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जहां कोरोना विषाणु के प्रसार को रोकने के लिए अधिकारी 24 घंटे कार्य कर रहे हैं, वहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए हाथ की स्वच्छता और हाथों को बार-बार धोने के महत्व पर जोर देने का संदेश दिया जा रहा है। किंतु भारत एक लंबे समय से जल संकट का सामना कर रहा है, जो इस परिस्थिति में कोरोना विषाणु से निपटने के प्रयासों में एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। जल आपूर्ति और स्वच्छता की पहुंच में सुधार के महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद, वाटरएड (WaterAid) के अनुसार, भारत में लगभग 16.3 करोड़ लोगों की पहुंच स्वच्छ और सुरक्षित पानी तक नहीं है और हर साल 140,000 से अधिक बच्चे डायरिया (Diarrhoea) का शिकार होते हैं तथा यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। पानी और स्वच्छता पर वैश्विक पक्ष समूह वॉटरएड के नये अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत जल संसाधनों के लिए भी कई चुनौतियों का सामना करता है। जलवायु परिवर्तन जहां पानी की पहुंच की समस्या का मुख्य कारण है, वहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा वित्त की कमी भी इस समस्या के अन्य कारण हैं। यही कारण है कि विश्व का 11% हिस्सा स्वच्छ पानी की पहुंच के बिना है। भारत में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए कई मास्टर प्लान (Master Plan) तैयार किये गये लेकिन इनमें से अधिकांश अभी तक लागू नहीं किये गये हैं। इन्हें लागू करने में अधिकांश राज्य सरकारें बाधा उत्पन्न करती हैं। देश अपनी पेयजल जरूरतों को पूरा करने के लिए भू-जल पर बहुत अधिक निर्भर है।
पानी की पहुँच प्रदान करने के लिए पाइप लाइनें (Pipe Lines) तैयार की गयी हैं, लेकिन पाइप लाइनों से जुड़े नलों में पानी का अभाव है। पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी (People's Research on India's Consumer Economy - PRICE) के सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 90% शहरी परिवार पाइप लाइनों का इस्तेमाल करते हैं, ताकि स्वच्छ पानी तक पहुंच प्राप्त कर सकें किंतु पानी की कमी के चलते नलों से पानी निकालना एक प्रमुख समस्या बन गया है। गर्मी के दिनों में जलाशयों के सूखने तथा भूजल स्तर कम होने से पानी की समस्या और भी अधिक बढ़ जाती है। भारत में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य उन राज्यों में से हैं, जहां पाइप लाइनों के माध्यम से पानी केवल आधे घरों तक ही पहुंचा है। समस्या केवल सभी तक पाइप लाइनें पहुंचाने की ही नहीं बल्कि यह भी है कि इनके द्वारा उपलब्ध कराया जाने वाला पानी पीने योग्य भी हो। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (National Health Profile) द्वारा जारी किये गए आंकड़े हैजा, डायरिया संबंधी बीमारियों और टाइफाइड (Typhoid) के मामलों में वृद्धि दर्शाते हैं, जो अस्वच्छ जल पीने के कारण हुई हैं। पानी की असतत खपत और जल आपूर्ति प्रबंधन के अवैज्ञानिक तरीके इस समस्या को और भी अधिक बढ़ा रहे हैं। भूजल रिचार्जिंग पॉइंट (Recharging points) जैसे टैंक (Tank), तालाब, नहरों और झीलों और पारंपरिक जल स्रोतों पर यदि ध्यान दिया जाता है, तो इस स्थिति में सुधार किया जा सकता है। समाज के सभी हितधारकों की रचनात्मक भागीदारी इस समस्या को हल कर सकती है। जल आपूर्ति का उचित प्रबंधन, वर्षा जल संचयन तथा संसाधनों का उपयुक्त दोहन इस समस्या से उभरने में मदद कर सकता है।
भारत में पानी की समस्या का सबसे अधिक सामना महिलाओं द्वारा किया जाता है, क्योंकि यहां जल संग्रह का काम महिलाओं को ही सौंपा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को पानी के लिए कई मील दूरी तय करनी पड़ती है। इन महिलाओं को प्लास्टिक (Plastic) या मिट्टी के बर्तन में पानी ले जाते स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह प्रक्रिया दिन में कई बार होती है और इस प्रकार कुएं, तालाब टैंक इत्यादि के सूखने का सीधा-सीधा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। असुरक्षित पेयजल के उपयोग से जल जनित रोगों का प्रसार भी होता है और महिलाएं अक्सर पानी की कमी और जल प्रदूषण दोनों की पहली शिकार होती हैं। शहरी क्षेत्रों में भी पानी के लिए महिलाओं की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। कई क्षेत्रों में महिलाओं को शिक्षा से पूरी तरह वंचित रखा जाता है क्योंकि उन्हें स्कूल जाने के बजाय पानी इकट्ठा करना पड़ता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 23% लड़कियां पानी और स्वच्छता सुविधाओं की कमी के कारण युवावस्था में स्कूल नहीं जा पाती हैं। कोरोना विषाणु के मद्देनजर जहां बार-बार हाथों को धोने और शारीरिक स्वच्छता पर जोर दिया जा रहा है, वहीं देश में मौजूद जल संकट महामारी के विस्तार में सहायक बन रहा है।
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