आज जौनपुर समझेगा, भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में वुड्स डिस्पैच की भूमिका को

उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
18-03-2025 09:09 AM
आज जौनपुर समझेगा, भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में वुड्स डिस्पैच की भूमिका को

क्या आप जानते हैं कि 1854 में भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड  डलहौज़ी (Lord Dalhousie) को लिखे एक आधिकारिक पत्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड (Sir Charles Wood) ने पूरे भारत में अंग्रेज़ी के इस्तेमाल के तरीके में बुनियादी बदलाव की सिफ़ारिश की। सर चार्ल्स ने प्राथमिक शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं, माध्यमिक शिक्षा में एंग्लो-वर्नाक्युलर (Anglo-Vernacular) और उच्च शिक्षा में प्राथमिक भाषा के रूप में अंग्रेज़ी का समर्थन किया। इसे अनौपचारिक रूप से 'वुड्स डिस्पैच' (Wood’s Despatch) और "भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का मैग्ना कार्टा" (Magna Carta of English Education in India) भी कहा जाता है। इसने औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी। तो आइए, आज वुड्स डिस्पैच के उद्देश्यों, सिफ़ारिशों और प्रमुख विशेषताओं के बारे में विस्तार से जानते हैं और समझते हैं कि वुड्स डिस्पैच ने भारतीय शिक्षा को कैसे बदल दिया। इसके साथ ही, हम इसकी कुछ कमियों पर भी प्रकाश डालेंगे। अंत में हम बनारस संस्कृत कॉलेज के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की शुरुआत और विकास के बारे में जानेंगे।

वुड्स डिस्पैच के उद्देश्य: 

  • संस्कृतियों को जोड़ना और विकास को बढ़ावा देना।
  • भारतीयों को पश्चिमी संस्कृति के बारे में ज्ञान और तथ्य प्रदान करना।
  • सरकारी कर्मचारियों का एक दल तैयार करने के लिए मूल भारतीयों को शिक्षा प्रदान करना।
  • अगली पीढ़ी के बौद्धिक विकास के साथ-साथ नैतिक विकास को भी बढ़ावा देना।
  • उत्पादों की व्यापक श्रृंखला के उत्पादन के लिए भारतीयों के व्यावहारिक और व्यावसायिक कौशल में सुधार करना, साथ ही ऐसे उत्पादों की खरीद के लिए एक स्वस्थ बाज़ार तैयार करना।

वुड्स डिस्पैच की सिफ़ारिशें: 

  •  भारत के पांच प्रांतों - बॉम्बे, मद्रास, पंजाब और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में से प्रत्येक में - वुड्स डिस्पैच ने शुरू में सार्वजनिक निर्देश विभाग के निर्माण का सुझाव दिया।
  •  इसका एक महत्वपूर्ण सुझाव, जन शिक्षा का विस्तार करना था।
  • इसमें प्राथमिक, मध्य और उच्च विद्यालयों की संख्या बढ़ाने पर बहुत ध्यान दिया गया क्योंकि यह पाया गया कि आम लोगों के पास शैक्षिक अवसरों की कमी थी।
  •  चार्ल्स वुड ने तीन प्रेसीडेंसी शहरों: कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की सिफ़ारिश की। ये विश्वविद्यालय, लंदन विश्वविद्यालय पर आधारित होने चाहिए थे।
  • कानूनी और सिविल इंजीनियरिंग विभागों के अलावा, इन विश्वविद्यालयों में अरबी, संस्कृत और फ़ारसी के विभाग भी होने चाहिए थे।
  •  भारतीय शिक्षा के लिए अनुदान सहायता प्रणाली के निर्माण को बढ़ावा दिया  दिया जाए।
  • भारतीय भाषाओं को पढ़ाने के महत्व पर ज़ोर देने के अलावा,  अंग्रेज़ी सिखाने के महत्व पर भी ज़ोर  दिया जाए ।
  • डिस्पैच में सरकार को महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने का सुझाव दिया गया।
  • इसके अनुसार, प्रत्येक प्रांत में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान होने चाहिए। इंजीनियरिंग, चिकित्सा और कानून के शिक्षकों को विशेष शिक्षा प्रशिक्षण प्राप्त होना चाहिए।
  • देशभर में श्रेणीबद्ध स्कूलों का एक नेटवर्क स्थापित किया जाना चाहिए।
सर चार्ल्स वुड |  चित्र स्रोत : Wikimedia

वुड्स डिस्पैच की मुख्य विशेषताएं:

  • शिक्षा का विस्तार और विविधीकरण: इसमें पूरे भारत में एक व्यापक शैक्षिक प्रणाली बनाने के लिए प्राथमिक विद्यालयों, उच्च विद्यालयों और कॉलेजों के नेटवर्क की स्थापना पर ज़ोर दिया गया।
  • शिक्षा का माध्यम: उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी और प्रारंभिक शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय भाषाओं के उपयोग की सिफ़ारिश की गई।
  • शिक्षक प्रशिक्षण: शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार लाने और स्कूलों की बढ़ती संख्या के लिए योग्य शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया।
  • महिला शिक्षा: महिला शिक्षा को प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिए, महिला विद्यालयों की स्थापना और सामाजिक प्रतिरोध को दूर करने के लिए, आर्थिक प्रोत्साहन की सिफ़ारिश की गई।
  • विश्वविद्यालयों की स्थापना: उच्च शिक्षा, मानकीकृत परीक्षाएँ आयोजित करने और डिग्री प्रदान करने के लिए कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास जैसे प्रमुख शहरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया गया।
  • राज्य की भूमिका: शिक्षा के वित्तपोषण और प्रबंधन में राज्य की  ज़िम्मेदारी पर ज़ोर देते हुए यह प्रस्ताव दिया गया कि सरकार को शैक्षणिक संस्थानों के विकास और रखरखाव में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
  • निज़ी क्षेत्र और मिशनरी भागीदारी: शैक्षिक क्षेत्र में  निजी क्षेत्र और मिशनरी भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया, यह सुझाव दिया गया कि कुछ मानकों को पूरा करने वाले निज़ी स्कूलों को सरकारी सहायता प्रदान की जा सकती है।
  • व्यावसायिक और व्यावहारिक शिक्षा: भारतीय छात्रों के लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम में व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण को शामिल करने की सिफ़ारिश की गई।
  • धर्मनिरपेक्ष शिक्षा नीति: शिक्षा के प्रति एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर ज़ोर देते हुए सुझाव दिया गया कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक तटस्थता बनाए रखने के लिए धार्मिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा नहीं होनी चाहिए।
  • धन और बुनियादी ढांचा: शैक्षिक बुनियादी ढांचे के निर्माण एवं शैक्षिक सामग्री और योग्य कर्मचारियों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक धन और संसाधनों के आवंटन की सिफ़ारिश की गई।
 चित्र स्रोत : Wikimedia

वुड्स डिस्पैच का प्रभाव:

  • वुड्स डिस्पैच ने भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव रखी और भारतीय शिक्षा प्रणाली को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इसने भारत में अंग्रेज़ी-शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग के उदय में योगदान दिया।
  •  इसके प्रावधानों के आधार पर 1857 में बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
  • सभी प्रांतों में अलग-अलग शैक्षिक विभाग स्थापित किये गये।
  • जे.ई.डी. बेथ्यून (J.E.D. Bethune) ने प्रावधानों के तहत अनुदान प्राप्त करके भारत में महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बेथ्यून स्कूल (Bethune School) की स्थापना की।
  • इसने पूसा (बिहार) में एक कृषि संस्थान और रूड़की, संयुक्त प्रांत (अब, उत्तराखंड) में एक इंजीनियरिंग संस्थान की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त किया।
  • भारत के स्कूलों और कॉलेजों में बड़ी संख्या में यूरोपीय हेडमास्टर और प्रिंसिपल नियुक्त किए गए, जिसके कारण, ब्रिटिश भारत में शिक्षा प्रणाली का तेज़ी से पश्चिमीकरण हुआ।

वुड्स डिस्पैच की कमियां:

हालाँकि, वुड्स डिस्पैच ने सकारात्मक परिवर्तन लागू किए, लेकिन इसके कुछ पहलुओं की आलोचना भी हुई: 

  • यूरोसेंट्रिक केंद्रित: भारतीय भाषाओं, संस्कृति और ज्ञान प्रणालियों की सीमित मान्यता के साथ, पत्र में पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों पर महत्वपूर्ण ज़ोर दिया गया। इससे समाज का पारंपरिक शिक्षा से अलगाव पैदा हो गया। 
  • सीमित पहुंच: इस प्रणाली में मुख्य रूप से कुलीन और उच्च वर्गों को लक्षित किया गया, ग्रामीण क्षेत्रों और वंचित समूहों की शिक्षा की उपेक्षा की गई। इसने सामाजिक असमानताओं को कायम रखा और यह प्रणाली, व्यापक शैक्षिक अवसर प्रदान करने में विफल रही।
  • परीक्षाओं पर ध्यान: इस प्रणाली में मानकीकृत परीक्षणों और रटने पर ज़ोर दिया गया, जिससे शिक्षा का दायरा सीमित हो गया और  छात्रों की क्षमता, आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और व्यावहारिक कौशल का विकास सीमित हो गया। 
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण की उपेक्षा: यह प्रणाली, रोज़गार और समाज के आर्थिक विकास के लिए व्यावसायिक और तकनीकी कौशल के महत्व को  नज़रअंदाज़ करते हुए मुख्य रूप से अकादमिक ज्ञान पर केंद्रित थी। 
  • कठोर प्रशासन: इसमें केंद्रीकृत और नौकरशाही प्रणाली में स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति लचीलेपन और जवाबदेही का अभाव था। इसने, विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन और शिक्षा की वास्तविकताओं के बीच एक अलगाव पैदा कर दिया।
चित्र स्रोत : Wikimedia

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की शुरुआत और विकास:

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी (Sampurnanand Sanskrit Vishwavidyalaya, Varanasi (पूर्व में वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय)) दुनिया के सबसे बड़े संस्कृत विश्वविद्यालयों में से एक है। वर्तमान में विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों की एक श्रृंखला प्रदान करता है। विश्वविद्यालय को 'राष्ट्रीय मूल्यांकन और मान्यता परिषद' (National Assessment and Accreditation Council (NAAC)) और यू जी सी (University Grants Commission (UGC)) द्वारा मान्यता प्राप्त है।

1791 में, बनारस राज्य में, ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जोनाथन डंकन ने भारतीय शिक्षा के लिए ब्रिटिश समर्थन प्रदर्शित करने के लिए संस्कृत वाक्पटुता के विकास और संरक्षण के लिए एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना का प्रस्ताव रखा। इस पहल को गवर्नर जनरल चार्ल्स कॉर्नवालिस ने  मंज़ूरी दी। पंडित काशीनाथ इस संस्था के पहले शिक्षक थे और गवर्नर जनरल ने प्रति वर्ष इसके लिए 20,000 रूपये का बजट स्वीकृत किया। गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के पहले प्रिंसिपल जॉन मुइर (John Muir) थे। 1857 में, इस कॉलेज में स्नातकोत्तर शिक्षण और 1880 में एक परीक्षा प्रणाली शुरू हुई। 1894 में, यहां प्रसिद्ध सरस्वती भवन ग्रंथालय भवन का निर्माण किया गया, जहाँ आज भी  हज़ारों पांडुलिपियाँ संरक्षित हैं। 1958 में संपूर्णानंद के प्रयासों से इस कॉलेज को संस्कृत विश्वविद्यालय का  दर्जा मिला। 1974 में, इस संस्थान का नाम, औपचारिक रूप से बदलकर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय कर दिया गया।

 

संदर्भ: 

https://tinyurl.com/2y38h3ur

https://tinyurl.com/5t2tp9r8

https://tinyurl.com/yyjpm89d

https://tinyurl.com/mpzeus6a
 

मुख्य चित्र: सर चार्ल्स वुड और एक कक्षा में पढ़ते छात्र  (Wikimedia)
 

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