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भारत के पास मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, विशेषकर यदि बात की जाए युवाओं की तो इस दृष्टि से भारत काफी समृद्ध राष्ट्र है। अब देश को आवश्यकता है इनका सही मात्रा में सही जगह पर उपयोग करने की। वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारत इनका सही उपयोग करने में सफल नहीं हो पाया है। भारतीय समाज दो क्षेत्रों में विभाजित है, एक शहरी क्षेत्र और दूसरा ग्रामीण क्षेत्र। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्र में जनसंख्या अनुपात अधिक है। जनसंख्या चाहे कहीं की भी हो किंतु उनकी मूलभूत आवश्यकता अर्थात रोजगार की प्राप्ति, समान है।
रोजगार देने के लिए रोजगार सृजन की आवश्यकता है। जिसके लिए देश में शहरी और ग्रामीण स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। किंतु यह ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरों में ज्यादा अच्छे से सफल हो रहे हैं। जिसका प्रमुख कारण ग्रामीण स्तर पर आधारभूत संरचना और ढांचागत व्यवस्था का अभाव है। शहरीकरण और विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में बहुत तेज़ गति से शहरीकरण कर रहे हैं।
वर्तमान समय में रोजगार सृजन का सबसे बड़ा माध्यम उद्योग हैं, जिनके लिए शहरीकरण आवश्यक है, क्योंकि शहरीकरण फर्मों (Firms) और उद्योगों की उत्पादकता को बढ़ाता है। फर्मों और उद्योगों की मूलभूत आवश्यकताएं शहरीकरण के माध्यम से ही पूरी की जा सकती हैं। आज लोग भारत ही नहीं वरन् अन्य विकासशील राष्ट्रों में बेहतर भविष्य और अच्छे रोजगार की तलाश में शहरों की ओर रुख कर रहे हैं। जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शहरीकरण के नीति निर्माताओं को अनेक चुनौतियों (बुनियादी ढांचे के निवेश, समन्वय आदि) का सामना करना पड़ रहा है। रोजगार सृजन और उसका कार्यान्वयन शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
देश में स्थानीय स्तर पर उद्योगों और इसके क्रियान्वयन की स्थिति को विशेषज्ञता और पर्सिटी (Persity) सूचकांक द्वारा मापा जाता है। विशेषज्ञता सूचकांक उस उद्योग की पहचान करता है, जो पूरे राष्ट्र के मुकाबले किसी जिले विशेष में अधिक केंद्रित है। यह किसी उद्योग विशेष पर ध्यान केंद्रित करता है। पर्सिटी सूचकांक जिले की संपूर्ण औद्योगिक संरचना को मापता है। जिसमें वह जिले के औद्योगिक क्षेत्रों में रोज़गार वितरण और राष्ट्रीय स्तर पर इसके योगदान को मापता है। वर्ष 2000 में, भारत के लगभग 20% जिलों में दोनों सूचकांक औसत से अधिक थे, जबकि 20% जिलों में दोनों सूचकांक औसत से कम थे। उदाहरण के लिए जौनपुर जिला जो रेडियो (Radio) उपकरणों में उच्च विशेषज्ञता दर्शाता है, में पर्सिटी स्तर भी उच्च है।
जौनपुर जिले के शहरीकरण के साथ-साथ उसका ग्रामीण विकास करना भी अनिवार्य है। जिसके लिए रोजगारपरक कार्यक्रम महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगें। यहां रोजगार कार्यक्रम चलाए भी जाते हैं किंतु जब इन्हें धरातलीय स्तर पर क्रियान्वित करने की बात आती है, तो यह विफल रह जाते हैं। इसके लिए कुछ ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है:
1) प्रशासनिक क्षेत्र में: ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार कार्यक्रम को क्रियान्वित करने वाले लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रशिक्षित किया जाए। अधिकारियों के भीतर ग्रामीण ज़रूरतमंद परिवारों के प्रति सहानुभूति और उनके उन्नयन का भाव जागृत करना अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही ग्रामीण लोगों की भागीदारी भी बढ़ाई जाए।
2) कार्यान्वयन प्रक्रिया में सुधार: ग्राम पंचायत को सुदृढ़ किया जाए तथा उसके प्रत्येक सदस्य को ग्राम्य विकास और रोज़गार विकास संबंधी सभी जानकारी व क्रियान्वयन संबंधी जानकारी से अवगत कराया जाए। जिससे वे कार्यक्रम के सफल क्रियान्वयन हेतु सकारात्मक भूमिका अदा करें। किसी क्षेत्र विशेष की जानकारी लेने हेतु स्थानीय स्तर पर सरकार का गठन किया जाए।
3) संगठित सूचना प्रणाली: किसी भी कार्यक्रम की सूचना कागज़ों तक ही सीमित नहीं रखनी चाहिए, वरन् ग्रामीण क्षेत्र के प्रत्येक नागरिक (शिक्षित या अशिक्षित) को विभिन्न साधनों के माध्यम से इससे अवगत कराना चाहिए।
4) ग्रामीण विकास एवं रोजगार कार्यक्रम का उद्देश्य: वर्तमान समय में भारत के ग्रामीण किसानों की स्थिति से हर कोई अवगत है, अतः इनकी स्थिति सुधारने हेतु कृषि के अतिरिक्त अन्य संसाधनों को भी उनकी आय का स्रोत बनाना चाहिए।
5) जन सहयोग: जनता के लिए बनाए जा रहे किसी भी कार्यक्रम के संचालन में जन भागीदारी का होना अत्यंत आवश्यक है, जिसके लिए ग्रामीण संगठनों की भूमिका का विस्तार किया जाए। शिक्षा का प्रसार किया जाए तथा अन्य माध्यमों से जन सहयोग प्राप्त किया जाए।
6) अनुश्रवण एवं मूल्यांकन: किसी भी कार्यक्रम को क्रियांवित करने के लिए प्रभावपूर्ण अनुश्रवण और मूल्यांकन आवश्यक है। जिसे सरकारी मशीनरी (Machinery) द्वारा करवाया जाता है, जिसमें स्पष्टता का अभाव देखने को मिल जाता है। अतः इस प्रक्रिया में शैक्षिक संस्थाओं, ऐच्छिक संगठन, राजकीय एवं अन्य ग्रामीण संगठनों आदि की भूमिका बढ़ाई जानी चाहिए।
7) ग्रामीण निर्धनों का संगठन एंव जागृति: सरकारी अधिकारियों का ध्यान ग्रामीण निर्धनों की ओर आकर्षित करने के लिए ग्रामीण निर्धनों को संगठित कर उन्हें रोज़गार कार्यक्रमों के प्रति जागृत किया जाए।
8) कोषों का निर्धारण एवं विभाजन की लोचपूर्ण नीति: किसी भी क्षेत्र विशेष की आवश्यकताएं समान नहीं होती हैं, इनमें पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। अतः इनकी आवश्यकता के अनुरूप कोषों का निर्माण किया जाना चाहिए। प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र में वित्तीय विभाजन भी क्षेत्र के आधार पर भिन्न-भिन्न होना चाहिए।
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