![हथकरघा से लेकर आधुनिक मिलों तक, विकास के कई चरण देखे हैं, भारतीय कपड़ा उद्योग ने](https://prarang.s3.amazonaws.com/posts/11548_January_2025_678db5f065b80.jpg)
भारत का कपड़ा उद्योग, 5000 वर्षों से अधिक पुराना है | गाँवों में हथकरघा (handloom) से अपनी मामूली शुरुआत से लेकर, बड़े पैमाने पर आधुनिक कपड़ा मिलों तक, इस उद्योग ने विकास के कई चरण देखे हैं। प्राचीन काल से लेकर अब तक, भारतीय कपड़ा उद्योग ने एक लंबा सफ़र तय किया है। भारत में वस्त्रों की कहानी दुनिया में सबसे पुरानी कहानियों में से एक है। वर्तमान में भारत का कपड़ा उद्योग चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा उद्योग है, जिसके 2029 तक 209 अरब डॉलर के राजस्व तक पहुंचने का अनुमान है। हमारा अपना शहर लखनऊ भी लंबे समय से कपड़ा उद्योग के केंद्र के रूप में जाना जाता है, जहां कपड़ों और परिधानों के जीवंत उत्पादन में आधुनिकता के साथ परंपरा का मिश्रण देखने को मिलता है। यह शहर विशेष रूप से अपनी जटिल चिकनकारी कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध है, एक ऐसा शिल्प, जो न केवल इसकी सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करता है बल्कि हज़ारों कारीगरों को आजीविका भी प्रदान करता है। लखनऊ का कपड़ा उद्योग न केवल स्थानीय बाज़ारों का समर्थन करता है बल्कि वैश्विक मांग को भी पूरा करता है, जिससे यह शहर की अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा बन जाता है। जैसे-जैसे, यह उद्योग विकसित हो रहा है, इसकी समृद्ध कलात्मक विरासत को संरक्षित करते हुए, आधुनिक तकनीकें और टिकाऊ प्रथाएं इस उद्योग को बढ़ाने में मदद कर रही हैं। तो आइए आज, भारत में कपड़ा उद्योग के ऐतिहासिक विकास के चरणों के बारे में जानते हैं, जिसमें प्राचीन परंपराओं से लेकर औपनिवेशिक प्रभावों तक इसकी समृद्ध विरासत शामिल है। इसके साथ ही, हम ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति के दौरान कपड़ा उद्योग की स्थिति के बारे में भी जानेंगे। अंत में, हम भारतीय कपड़ा उद्योग में नवीनतम तकनीकों और प्रौद्योगिकियों के उपयोग के बारे में समझेंगे।
भारत में कपड़ा उद्योग के ऐतिहासिक विकास के चरण:
वास्तव में, भारतीय कपड़ा उद्योग की विरासत, 5000 वर्ष पुरानी है। भारत में मौजूद सबसे पुराने सूती धागे लगभग 4000 ईसा पूर्व के हैं और रंगे हुए कपड़े 2500 ईसा पूर्व के हैं। भारत का कपड़ा विदेशों में इसकी पहचान के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि प्राचीन ग्रीस और बेबीलोन में 'कपास' के लिए 'इंडिया' नाम का उपयोग किया जाता था। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई के दौरान, ऊन, कपास और कुछ तांबे की सिलाई सुइयां भी पाईं गईं । इसके साथ ही, बुने हुए कपड़े की छाप और बड़ी संख्या में कपास के बीज भी पाए गए, जो 5000 ईसा पूर्व के हैं, उस समय तक ऐसा प्रतीत होता है कि कपास की खेती और कपड़ा बुनाई पहले से ही एक उन्नत चरण में थी। वर्तमान में, भारत का कपड़ा उद्योग देश की विविध सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है। भारत में कपड़ा उद्योग के विकास को मोटे तौर पर तीन अलग-अलग चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
पूर्व-औपनिवेशिक काल: भारत का कपड़ा उद्योग, औपनिवेशिक काल से बहुत पहले दुनिया भर में प्रसिद्ध था। पश्चिमी देशों में चीन से रेशम और भारत से कपास आयातित की जाने वाली महत्वपूर्ण वस्तुएँ थीं। 15वीं शताब्दी में, महान यात्री वास्को दा गामा (Vasco Da Gama) द्वारा 'केप ऑफ़ गुड होप' (Cape of Good Hope) के माध्यम से समुद्री मार्ग की खोज से दुनिया की भारतीय बाज़ारों तक पहुंच काफ़ी बढ़ गई थी। मध्यकाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रवेश के साथ, भारतीय वस्त्रों और कपड़ों का उत्पादन और व्यापार और भी तेज़ हो गया।
औपनिवेशिक काल: औपनिवेशिक काल के दौरान, भारत में केलिको (Calico) और अन्य प्रकार के कपास के उत्पादन से भारतीय कारीगरों के कौशल ने कपड़ा उद्योग में एक विशाल विविधता को जन्म दिया और उनकी गुणवत्ता को यूरोप में उत्पादित वस्त्रों की तुलना में कहीं बेहतर बना दिया। हालाँकि, औपनिवेशिक काल के बाद, स्थिति बदलने लगी। चूंकि मशीन से काते गए सूत से बने अधिक किफ़ायती कपड़ों की न केवल यूरोपीय, बल्कि भारतीय बाज़ारों में भी बाढ़ आ गई, इससे पारंपरिक हाथ से बुने गए सूत और वस्त्रों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जो पश्चिम में रासायनिक रंगों के उपयोग के साथ और भी अधिक स्पष्ट हो गया। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति शुरू होने के बाद, इंग्लैंड ने भारतीय बाज़ार में ब्रिटिश वस्तुओं पर सभी आयात शुल्क हटा दिए, जबकि ब्रिटिश बाज़ारों में भारतीय कपड़ों पर भारी आयात शुल्क लगा दिया। भारतीय कपड़ा मिलें ब्रिटेन में उत्पादित मशीन-निर्मित वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर पाईं और धीरे-धीरे औपनिवेशिक काल के दौरान भारतीय कपड़ा उद्योग में गिरावट आई।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय कपड़ा उद्योग का विकास: औपनिवेशिक शासन के अधिकतम लाभ कमाने के एकमात्र एजेंडे के कारण इस दौरान अन्य सभी उद्योगों की तरह भारत में कपड़ा उद्योग को भी बड़ा नुकसान हुआ। हालांकि, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, ब्रिटिश मिल-निर्मित कपड़ों का बहिष्कार और खादी को बढ़ावा देना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के तहत स्वराज आंदोलन की पहचान बन गया। 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद, कपड़ा उद्योग के सामने औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की बहुत सारी चुनौतियाँ आईं। भारत की विशाल आबादी के लिए, कारखानों में कपड़ों के उत्पादन को बढ़ाने के अभियान के साथ-साथ, सरकार ने हाथ से बुनाई और अन्य कपड़ा शिल्प को बढ़ावा देने के लिए 1952 में 'अखिल भारतीय हथकरघा बोर्ड' की स्थापना की। 1961 में, 'राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान' की स्थापना हुई और डिज़ाइनरों ने आधुनिकीकरण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू की। भारत सरकार ने तेज़ी से कपड़ा उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए कई उपाय और पहल लागू की। वर्तमान में, भारतीय कपड़ा उद्योग महत्वपूर्ण विशेषताओं और उज्ज्वल भविष्य के साथ एक अच्छी तरह से स्थापित उद्योग है। भारतीय कपड़ा उद्योग देश के समग्र विनिर्माण क्षेत्र का एक अभिन्न अंग है और देश की अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख योगदानकर्ता है। भारत का कपड़ा उद्योग रोज़गार सृजन के मामले में भी देश में सबसे बड़ा है।
ब्रिटिश औद्योगिक क्रांति के दौरान, कपड़ा उद्योग की स्थिति:
औद्योगिक क्रांति (1760-1840) के दौरान, कपड़ा उत्पादन एक कुटीर उद्योग से एक अत्यधिक मशीनीकृत उद्योग में बदल गया था, जहां श्रमिकों का कार्य केवल यह सुनिश्चित करना था कि कार्डिंग, कताई और बुनाई मशीनें कभी बंद न हों। बड़ी संख्या में अधिकांश मिल मालिकों द्वारा पानी के पहियों और फिर भाप इंजनों द्वारा संचालित मशीनों को अपनाने का अर्थ था कि कई कुशल कपड़ा श्रमिकों ने अपना रोज़गार खो दिया। कपड़ा मिलों में कामकाज़ की खराब परिस्थितियों परिणाम स्वरूप ट्रेड यूनियन आंदोलन उभर कर सामने आए, जिन्होंने सरकारों को श्रमिकों की भलाई की रक्षा के लिए कानून पारित करने के लिए प्रेरित किया।
परंपरागत रूप से, सूत और कपड़ा सूत कातनेवालों और बुनकरों से खरीदा जाता था जो अपने घरों में या छोटी कार्यशालाओं में काम करते थे। 1733 में जॉन के (John Kay) द्वारा बुनाई के फ्रेम के लिए उड़ने वाले शटल के आविष्कार के साथ उत्पादन में काफ़ी तेज़ी आई, इस शटल का उपयोग बुनाई के फ्रेम पर ताने में क्षैतिज रूप से धागा खींचने (बाने) के लिए किया जाता था। इसके उपयोग से वस्त्र बनाने का कार्य तेज़ी से किया जाने लगा। लेकिन अब समस्या यह थी कि तेज़ी से बुनाई के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए अधिक सूत कैसे काता जाए। पारंपरिक चरखे से एक समय में केवल एक ही धागा काता जा सकता था। परिणामस्वरूप, आविष्कारकों ने ऐसी मशीनें बनाने का प्रयास किया जो एक साथ कई धागों को घुमा सकें। इससे केवल एक ही श्रमिक कई लोगों का काम प्रभावी ढंग से कर सकता था। इसके अलावा, कई सारी मशीनों को एक ही जगह - एक फ़ैक्ट्री या मिल में लगाने के प्रयास किए गए, जिससे तो उत्पादन लागत और भी कम हो जाए। औद्योगिक क्रांति के दौरान कपड़ा उद्योग को आगे बढ़ाने में कई आविष्कारकों ने अपनी मशीनें बनाईं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं:
मशीनों का अर्थ था कि कपड़ा उत्पाद अब हर किसी के लिए सस्ते थे, और इसके साथ ही कपास के बागानों और कोयला खदानों जैसे आपूर्ति उद्योगों में तेज़ी आई। 19वीं शताब्दी में, ग्रामीण इलाकों से काम की खोज में शहरों और कस्बों की ओर लोगों के आने के कारण बड़े शहरों की आबादी कई गुना बढ़ गई। मशीनों के आगमन के कारण, कई कुशल कपड़ा श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा, जिसके परिणाम स्वरूप कई लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन भी किया।
इसके अलावा, कपड़ा मिलों में श्रमिकों को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। मशीनों से न केवल असहनीय शोर होता था, बल्कि कभी-कभी विफल होने पर ये मशीनें खतरनाक भी हो जाती थीं, सूती धागे को लचीला और मज़बूत बनाए रखने के लिए, कारखाने में वातावरण को जानबूझकर गर्म और नम रखा जाता था। ऐसी स्थितियों में, अधिकांश श्रमिकों को स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता था, खासकर फेफड़ों से संबंधित। इस दौरान, कारखानों और मिलों में कार्य दिवस भी लंबा होता था, आम तौर पर 12 घंटे और इसमें रात का काम भी शामिल होता था क्योंकि कारखानों में मशीनें चौबीसों घंटे काम करती थीं। कई नियोक्ता काम के लिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं और बच्चों को प्राथमिकता देते थे क्योंकि वे सस्ते थे। बच्चों को भी काम पर लगाया जाता था, क्योंकि वे कपास के कचरे को साफ़ करने के लिए मशीनों के नीचे रेंग सकते थे। जैसे-जैसे, मिल मालिकों का अधिक पैसा कमाने का जुनून बढ़ता गया, श्रमिकों पर तेज़ी से काम करने और उत्पादन में देरी न करने का दबाव बढ़ने लगा, यहां तक कि शौचालय में बहुत अधिक समय लगाने वाले श्रमिकों पर जुर्माना लगाया जाने लगा।
इन सभी परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप, श्रमिक अंततः अपने हितों की रक्षा के लिए एक साथ समूहबद्ध हो गए। बेईमान नियोक्ताओं के दुर्व्यवहारों को रोकने के लिए ट्रेड यूनियनों का गठन किया गया। यूनियनों द्वारा मालिकों से बीमार या घायल लोगों की मदद के लिए धन एकत्र किया जाने लगा। इसलिए मालिकों ने यूनियनों का विरोध करना शुरू कर दिया और सरकार ने 1799 और 1824 के बीच ट्रेड यूनियनों (Trade Union)पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन श्रमिकों की सुरक्षा के लिए जन आंदोलन को बहुत समय तक नहीं रोका जा सका। नियोक्ताओं द्वारा अपने कार्यबल के शोषण को सीमित करने और न्यूनतम मानक निर्धारित करने के लिए, 1833 में संसद ने कई अधिनियम पारित किए। नए नियमों में बच्चों के काम करने की न्यूनतम आयु, कार्य के लिए घंटों की निर्धारित सीमा, महिलाओं और बच्चों के लिए रात के काम पर प्रतिबंध, मालिकों के लिए अधिक खतरनाक मशीनों के लिए सुरक्षात्मक स्क्रीन बनाने की बाध्यता और सरकारी निरीक्षकों की नियुक्ति शामिल थी।
भारतीय कपड़ा उद्योग में नवीनतम नवाचार और प्रौद्योगिकी:
भारत के कपड़ा उद्योग की जड़ें हज़ारो साल पुरानी हैं। देश के कपड़ा उद्योग ने एक परिवर्तनकारी यात्रा देखी है, जो पारंपरिक हथकरघा प्रथाओं से लेकर आधुनिक युग में अत्याधुनिक तकनीक और नवाचार को अपनाने तक विकसित हुई है। हाल के दिनों में, भारतीय फ़ैशन उद्योग में तकनीकी प्रगति में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। यहां भारतीय कपड़ा उद्योग को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले नवीनतम नवाचारों के बारे में बताया गया है:
उन्नत कपड़ा विनिर्माण तकनीकें: भारत में कपड़ा उद्योग में उन्नत निर्माण तकनीकों के एकीकरण से एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। कम्प्यूटरीकृत बुनाई मशीनों और स्वचालित करघों के उपयोग से न केवल उत्पादन दर में तेज़ी आई है, बल्कि उच्च गुणवत्ता का एक उल्लेखनीय स्तर भी प्राप्त हुआ है जो पहले मैन्युअल श्रम के माध्यम से अप्राप्य था। इसके अलावा, डिजिटल प्रिंटिंग विधियों के समावेश से, डिज़ाइनरों और निर्माताओं को अधिक लचीलेपन के साथ रंगों, प्रिंटों और डिज़ाइनों के साथ प्रयोग करने की अनुमति मिलती है। परिणामस्वरूप, इस तकनीकी क्रांति ने न केवल वस्त्रों की दक्षता और गुणवत्ता को बढ़ाया है, बल्कि भारतीय कपड़ा परिदृश्य में नवाचार और रचनात्मकता के द्वार भी खोले हैं।
स्मार्ट कपड़े और पहनने योग्य प्रौद्योगिकी: स्मार्ट कपड़े और पहनने योग्य तकनीक, फ़ैशन और अत्याधुनिक नवाचार के एक महत्वपूर्ण अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय शोधकर्ता और डिज़ाइनर, न केवल गैजेट बनाने के लिए बल्कि अनुभवों को गढ़ने के लिए भी पहनने योग्य तकनीक के क्षेत्र में सावधानी से काम कर रहे हैं। ऐसे कपड़ों की कल्पना करें जो पर्यावरणीय परिवर्तनों के अनुकूल हों, वास्तविक समय में शरीर के तापमान को नियंत्रित करते हों, या ऐसे वस्त्रों की कल्पना करें, जो महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आंकड़ों पर निर्बाध रूप से नज़र रखते हों। भारत के फ़ैशन तकनीक परिदृश्य में अन्वेषण और प्रयोग अभूतपूर्व अवधारणाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रौद्योगिकी और फ़ैशन के बीच विकसित हो रहा यह तालमेल महज़ कार्यक्षमता से आगे बढ़कर एक नए युग की शुरुआत कर रहा है, जहां पोशाकें न केवल पहनने के लिए बनाई जाती हैं, बल्कि पहनने वाले और पर्यावरण के साथ संचार और बातचीत भी करती है।
टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल प्रथाएँ: भारतीय कपड़ा उद्योग में, निर्माता तेज़ी से ऐसी रणनीतियाँ अपना रहे हैं, जो वस्त्रों के संपूर्ण जीवनचक्र को प्राथमिकता देती हैं | इनका लक्ष्य, अपशिष्ट उत्पादन को कम करना और संसाधन दक्षता को अधिकतम करना है। बंद-लूप उत्पादन प्रणाली जैसी पहल, जहां सामग्रियों को उनके जीवन चक्र के अंत में पुनर्नवीनीकरण या पुनर्जीवित किया जाता है, गति पकड़ रही हैं। इस दृष्टिकोण से पर्यावरणीय प्रभाव कम हो जाता है और अधिक लचीले और संसाधन-कुशल उद्योग को बढ़ावा मिलता है।
3 डी प्रिंटिंग और डिजिटल डिज़ाइन: 3 डी प्रिंटिंग (3D Printing) के आगमन से, न केवल डिज़ाइन पहलू में क्रांति आई है, बल्कि उत्पादन प्रक्रिया भी प्रभावित हुई है। इस नवोन्मेषी दृष्टिकोण में, सामग्री की बर्बादी को काफ़ी हद तक कम कर दिया जाता है, क्योंकि इससे अतिरिक्त इन्वेंट्री (inventory) के बिना आवश्यकतानुसार वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इसके अतिरिक्त, 3 डी प्रिंटिंग से, जटिल से जटिल डिज़ाइन बनाने की अनुमति मिलती है, जिन्हें पारंपरिक विनिर्माण विधियों के माध्यम से बनाना पहले चुनौतीपूर्ण या असंभव था।
ई-कॉमर्स और आभासी पहनावा: ग्राहकों को यह कल्पना करने की अनुमति देकर कि कोई विशेष परिधान उन पर कैसा दिखेगा और फिट होगा, ये प्रौद्योगिकियां विभिन्न ब्रांडों के बीच आकार भिन्नता से जुड़ी अनिश्चितताओं को कम करती हैं। यह तकनीक खरीदारों को अधिक जानकारीपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम बनाती है, जिससे ग्राहकों में संतुष्टि का स्तर बढ़ जाता है और ब्रांड के प्रति वफ़ादारी बढ़ती है। जैसे-जैसे भारतीय कपड़ा और परिधान कंपनियां इन वर्चुअल ट्राई-ऑन (Try on) अनुभवों को परिष्कृत और विस्तारित कर रही हैं, वे आज के तकनीक-प्रेमी उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं में तेज़ी से बदलाव ला रही हैं।
फ़ैशन में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का उपयोग: ए आई-संचालित उपकरण, फ़ैशन उद्योग में डिज़ाइन प्रक्रिया में क्रांति ला रहे हैं। ये परिष्कृत एल्गोरिदम, नवीन और बाज़ार -प्रासंगिक संग्रह बनाने में डिज़ाइनरों की सहायता के लिए सोशल मीडिया रुझानों, ऐतिहासिक फ़ैशन अभिलेखागार और उपभोक्ता प्राथमिकताओं सहित बड़ी मात्रा में डेटा का विश्लेषण कर सकते हैं। पैटर्न की पहचान करके और विकसित होती रुचियों को समझकर, ए आई रचनात्मक प्रक्रिया को बढ़ाता है, डिज़ाइनरों को आकर्षक डिज़ाइन विकसित करने के लिए अमूल्य अंतर्दृष्टि और प्रेरणा प्रदान करता है। प्रौद्योगिकी और रचनात्मकता का यह मिश्रण, न केवल डिज़ाइन चरण को गति देता है बल्कि फ़ैशन और उपभोक्ताओं के बीच गहरे संबंध को भी बढ़ावा देता है।
विभिन्न उद्योगों के बीच सहयोग: फ़ैशन उद्योग ने, विभिन्न उद्योगों के बीच सहयोग ने रचनात्मक नवाचार की लहर जगा दी है। भारत में कपड़ा निर्माता शैली और कार्यक्षमता की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने के लिए, फ़ैशन स्टार्टअप्स, डिज़ाइन हाउस और यहां तक कि मनोरंजन कंपनियों के साथ तेज़ी से जुड़ रहे हैं। ये सहयोग भविष्य के फ़ैशन अनुभवों के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र: हथकरघा द्वारा साड़ी बुनाई (Wikipedia)
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