आइए जानते हैं, किन कारणों से प्रभावित होती है, लखनऊ के चिकनकारी कारीगरों की आजीविका

स्पर्शः रचना व कपड़े
19-02-2025 09:33 AM
आइए जानते हैं, किन कारणों से प्रभावित होती है, लखनऊ के चिकनकारी कारीगरों की आजीविका

लखनऊ अपनी अनोखी चिकनकारी कढ़ाई के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।हालांकि चिकनकारी का काम, कई जगहों पर होता है, लेकिन लखनऊ की पारंपरिक चिकनकारी खास होती है, क्योंकि इसमें कपड़े पर फूलों और बेलों के सुंदर डिज़ाइन बनाए जाते हैं।
साल 2020 में, लखनऊ में करीब 5 लाख लोग, जिनमें कारीगर और व्यापारी शामिल थे, इस काम से जुड़े हुए थे। तो चलिए, आज हम इस उद्योग में रोज़गार के बारे में बात करते हैं। सबसे पहले, हम यह जानेंगे कि लखनऊ की महिलाएँ, जो चिकनकारी का काम करती हैं, कितना कमाती हैं। फिर, हम, उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में समझने की कोशिश करेंगे।
इसके बाद, हम जानेंगे कि यह कढ़ाई करने की तकनीक कैसे काम करती है। फिर, लखनऊ की चिकनकारी में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के बारे में बात करेंगे। और अंत में, इस हस्तशिल्प में इस्तेमाल किए जाने वाले औज़ारों के बारे में जानकारी लेंगे।

लखनऊ की चिकनकारी और उत्तर भारतीय कढ़ाई शैलियाँ

चिकनकारी, जो लखनऊ की पहचान है, अन्य उत्तर भारतीय कढ़ाई शैलियों जैसे ज़र्दोज़ी से प्रभावित और मेलजोल करती है। ज़र्दोज़ी की तुलना में चिकनकारी के डिज़ाइन अधिक नाज़ुक होते हैं, जिसमें फूलों और बेलों की डिज़ाइन को प्राथमिकता दी जाती है। यह पारंपरिक कला रूप, जो फ़ारसी सौंदर्यशास्त्र से प्रभावित है, अब समय के साथ और भी समृद्ध हो चुका है, विशेषकर ज़र्दोज़ी के साथ जुड़ने के द्वारा।

Source : प्रारंग चित्र संग्रह 

लखनऊ में महिला चिकनकारी कारीगर कितना कमाती हैं ?

लखनऊ की चिकनकारी कला, भारत में सबसे बड़ा कारीगर समूह बनाती है। करीब 3 लाख कारीगर, इस कला से जुड़े हुए हैं, और लगभग 5000 परिवार, लखनऊ और आसपास के गाँवों में चिकनकारी का काम करके अपनी आजीविका कमाते हैं। इन परिवारों में लगभग 90% काम महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाई और अपनाई जाती है।

महिलाएँ अक्सर फ़ैक्ट्रियों में काम करने के साथ-साथ घर पर भी इन कपड़ों पर कढ़ाई करती हैं। लेकिन कारीगरों और बाजार के बीच एक बड़ी खाई है, जिसे बिचौलिये (middlemen) भरते हैं। ये बिचौलिये कारीगरों से कम कीमत में काम करवाकर व्यापारियों से अधिक पैसा लेते हैं। इस वजह से, एक महिला कारीगर, औसतन केवल  800-1000 रूपए प्रति माह ही कमा पाती है। इतनी कम आमदनी से अपना घर चलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

1986 में, मशहूर बॉलीवुड निर्देशक, मुज़फ़्फ़र अली ने इस मुद्दे पर आधारित एक फ़िल्म “अंजुमन” बनाई थी। इस फ़िल्म में लखनऊ की चिकनकारी कारीगर महिलाओं की समस्याओं और बिचौलियों द्वारा किए जाने वाले शोषण को दिखाया गया है।

कारीगरों की कमाई और जीवनस्तर को बेहतर बनाने के लिए कई कदम उठाए जाने की ज़रूरत है, ताकि यह कला और इससे जुड़े लोग सम्मानजनक जीवन जी सकें।

सीतापुर ज़िले में चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक आर्थिक स्थिति

सीतापुर ज़िले में चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति काफ़ी चुनौतीपूर्ण है। इस ज़िले के ग्रामीण लोग मुख्य रूप से चिकनकारी कढ़ाई पर निर्भर हैं, और यह कला खासतौर पर यहां की महिलाओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय है। एक अध्ययन के अनुसार, 20-40 साल की उम्र की महिलाएं इस काम में अधिक सक्रिय हैं क्योंकि उन्हें  बुज़ुर्गों की तुलना में स्वास्थ्य समस्याएं कम होती हैं।

2019 के “मॉडिफाइड कुप्पुस्वामी सामाजिक-आर्थिक पैमाने” के अनुसार, इन कारीगरों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है। इनमें से 60% लोग “उच्च-निम्न वर्ग” में आते हैं, जबकि 40% “निम्न-मध्यम वर्ग” के हैं। इनकी मासिक कमाई ज़्यादातर  5000 रूपए से कम होती है, और औसत आय  2566.66 रूपए प्रति व्यक्ति होती है। परिवारों की कुल मासिक आय  19,516 से  29,199 रूपए के बीच होती है, जिसमें औसत आय  20,542.91 रूपए होती है।

Source : प्रारंग चित्र संग्रह 

इन कारीगरों के रहने की स्थिति भी उनकी आर्थिक परेशानियों को दिखाती है। अधिकांश लोग कच्चे मकानों में रहते हैं, लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं, और पीने के पानी के लिए सार्वजनिक हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं। उनके पास ज़मीन बहुत कम या बिल्कुल नहीं होती, और वे अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर रहते हैं।

लखनऊ की मशहूर चिकनकारी कला, अब सीतापुर और आसपास के जिलों में भी फैल गई है। इस कला से लाखों कारीगरों को रोज़गार मिलता है। लेकिन इस उद्योग के असंगठित होने, कम मजदूरी और ख़राब जीवन स्तर की वजह से इन कारीगरों की स्थिति सुधारने और इस कला को बचाने के लिए ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है।

Source : flickr

लखनऊ की चिकनकारी का निर्माण प्रक्रिया

1) ब्लॉक प्रिंटिंग: चिकनकारी का काम शुरू करने के लिए, डिज़ाइन पहले कपड़े पर प्रिंट किया जाता है। लकड़ी के ब्लॉक को एक खास रंग घोल (जिसमें गोंद और इंडिगो/नील मिलाए जाते हैं) में डुबोकर कपड़े पर छापा जाता है। बुटियां, फूलों के डिज़ाइन और बॉर्डर के लिए अलग-अलग ब्लॉक्स का इस्तेमाल होता है। लखनऊ में ब्लॉक प्रिंटिंग का काम अलग कारीगरों का समूह करता है जो इस काम में माहिर होते हैं। प्रिंट किए गए कपड़े को फिर कढ़ाई के लिए तैयार किया जाता है। लगभग हर चिकनकारी वाले कपड़े में फूलों के डिज़ाइन और रूपांकन होते हैं, जो इस कला पर फ़ारसी सौंदर्यशास्त्र के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं।

2) कढ़ाई: कपड़े को एक छोटे  फ़्रेम, जिसे ‘अड्डा’ कहते हैं, में कसकर लगाया जाता है। कढ़ाई का काम प्रिंट किए गए डिज़ाइन के ऊपर सुई और धागे की मदद से किया जाता है। एक ही प्रोडक्ट में अलग-अलग प्रकार के टांके इस्तेमाल किए जा सकते हैं। कारीगर डिज़ाइन के क्षेत्र, रूपांकन के प्रकार और आकार के अनुसार टांका चुनते हैं। चिकनकारी में इस्तेमाल होने वाले मुख्य टांकों के नाम हैं: टेपटची, बखिया, हूल, ज़ंजीरा, जाली, रहत,  फंदा और मुर्री।

3) धुलाई: निर्माण प्रक्रिया का आखिरी चरण धुलाई है। कढ़ाई का काम पूरा होने के बाद कपड़े को पानी में भिगोकर धोया जाता है ताकि ब्लॉक प्रिंट का नीला रंग हट सके। इसके बाद कपड़े को स्टार्च करके आयरन किया जाता है ताकि उसे सख़्त और तैयार लुक मिल सके। इस तरह  फ़ाइनल प्रोडक्ट बिक्री के लिए तैयार हो जाता है।

4) रख-रखाव: चिकनकारी के कपड़े, लंबे समय तक चल सकते हैं अगर सही देखभाल की जाए। इन्हें ड्राई क्लीन या हाथ से धोना बेहतर होता है, जो कपड़े के प्रकार पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, सिल्क चिकनकारी के कपड़े, ड्राई क्लीन करने से ज़्यादा चलते हैं, जबकि कॉटन चिकनकारी का कुर्ता हाथ से धोया जा सकता है। कपड़ों को अलमारी में रखते समय उन्हें मोड़ने के बजाय रोल करके रखना बेहतर होता है, क्योंकि मोड़ने से कढ़ाई पर असर पड़ सकता है।

लखनऊ  के चिकनकारी उद्योग में उपयोग होने वाली कच्ची सामग्री

1.) कपड़े की विभिन्न प्रकार की किस्में जैसे सूती (वॉयल, कैम्ब्रिक, मलमल, रुबिया, पीसी, आदि), रेशम, शिफ़ॉन, क्रेप, जॉर्जेट, शिफॉन, ऑर्गेंजा, मलमल, विस्कोज़, आदि का इस्तेमाल चिकनकारी कढ़ाई के काम में किया जाता है।

2.) सूती धागे का पारंपरिक रूप से इस्तेमाल कपड़े पर डिज़ाइन बनाने के लिए किया जाता है।

3.) सोने की जरी, चांदी की ज़री, रेशम आदि धागे भी चिकनकारी कढ़ाई में उपयोग किए जाते हैं।

4.) ब्लॉक प्रिंटिंग प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाला नीला रंग, जिसे हाथ से तैयार किया जाता है।

5.) कपड़ों को धोने के लिए नदी का पानी उपयोग किया जाता है, ताकि प्रिंटिंग के निशान साफ़ किए जा सकें।

6.) स्टार्च का उपयोग धोए गए कपड़ों को सख़्त बनाने के लिए किया जाता है, जिससे कपड़े को बेहतर फ़िनिश भी मिलती है।

Source : प्रारंग चित्र संग्रह 

लखनऊ के चिकनकारी उद्योग में प्रयुक्त उपकरण

1. सूई-धागा: चिकनकारी में सूई-धागा, एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इसका उपयोग, डिज़ाइन बनाने के लिए किया जाता है।

2. गोल आकार का  फ़्रेम: कपड़े को तानकर रखने के लिए गोल आकार का  फ़्रेम उपयोग में लाया जाता है। यह लकड़ी या कपड़े से बना हो सकता है, लेकिन आजकल ज़्यादातर प्लास्टिक से बने होते हैं।

3. लकड़ी के ब्लॉक: इन्हें सादा कपड़े पर डिज़ाइन प्रिंट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

4. आयताकार लकड़ी की  मेज़: यह प्रिंटिंग प्रक्रिया में सहारे के रूप में काम आती है।

5. कंटेनर: इन्हें कपड़े धोने के लिए उपयोग किया जाता है, जब सिलाई का काम पूरा हो जाता है।

6. कैंची और कटर: इनका उपयोग, अतिरिक्त धागे को काटने के लिए किया जाता है, ताकि अंतिम फ़िनिशिंग हो सके।

समय के साथ, चिकनकारी में और भी सजावट जोड़ी गई है, जैसे मुक़य्यश, कामदानी (सुच्ची जर रेशम वस्त्र), बादला, सीक्वेंस(सितारे), और मोती व कांच का काम, जो इसे और भी भव्य और आकर्षक बनाता है। इन सभी उपकरणों और तकनीकों का मिश्रण, हर चिकनकारी उत्पाद को खास और अद्वितीय बनाता है।

 

संदर्भ 

https://tinyurl.com/37hzfyun 

https://shorturl.at/KVzEm 

https://shorturl.at/RYY8j 

https://shorturl.at/lqlv5

https://shorturl.at/RdqUX 

https://tinyurl.com/yeyp6e48 

मुख्य चित्र स्रोत: Wikimedia

 

पिछला / Previous अगला / Next

Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.