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उपज की मात्रा और गुणवत्ता को बढ़ाने में वैज्ञानिक खेती बहुत फायदेमंद रही है, लेकिन इस खेती के
जहां अनेकों फायदें हैं, वहीं नुकसान भी हैं तथा इन लाभों और नुकसानों को उर्वरक और कीटनाशकों के
उपयोग, ग्रीनहाउस में फसल उत्पादन, फसलों और पशुओं की उन्नत किस्मों, खेती के वातावरण में
सुधार,यंत्रीकरण आदि में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैसे खेती में उर्वरक और कीटनाशकों के
उपयोग की बात करें, तो यह मिट्टी की उर्वरता में सुधार करते हैं,तथा हानिकारक कीटों को मारते हैं,
लेकिन साथ ही खाद्य विषाक्तता और जल प्रदूषण का भी कारण बनते हैं। इसी प्रकार ग्रीनहाउस में यदि
फसल उगाई जाती है, तो फसलों को खराब मौसम से बचाया जा सकता है, लेकिन इसे स्थापित करना
बहुत महंगा है,जिसके लिए उच्च प्रौद्योगिकी स्तर की भी आवश्यकता होती है। फसलों और पशुओं की
उन्नत किस्में उत्पादकता में वृद्धि करती हैं,लेकिन साथ ही पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक भी हैं।इसी
तरह से खेती के यंत्रीकरण से जहां श्रमिकों की आवश्यकता कम हो जाती है तथा समय की काफी बचत
होती है, वहीं इसे अपनाने के लिए अधिक पूंजी,एक बड़े कृषि क्षेत्र आदि की भी आवश्यकता होती है,
जिसे गरीब किसान प्राप्त करने में अक्षम हैं।
20 साल पहले तक,कृषि में शिक्षा का मतलब मुख्य रूप से वैज्ञानिक कृषि से था और कई कृषि शिक्षा
संस्थान बड़े पैमाने पर केवल इसके फायदे पर ही ध्यान केंद्रित करते थे और इसके जोखिम और नुकसान
पर ध्यान न देकर चुप ही रहा करते थे। हालांकि, पिछले दो दशकों में बहुत कुछ बदल गया है और यह
महसूस किया जा रहा है,कि रसायनों आदि के माध्यम से भूमि का अत्यधिक दोहन नहीं किया जाना
चाहिए तथा प्राकृतिक तरीकों को अपनाना चाहिए।
भारत और हमारा जौनपुर बहुत भाग्यशाली है, कि इसके पास कृषि में एक उत्कृष्ट शैक्षिक आधार है।
भारतीय कृषि के शीर्ष निकाय, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। आइए
हम अपने जौनपुर जिले के सबसे बड़े पेशे में कृषि संस्थानों की भूमिका और उनके योगदान को समझें।
भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा यहां की ग्रामीण आबादी का 80% से अधिक हिस्सा कृषि और उससे
जुड़ी गतिविधियों से उत्पन्न आजीविका पर निर्भर है। यह लगभग 52% श्रमिकों को रोजगार प्रदान
करता है। सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 14 से 15% के बीच है। स्वतंत्रता के समय भारत को
खाद्यान्न की कमी का सामना करना पड़ा था लेकिन 1966 के बाद से भारत ने कृषि क्षेत्र में शानदार
विकास हासिल किया है। जनसंख्या वृद्धि के बावजूद भी भारत आज अधिकांश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर
है। भारत ने हरी, सफेद, नीली और पीली क्रांतियों के कारण कृषि, दूध, मछली, तिलहन, फल और
सब्जियों में महत्वपूर्ण वृद्धि हासिल की है। इन उपलब्धियों के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं जैसे कि
अनुकूल सरकारी नीतियां, किसानों की ग्रहणशीलता और उच्च कृषि शिक्षा संस्थानों की स्थापना जहां
कृषि शिक्षा या वैज्ञानिक कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
कृषि विज्ञान मुख्य रूप से पशुपालन या मत्स्य पालन, फसलों, जंगलों, खेतों, पौधों और मिट्टी के
अध्ययन से सम्बंधित है। दूसरे शब्दों में यह जीवित वस्तुओं का जीव विज्ञान है, जिसकी मदद से पादप
प्रजनन और आनुवंशिकी, प्लांट पैथोलॉजी, बागवानी, मृदा विज्ञान, कीट विज्ञान, उत्पादन तकनीक (जैसे,
सिंचाई प्रबंधन, अनुशंसित नाइट्रोजन इनपुट), मात्रा और गुणवत्ता के संदर्भ में कृषि उत्पादकता में सुधार,
फसल या पशु उत्पादन प्रणालियों पर पीड़कों (खरपतवार, कीड़े, रोगजनक, सूत्रकृमि) के प्रभाव को कम
करना, प्राथमिक उत्पादों का अंतिम उपभोक्ता उत्पादों में परिवर्तन करना (जैसे, डेयरी उत्पादों का
उत्पादन, संरक्षण और पैकेजिंग), प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों की रोकथाम और सुधार (जैसे, मिट्टी का
क्षरण, अपशिष्ट प्रबंधन, जैव उपचार), पारंपरिक कृषि प्रणाली आदि पर अनुसंधान किया जा रहा है और
इनका विकास किया जा रहा है।
यूं तो,कृषि शिक्षा बहुत पहले से चली आ रही है, किंतु इसके औपचारिक पाठ्यक्रम की शुरुआत 20 वीं
शताब्दी में हुई। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने एक व्यापक योजना प्रक्रिया शुरू की। व्यवस्थित
विकास सुनिश्चित करने के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, जो पूरे देश में कृषि में अनुसंधान
और शिक्षा के समन्वय, मार्गदर्शन और प्रबंधन के लिए शीर्ष निकाय है, ने 1966 में भारत में कृषि
विश्वविद्यालयों के लिए पहले मॉडल अधिनियम का मसौदा तैयार किया और अनुसंधान, विस्तार और
शिक्षा सहायता के लिए विशेष राज्य कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद, कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के तहत एक
स्वायत्त संगठन है, जिसकी स्थापना इंपीरियल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (Imperial Council of
Agricultural Research) के रूप में 16 जुलाई, 1929 को हुई थी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने अपने अनुसंधान और प्रौद्योगिकी विकास के माध्यम से भारत में
कृषि में हरित क्रांति और उसके बाद के विकास की शुरुआत करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। इसने
1950-51 से देश के खाद्यान्न उत्पादन को 4 गुना, बागवानी फसलों को 6 गुना, मछली उत्पादन को 9
गुना, दूध उत्पादन को 6 गुना और अंडा उत्पादन को 27 गुना बढ़ा दिया है।देश में पहला कृषि
विश्वविद्यालय 1960 में पंतनगर (अब उत्तराखंड में) में स्थापित किया गया था, जिसने अन्य राज्यों में
कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। वर्तमान में, 73 कृषि विश्वविद्यालय हैं जिनमें
पांच मानद विश्वविद्यालय, दो केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय और कृषि संकाय के साथ चार केंद्रीय
विश्वविद्यालय शामिल हैं।छात्रों की प्रवेश क्षमता, जो 1960 में 5,000 से भी कम थी, अब 40,000 हो
गई है।लगभग 350 संघटक महाविद्यालयों के साथ, इन विश्व विद्यालयों में वार्षिक आधार पर, स्नातक
स्तर पर लगभग 25,000 छात्रों को नामांकन होता है, तथा परास्नातक स्तर और पीएच.डी. कार्यक्रमों में
15,000 से अधिक छात्रों का नामाकंन होता है।इसके अलावा, कई निजी सम्बंधित कॉलेज भी हैं जो
सालाना हजारों छात्रों का नामांकन करते हैं।कृषि क्षेत्रों की क्षमता को बनाए रखने, विविधता लाने और
उन्हें पहचानने के लिए कुशल मानव संसाधनों को विकसित करना आवश्यक है। कृषि मानव संसाधन
विकास कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा की जाने वाली एक सतत प्रक्रिया है। कृषि विश्वविद्यालय कृषि के
विभिन्न विषयों जैसे कृषि, कृषि इंजीनियरिंग, वानिकी, बागवानी, पशु चिकित्सा और पशुपालन, डेयरी
विज्ञान, खाद्य प्रौद्योगिकी, मत्स्य विज्ञान, कृषि सूचना प्रौद्योगिकी, कृषि व्यवसाय प्रबंधन आदि में
शिक्षा प्रदान करते हैं। इन विश्वविद्यालयों के द्वारा डिप्लोमा, डिग्री, परास्नातक और डॉक्टरेट स्तर पर
शिक्षा प्रदान की जा रही है।
जौनपुर में किसानों, कृषि महिलाओं, ग्रामीण युवाओं के व्यावसायिक प्रशिक्षण, खेत के आधार पर
किसानों के प्रशिक्षण के माध्यम से कृषक समुदाय की सख्त जरूरतों को पूरा करने के लिए अप्रैल, 2005
में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा कृषि विज्ञान केंद्र की स्थापना की गयी थी। इसका उद्देश्य
कृषक समुदाय की प्रशिक्षण आवश्यकताओं की पहचान करने के लिए विशेष संदर्भ में संसाधन सूची तैयार
करना, कमजोर और गरीबों को प्राथमिकता देते हुए विभिन्न लक्षित समूहों के लिए परिसर के साथ-साथ
गांवों में उत्पादन-उन्मुख, आवश्यकता-आधारित लघु और लंबी अवधि के प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की योजना
बनाना और उन्हें संचालित करना,गैर-औपचारिक शैक्षिक कार्यक्रमों को क्षेत्र दिवसों, कृषि यात्राओं, किसान
मेला, रेडियो वार्ता, फार्म साइंस क्लबों आदि के माध्यम से विकसित और व्यवस्थित करना आदि
है।वर्तमान में, कृषि को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जैसे कम उत्पादकता,खेती में
लाभप्रदता में कमी, वैश्वीकरण के दबाव में बढ़ती गुणवत्ता प्रतिस्पर्धा, खेतों का बजार के साथ खराब
जुड़ाव,इनपुट कृषि का कम ज्ञान,प्रयोगशाला और भूमि प्रयोगों के बीच व्यापक अंतर,मशीनीकरण और
मूल्यवर्धन का निम्न स्तर आदि।इन चुनौतियों का उचित समाधान करने के लिए निकट भविष्य में
पर्याप्त संख्या में सक्षम मानव संसाधन की आवश्यकता होगी। तथा इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान
परिषद – कृषि विश्व विद्यालयों को अधिक वित्तीय सहायता के साथ उच्च कृषि शिक्षा पर नए सिरे से
जोर देना आवश्यक है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3yFuU5C
https://bit.ly/3hu7REQ
https://bit.ly/3xuWSAH
https://bit.ly/3qUc5Je
https://bit.ly/3yJEtAB
चित्र संदर्भ
1. जौनपुर कृषि विज्ञानं केंद्र के भवन का एक चित्रण (facebook)
2. जौनपुर कृषि विज्ञानं केंद्र के सभागार का एक चित्रण (facebook)
3. भारतीय कृषि अनुसंधान संसथान के लोगो का एक चित्रण (wikimedia)
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