रहने के बजाय, इस्लामिक बैंक अपने ग्राहकों के पैसे का उपयोग संपत्तियाँ (जैसे घर, व्यापार आदि) खरीदने में करते हैं और जब ग्राहक भुगतान पूरा कर देता है, तब उन्हें मुनाफ़ा होता है।
इस्लामिक बैंकिंग का महत्व
इस्लामिक बैंकिंग की नैतिकता आधारित प्रणाली, इसे खास बनाती है। जब कई ग्राहक, पारंपरिक वित्तीय प्रणाली पर भरोसा नहीं कर पाते, तब इस्लामिक बैंक अपनी पारदर्शिता और नियमों के कारण सफल होते हैं। इसके अलावा, शरीयत के अनुसार चलने वाले बैंक, आर्थिक संकट के समय भी अपनी मज़बूती साबित कर चुके हैं।
इस्लामिक कानून के अनुसार, “पैसे से पैसा कमाना गलत” माना जाता है। इसलिए, इस्लामिक बैंक अनावश्यक जोखिम वाले निवेशों से बचते हैं। वे सट्टेबाज़ी से दूर रहते हैं और आमतौर पर फ़्यूचर्स या ऑप्शंस (Futures and Options) जैसे डेरिवेटिव साधनों का उपयोग नहीं करते। इसके बजाय, वे वास्तविक संपत्तियों में निवेश करना पसंद करते हैं।
इसी कारण, 2008 के वित्तीय संकट के दौरान इस्लामिक बैंक पारंपरिक बैंकों की तुलना में अधिक सुरक्षित रहे। वे हानिकारक वित्तीय साधनों (toxic assets) में शामिल नहीं थे, जिससे उन्हें संकट का असर कम झेलना पड़ा।
इस्लामिक वित्त के प्रमुख तरीके
1. मुदारबाह (Mudarabah (साझेदारी)) – इसमें दो पक्ष होते हैं। एक व्यक्ति पैसा लगाता है (निवेशक) और दूसरा मेहनत करता है (प्रबंधक)। अगर व्यापार में मुनाफ़ा होता है, तो दोनों पहले से तय हिस्से के अनुसार इसे बांटते हैं। लेकिन अगर नुकसान होता है, तो सिर्फ निवेश करने वाला व्यक्ति नुकसान उठाता है, जबकि मेहनत करने वाले को उसकी मेहनत का कोई लाभ नहीं मिलता।
2. मुशरकाह (Musharakah (साझा व्यापार)) – इसमें दो या अधिक लोग मिलकर पैसा लगाते हैं और व्यापार करते हैं। जो भी मुनाफ़ा या नुकसान होता है, उसे पहले से तय अनुपात में बांटते हैं। अगर लाभ होता है, तो सभी को उनके हिस्से के अनुसार मिलता है और यदि नुकसान होता है, तो सभी को अपने-अपने निवेश के हिसाब से नुकसान उठाना पड़ता है।
3. मुराबहा (Murabaha (किस्तों में खरीद)) – यह एक खास तरह की खरीदारी प्रक्रिया है। इसमें बैंक पहले ग्राहक की ज़रुरत की चीज़ (जैसे घर, गाड़ी या कोई और सामान) खरीदता है। फिर इसे ग्राहक को एक निश्चित लाभ जोड़कर बेचता है। ग्राहक इस रकम को आसान किश्तों में चुका सकता है। इसमें ब्याज नहीं लिया जाता, बल्कि बैंक अपने सेवा शुल्क के रूप में एक निश्चित मुनाफ़ा कमाता है।
4. इजारह (Ijarah (किराए पर देना)) – इसमें बैंक या व्यक्ति अपनी संपत्ति (जैसे घर, गाड़ी, मशीनें) किसी दूसरे को एक तय समय के लिए किराए पर देता है। बदले में किराएदार एक निश्चित रकम चुकाता है। तय समय पूरा होने के बाद संपत्ति मालिक के पास ही रहती है, लेकिन कुछ मामलों में किराएदार को बाद में इसे खरीदने का विकल्प भी मिल सकता है।
इन वित्तीय साधनों के ज़रिए इस्लामिक बैंक बिना ब्याज के व्यापार को बढ़ावा देते हैं और आर्थिक गतिविधियों को शरीयत के नियमों के अनुसार संचालित करते हैं।
इस्लामिक बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली में निषेध गतिविधियाँ
इस्लामिक वित्तीय प्रणाली के प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू
संदर्भ
मुख्य चित्र: जिबूती की राजधानी जिबूती शहर (Djibouti City) में सबा इस्लामिक बैंक की एक शाखा: Wikimedia
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.