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नौटंकी, उत्तर भारत की एक पारंपरिक लोक नाट्य है! यह पहले बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह तेज़ी के साथ अपनी लोकप्रियता खो रहा है। एक समय ऐसा भी था, जब यह नाट्य कला संगीत, नृत्य और नाटकीय कहानियों के माध्यम से बड़ी संख्या में दर्शकों को अपनी
ओर आकर्षित करती थी। लेकिन, फ़िल्मों, टीवी शो और डिजिटल मीडिया जैसे आधुनिक मनोरंजन के साधनों के उदय के कारण, नौटंकी के दर्शकों की
संख्या तेजी से घट रही है। हालांकि, इस कला रूप को बचाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन फिर भी नौटंकी धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही है। इस परंपरा को ज़िंदा रखने वाले कलाकार और दर्शक, दोनों की संख्या, दिन-ब-दिन घट रही है। इसलिए, आज के इस लेख में हम इस अनूठी कला के पतन के कारणों पर चर्चा करेंगे। इस दौरान, हम यह भी जानेंगे कि सिनेमा और डिजिटल मीडिया ने मनोरंजन में नौटंकी की पारंपरिक भूमिका को किस तरह से
बदला है। साथ ही, दर्शकों की रुचियों में आए बदलाव और आधुनिक प्रभावों पर विचार करेंगे। इसके अलावा, हम वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण के प्रभावों का अध्ययन करेंगे और देखेंगे कि यह कला कैसे प्रासंगिक बने
रहने के लिए खुद को ढाल रही है। अंत में, नौटंकी के पुनरुद्धार और इसे वर्तमान युग में जीवंत बनाए रखने की संभावनाओं पर विचार करेंगे।
चलिए, शुरुआत नौटंकी के परिचय के साथ करते हैं !
नौटंकी रंगमंच भारत के उत्तरी क्षेत्रों, खासकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा से उपजा एक पारंपरिक लोक रंगमंच है। इसे अपने जीवंत और रंगीन प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। इसमें नाटक, संगीत, नृत्य और विस्तृत वेशभूषा का ऐसा समावेश होता है, जो कहानियों को और भी आकर्षक बना देता है। नौटंकी की कहानियाँ, अक्सर पौराणिक कथाओं, लोककथाओं और सामाजिक मुद्दों पर आधारित होती हैं। इनमें नैतिक दुविधाएँ, प्रेम कहानियाँ और महाकाव्य युद्ध जैसी विषयवस्तुएँ भी दिखाई जाती हैं।
इस कला रूप में भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अतिरंजित भाव, नाटकीय संवाद और बार-बार गीतों का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक रूप से, नौटंकी खुले स्थानों में प्रदर्शित की जाती थी, जो ग्रामीण दर्शकों को खूब आकर्षित करती थी। हालांकि, आधुनिक मनोरंजन साधनों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण समय के साथ नौटंकी की लोकप्रियता में गिरावट आ रही है। फिर भी, अपनी समृद्ध परंपरा को बनाए रखने के लिए यह खुद को समकालीन समय के साथ अनुकूलित कर रही है। आज भी, नौटंकी भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है और देश की विविध प्रदर्शन कलाओं का
सजीव उदाहरण है।
भारतीय सिनेमा ने भी नौटंकी से बहुत कुछ सीखा है। अपने शुरुआती वर्षों में, बॉलीवुड फ़िल्मों ने भी नौटंकी और अन्य लोकप्रिय थिएटर शैलियों से कथानक, गीत, नृत्य और चरित्र
चित्रण की शैली अपनाई।मेलोड्रामा, संगीत, अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष, शाही दरबार, डाकू, जोकर, साइड-हीरो और साइड-हीरोइन जैसे कई तत्व मंच से ही स्क्रीन पर लाए गए।
1960 के दशक तक सिनेमा, जनता के मनोरंजन का मुख्य माध्यम बन चुका था। इस समय नौटंकी ने भी सिनेमा से प्रेरणा लेना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, नौटंकी "मुगल-ए-आज़म" और "जहांगीर का इंसाफ़" 1960 की प्रसिद्ध फिल्म "मुगल-ए-आज़म" पर आधारित थीं। इसी तरह, "पुकार," "शोले," और "नागिन" जैसी नौटंकियां भी समान नाम की फ़िल्मों से प्रेरित थीं।
नौटंकी ने लोकप्रिय फ़िल्मों से वेशभूषा, गीत और कथानक को अपनाया, लेकिन नई तकनीक और नवाचार लाने के लिए कंपनी
मालिकों के पास पूंजी की कमी थी। धीरे-धीरे कंपनियों की स्थिति खराब होती गई। वे सुस्त पड़ने लगीं, दिवालिया हो गईं या बंद हो गईं। कुछ कंपनियां, अस्थायी रूप से प्रदर्शन करती रहीं, लेकिन उनके पास स्थायी कर्मचारी नहीं थे और काम के अवसर भी कम हो
गए। इसके कारण, अच्छी नौटंकी करने वाले हज़ारों कलाकार अपनी आजीविका चलाने में असमर्थ हो गए। सरकार ने, 1968 में श्रीकृष्ण पहलवान को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1990 में गुलाब बाई को पद्म श्री से सम्मानित किया। लेकिन, इस विधा को पर्याप्त समर्थन नहीं दिया गया, जिससे नौटंकी की हालत और भी खराब हो गई।
वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण ने, नौटंकी के सामने सबसे बड़ी चुनौतियाँ खड़ी कर दी। इनका जवाब देने के लिए, नौटंकी में बड़े बदलाव किए गए। समकालीन दर्शकों को आकर्षित करने के लिए, इसमें फ़िल्मी गाने और नृत्य को शामिल किया गया। इस बदलाव ने नौटंकी के पारंपरिक स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया। अब दो अलग-अलग कला रूपों—नौटंकी और सिनेमा—के बीच की सीमाएँ धुंधली हो चुकी हैं।
पहले नौटंकी की पारंपरिक शैली अपनी विशिष्ट समय अवधि, संगीत वाद्ययंत्रों और स्क्रिप्ट के लिए जानी जाती थी। लेकिन आधुनिक दर्शकों की पसंद को देखते हुए, इसे नए रूप में ढाला गया। अब, छोटी अवधि के प्रदर्शन, आधुनिक संगीत संगत और प्रासंगिक स्क्रिप्ट आम हो गए हैं। इस बदलाव ने उन दर्शकों को भी आकर्षित किया है जो सिनेमाई कथाओं में रुचि रखते हैं।
डिजिटल मीडिया के महत्व को पहचानते हुए, नौटंकी मंडलियों ने प्रचार और प्रदर्शन के लिए डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों का सहारा लिया है। सोशल मीडिया, ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म और डिजिटल मार्केटिंग, नौटंकी की दृश्यता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हो गए
हैं।
नौटंकी और हिंदी सिनेमा के बीच का संबंध, पारंपरिक लोक कला और आधुनिक सिनेमा के बीच गहरे प्रभाव को दिखाता है। शुरुआती हिंदी फ़िल्मों ने नौटंकी से प्रेरणा ली। इसमें नाटकीय कथानक, जीवंत संगीतमय प्रस्तुति और भव्यता को अपनाया गया। यह संबंध दोनों विधाओं के विकास और अनुकूलन का प्रमाण है। अनुकूलन के अपने प्रयासों के बावजूद, नौटंकी को दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने और बनाए रखने में कठिनाइयों का सामना
करना पड़ता है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती है, समकालीन सामाजिक मुद्दों पर आधारित नई और प्रासंगिक स्क्रिप्ट की कमी। परंपरा पर आधारित नौटंकी, तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के साथ सामंजस्य स्थापित करने में अक्सर असफल रहती है। आधुनिक दर्शकों की रुचियों और अपेक्षाओं के अनुरूप खुद को ढालना इसके लिए कठिन हो गया है।
सिनेमा और डिजिटल मीडिया के उदय ने मनोरंजन के ढेरों विकल्प उपलब्ध कराए हैं। इन विकल्पों के बीच नौटंकी को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। हिंदी सिनेमा के गानों पर आधारित वैरायटी शो, आइटम नंबर, और ऑर्केस्ट्रा जैसे आधुनिक कार्यक्रम दर्शकों को नौटंकी जैसे
पारंपरिक लोक प्रदर्शनों से दूर कर रहे हैं।
नौटंकी कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति इस विधा के वित्तीय संघर्ष को उजागर करती है। सीमित संरक्षण और न्यूनतम पारिश्रमिक के कारण, कई कलाकार अपनी आजीविका चलाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। इन हालातों ने नौटंकी प्रदर्शनों की गुणवत्ता और आवृत्ति को बुरी तरह प्रभावित किया है। कलाकारों की इन चुनौतियों ने, इस कला रूप के भविष्य को भी अनिश्चित बना दिया है।
इन चुनौतियों के बावजूद, नौटंकी के पास, खुद को फिर से तलाशने और विकास के नए रास्ते खोजने का मौका है। फ़िल्म निर्माताओं, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों और सांस्कृतिक संस्थानों के साथ सहयोग करके, यह व्यापक दर्शकों तक पहुँच सकती है। यह न केवल, बदलते समय के साथ तालमेल बिठाने में मदद करेगा, बल्कि इसकी समृद्ध विरासत और विशिष्ट विशेषताओं का
सम्मान भी बना रहेगा।
कुल मिलाकर, नौटंकी का विकास भारत में सांस्कृतिक परिवर्तन की जटिलता को दर्शाता है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि पारंपरिक अभिव्यक्ति के रूप आधुनिक दुनिया में प्रासंगिक और जीवंत बने रहने के लिए आधुनिकता
और वैश्वीकरण को समझने की आवश्यकता है। निरंतर नवाचार, अनुकूलन और जागरूकता के माध्यम से, नौटंकी न केवल, अपने दर्शकों को आकर्षित कर सकती है बल्कि
आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भी सुरक्षित रख सकती है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2bf288ze
https://tinyurl.com/2bf288ze
https://tinyurl.com/29u4dz7r
मुख्य चित्र: पंडित देवेन्द्र शर्मा द्वारा प्रदर्शित नौटंकी (Flickr)
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