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जौनपुर का इतिहास, सत्ता संघर्ष, प्रशासनिक बदलाव और भव्य वास्तुकला का साक्षी रहा है। 1526 में जब बाबर (Babur) ने इब्राहिम लोदी (Ibrahim Lodi) को हराया, तभी से इस क्षेत्र में मुगलों का प्रभाव बढ़ने लगा। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में जौनपुर पर मुगल शासन स्थापित हुआ, जिससे शहर के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में बदलाव आया। अकबर (Akbar) के शासनकाल में, 1568-69 के दौरान, मुनीम खान (Munim Khan) की देखरेख में यहाँ एक महत्वपूर्ण पुल का निर्माण हुआ, जिसे आज अकबरी पुल या शाही पुल के नाम से जाना जाता है। यह पुल, न केवल मुगल स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि जौनपुर के इतिहास में भी इसका विशेष स्थान है। इसी दौर में, 16वीं शताब्दी के अंत में, शाही क़िले का बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण किया गया, जिससे यह प्रशासनिक और सैन्य दृष्टि से और अधिक महत्वपूर्ण हो गया। लेकिन यहाँ एक सवाल उठता है कि "जौनपुर पर मुगलों का पूर्ण नियंत्रण कैसे स्थापित हुआ?" इसे समझने के लिए हमें बादशाह अकबर की उन सफ़ल रणनीतियों पर ग़ौर करना होगा, जिनमें उन्होंने अफ़गानों और उज़्बेकों को हराया था। इसके अलावा, हम अकबरी पुल के ऐतिहासिक महत्व और उस समय की स्थायी बंदोबस्त (Permanent settlement) प्रणाली को भी जानेंगे, जिसने जौनपुर के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को प्रभावित किया। तो चलिए, जौनपुर के मुगलकालीन सफ़र की इस दिलचस्प दास्तान में गहराई से झांकते हैं!
1484 से 1525 तक जौनपुर पर लोधी वंश का शासन था। लेकिन 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोधी को हराकर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद, बाबर ने जौनपुर को जीतने के लिए अपने बेटे हुमायूं को भेजा। हुमायूं ने वहां के शासक को पराजित कर जौनपुर पर मुगलों का अधिकार स्थापित कर दिया।
1556 में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसका 18 वर्षीय बेटा जलालुद्दीन अकबर मुगल गद्दी पर बैठे । 1567 में जौनपुर के शासक अली क़ुली खान (Ali Kuli Khan) ने अकबर के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। इस पर अकबर ने ख़ुद सेना लेकर जौनपुर पर हमला किया। युद्ध में अली क़ुली ख़ां मारा गया और अकबर ने जौनपुर पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर लिया। अकबर कुछ दिनों तक जौनपुर में रुका और फिर उसने मुनीम खान को वहां का शासक नियुक्त किया। अकबर के शासनकाल में ही जौनपुर का प्रसिद्ध शाही पुल बनाया गया, जिसे आज भी देश की ऐतिहासिक धरोहर के रूप में जाना जाता है।
जब अकबर ने 1556 में आगरा की गद्दी संभाली, तब भारत में अफ़गानों और उज़्बेकों ने उसके खिलाफ़ विद्रोह छेड़ दिया। कारा-मानिकपुर क्षेत्र में अफ़गान नेता अली क़ुली खान ज़मान और बहादुर खान ने राजनीतिक अस्थिरता बढ़ा दी। जब स्थिति बिगड़ने लगी, तो अकबर ने ख़ुद 1561 में जौनपुर पहुंचकर सेना की कमान संभाली। उसकी रणनीति और साहस के सामने अफ़गान विद्रोहियों को हार माननी पड़ी और बगावत खत्म हो गई। इस जीत के बाद अकबर ने मुनीम खान को जौनपुर का प्रशासक नियुक्त किया। फिर, 1583 में जौनपुर को इलाहाबाद सूबे में मिला दिया गया।
अकबरी पुल का निर्माण: अफ़गानों पर इस ऐतिहासिक जीत को यादगार बनाने के लिए मुनीम खान ने जौनपुर में एक शानदार पुल का निर्माण शुरू करवाया, जिसे बाद में अकबरी पुल कहा गया। इसका निर्माण 1567 में पूरा हुआ। यह पुल मुगल शैली में बना था, जिसमें मज़बूत खंभों पर टिके मेहराबदार डिज़ाइन थे, जो सड़क को सहारा देते थे। हालांकि, 1934 में आए भूकंप में पुल को भारी नुकसान पहुंचा। इसके सात मेहराबों की मरम्मत कर इसे दोबारा उपयोग में लाया गया। यह पुल, आज भी जौनपुर की पहचान है और इसे मुगल वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण नमूना माना जाता है। इसकी भव्यता और ऐतिहासिक महत्व इसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाता है।
आइए, अब आपको जौनपुर में शाही पुल के निर्माण की दिलचस्प कहानी बताते हैं:
कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर को नौकायन का बहुत शौक़ था। एक दिन, जब वे गोमती नदी में नौका विहार कर रहे थे, तो उनकी नज़र एक गरीब महिला पर पड़ी। वह रो रही थी क्योंकि उसे नदी पार करनी थी, लेकिन उसके पास नाव नहीं थी। यह देखकर अकबर ने न केवल उसे नाव से नदी पार करवाया, बल्कि अपने सरदारों को भी फ़टकार लगाई। अकबर ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि मस्जिदों और महलों के निर्माण पर तो खूब पैसा ख़र्च किया जा रहा है, लेकिन आम लोगों की सुविधा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की जा रही। इसके बाद, उन्होंने जौनपुर के मुगल गवर्नर मुनीम खान को आदेश दिया कि गोमती नदी पर एक पुल बनाया जाए, जिससे लोग आसानी से नदी पार कर सकें। यह शाही पुल 1564 में बनकर तैयार हुआ, और इसका उपयोग आज भी किया जाता है। यह पुल उस दौर में जनता की भलाई के लिए किए गए आखिरी शाही प्रयासों में से एक था।
जौनपुर कैसे ब्रिटिश शासन के अधीन आया?
1779 में ब्रिटिश सरकार ने ‘स्थायी बंदोबस्त’ लागू किया, जिससे जौनपुर को ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया। इसके बाद यह ज़मींदारी प्रणाली का हिस्सा बन गया, जिसके तहत भू-राजस्व संग्रह, ज़मींदारों के माध्यम से किया जाने लगा।
इस व्यवस्था में ज़मींदारों को अपनी ज़मीन बेचने, गिरवी रखने या स्थानांतरित करने का अधिकार मिल गया। उनके उत्तराधिकारी भी ज़मीन के साथ उसके अधिकार और दायित्व विरासत में प्राप्त कर सकते थे। हालाँकि, 1794 में 'सनसेट क्लॉज़' (Sunset Clause) नामक एक नियम लागू किया गया। इसके तहत, अगर ज़मींदार तय तिथि तक (सूर्यास्त से पहले) कर का भुगतान नहीं करते थे, तो सरकार उनकी ज़मीन ज़ब्त कर लेती थी। इसके बाद ज़मीन की नीलामी कर दी जाती थी, और सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को उसका स्वामित्व मिल जाता था। 1793, 1799 और 1812 में लागू किए गए नए नियमों ने ज़मींदारों को और अधिक ताकतवर बना दिया। अब वे बिना किसी अदालत की मंज़ूरी के किराया न चुकाने वाले किसानों की ज़मीन ज़ब्त कर सकते थे। इस व्यवस्था से ज़मींदारों का प्रभाव बढ़ता गया, जबकि किसान और गरीब वर्ग, पहले से ज़्यादा शोषित होने लगा।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/25mtc5yl
https://tinyurl.com/25rp9j55
https://tinyurl.com/2crkenn8
https://tinyurl.com/uk9x43k
https://tinyurl.com/239sxhu8
मुख्य चित्र: जौनपुर में स्थित शाही पुल (प्रारंग चित्र संग्रह)
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