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ब्रिटिश राज के भारत में रेलवे सेवा शुरू करने के पीछे, साम्राज्यवाद की भारत को आर्थिक रूप से बर्बाद करने की चाल थी- एक सौ साल पुरानी कार्टून की किताब में शब्दों से ज़्यादा चित्रों ने इसकी पोल खोली है। एक तरफ़ रेलवे को ब्रिटिश राज की बड़ी देन की तरह देखा जाता है, दूसरी ओर उस समय के बुद्धिजीवियों और स्वयं महात्मा गांधी ने पूरे देश में रेलवे संजाल बिछाने का विरोध किया था। वे मानते थे कि भारतीय आर्थिक रूप से यह बोझ नहीं उठा पाएँगे।
बड़ी चालाकी से ब्रिटिश राज ने भारत को अपने एक बड़े क़र्ज़ का क़र्ज़दार बना दिया। रेल पटरी बिछाते समय अंग्रेजों ने भारतीयों की स्थानीय ज़रूरतों और सावधानियों पर क़तई ध्यान नहीं दिया। अपनी मनमानी से सारा काम किया। उस समय के कुछ ब्रिटिश कार्टूनिस्टों (British Cartoonists) ने इस प्रसंग में जो व्यंग्य और मज़ाक़ में रचनायें की और मुद्दों पर उँगली रखी - वो ध्यान देने लायक़ हैं।
जैसे कि एक ब्रिटिश कार्टूनिस्ट डब्लू एम हेनरी डिएकिन (WM Henry Deakin) (1848-1937) ने छद्मनाम ‘जो हुकुम’ से किताब प्रकाशित की- ‘दि कूचपुरवानपुर (The Koochpurwanapore) स्वदेशी रेलवे। Koochpurwanay का मतलब था Anything goes और pore का मतलब था टाउन (Town) या शहर। स्वदेशी का मतलब सब जानते हैं। ’जो हुकुम’ शीर्षक लेखक ने एक नौकर के रोज़ के पहले सवाल से लिया है, जो वह मालिक से पूछता है- ‘कुछ चाहिए सरकार?’ यह कार्टून किताब पहले विश्वयुद्ध के समय कोलकाता से छपी थी। 50 पेज की कार्टून चित्रों पर आधारित इस किताब ने एक देशी राज्य के देशी कर्मचारियों द्वारा अपनी ट्रेन चलाने के अनाड़ी प्रयासों को दर्शाया है।
सच तो यह है कि बहुत से देशी राज्यों ने बहुत कुशलता से देशी स्टाफ़ और इंजीनियरों की सहायता से अपने यहाँ रेल चलाई थी। इन चित्रों की रचना वास्तव में मज़ाक़ में की गई है। रेलवे इंजन और पटरी घेरे पड़े हाथियों की मुठभेड़ का प्रयोग बहुत से व्यंग्यों में किया गया है।
दरअसल इन प्रयासों से उस पूरे षड्यंत्र को परोक्ष रूप से उजागर करने की कोशिश शामिल है, जिस तरह नई तकनीक और सुविधा का झाँसा देकर अंग्रेज़ भारतीयों को लुभाना चाहते थे। शिक्षा नीति से लेकर भारत-पाकिस्तान के बँटवारे तक उनकी एक ही नीति थी - 'फूट डालो और राज करो'। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान खुद इंग्लैंड में तमाम बुद्धिजीवियों और मज़दूर संगठनों ने भारतीयों की आज़ादी का समर्थन करना शुरू कर दिया था।
आम आदमी आज भी कभी-कभी ‘सोने की चिड़िया’ की बेहतर देखरेख के लिए ब्रिटिश बहेलिए की याद कर लेते हैं। इस तरह भारतीय जनता की आँखें खोलने के लिए इस कार्टून प्रयास को सद्भाव से जोड़कर देखना चाहिए न कि दुर्भाव से।
सन्दर्भ:
1. https://thewire.in/history/railways-raj-imperialism-tharoor
2. https://thewirehindi.com/tag/koochpurwanaypore-swadeshi-railway/
3. file:///C:/Users/RATMAT~1/AppData/Local/Temp/611-Article%20Text-948-1-10-20180220.pdf
4. Engines vs. Elephants – Train Tales of India's Modernity
5. crossasia-journals.ub.uni-heidelberg.de › izsa › download
चित्र सन्दर्भ :
1. मुख्य चित्र में द कूचपुरवानायपुर स्वदेशी रेलवे (The Koochpurwanaypore Swadeshi Railway) के दूसरे संस्करण का आवरण चित्र दिखाया गया है। (Prarang)
2. दूसरे चित्र में द कूचपुरवानायपुर स्वदेशी रेलवे से लिया गया चीफ इंजीनियर पर तंज कसता एक व्यंग्य चित्रण है। (The Koochpurwanaypore Swadeshi Railway, by Jo. Hookm)
3. तीसरे चित्र में आधिकारिक लापरवाही के कारण होते हादसों को द कूचपुरवानायपुर स्वदेशी रेलवे में व्यंगात्मक अंदाज में चित्रित किया गया है। (Prarang)
4. चौथे चित्र में द कूचपुरवानायपुर स्वदेशी रेलवे से लिया गया एक अन्य व्यंग्य चित्र है। (Prarang)
5. पांचवें चित्र में हाथियों के पटरी पर आराम करने और इस कारण होने वाली दुर्घटनाओं पर तंज कसता एक व्यंग्य चित्र है। (The Koochpurwanaypore Swadeshi Railway, by Jo. Hookm)
6. अंतिम चित्र में आधिकारिक लापरवाही पर तंज कसता एक अन्य व्यंग्य चित्र दिखाया गया है। (The Koochpurwanaypore Swadeshi Railway, by Jo. Hookm)
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