'जानी...ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं है।'
19वीं सदी के चहीते अभिनेता "राज कुमार" की फ़िल्म ‘वक़्त’ का यह डायलॉग उस दौर में बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ गया था। ‘वक़्त’ फ़िल्म, साल 1965 में रिलीज़ हुई थी। क्या आप जानते हैं कि राज कुमार ने इस डायलॉग को हमारे रामपुर के प्रसिद्ध 'रामपुरी चाकू' को अपने हाथ में घुमाते हुए कहा था -'जानी...ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं है।'। इस एक डायलॉग ने राजकुमार और हमारे रामपुरी चाकू की लोकप्रियता को बुलंदियों पर पंहुचा दिया। आज भारतीय सिनेमा की शुरुआत के कई दशकों बाद भी रामपुरी चाकू की धार उतनी ही तेज़ है। लेकिन इस अंतराल में भारतीय सिनेमा बहुत बदल गया है।
भारतीय सिनेमा का एक लंबा और रोमांचक सफ़र रहा है, जो कई दशकों से दर्शकों को आकर्षित कर रहा है। इस लेख में, हम भारतीय सिनेमा के इतिहास को खंगालेंगे और इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे। साल 1895 में, ऑगस्टे और लुइस लुमियर बंधुओं (Auguste and Louis Lumière Brothers) ने सिनेमैटोग्राफ़ (Cinematograph) का आविष्कार किया। यह उपकरण एक ही बार में कैमरा (Camera) और प्रोजेक्टर (Projector) दोनों के रूप में कार्य कर सकता है। इस आविष्कार के बाद, अब कई लोग एक साथ फ़िल्म देख सकते थे। इससे पहले थॉमस एडिसन (Thomas Edison) और डब्ल्यू.के.एल. डिक्सन (W.K.L. Dickson) द्वारा बनाए गए काइनेटोस्कोप (Kinetoscope) में एक बार में केवल एक ही दर्शक को फ़िल्म दिखाई जा सकती थी।
साल 1896 में लुमियर बंधुओं ने हमारे भारत की ऐतिहासिक यात्रा की। यहाँ पर मुंबई में उन्होंने छह मूक लघु फ़िल्मों को प्रदर्शित किया। इस प्रदर्शन को भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर (Milestone) माना जाता है। मुंबई में सिनेमा स्क्रीनिंग (Cinema Screening), 17 जुलाई, 1896 में यहाँ के वॉटसन होटल (Watson Hotel) में हुई थी।

इस प्रारंभिक स्क्रीनिंग के बाद, भारत में अगले पंद्रह वर्षों तक फ़िल्मों का अकाल पड़ा रहा। इस दौर को मूक युग कहा जाता है। इस दौरान, केवल दो फ़िल्म निर्माताओं, एन.जी. चित्रे और आर.जी. टॉर्नी (R.G. Torney) ने ‘पुंडलिक’ नामक एक फ़िल्म बनाने का प्रयास किया। इस युग को भारतीय सिनेमा के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण माना जाता है, जिसमें फ़िल्म निर्माण की नींव रखी गई।
भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म, राजा हरिश्चंद्र थी, जो 3 मई, 1913 में रिलीज़ हुई। इस अभूतपूर्व फ़िल्म का निर्देशन, लेखन और अभिनय दादा साहब फाल्के ने किया था। उन्हें भारतीय सिनेमा का "पितामह" कहा जाता है। उनके योगदान को आज भी सिनेमा की दुनिया में महान और अतुलनीय माना जाता है।
1930 में ध्वनि प्रौद्योगिकी (Sound Technology) के आगमन के साथ ही मूक युग का अंत हो गया। इस विकास ने भारतीय सिनेमा में ध्वनि के युग की शुरुआत की। फ़िल्मों के अनुरूप आ रही आवाज़ ने दर्शकों के लिए फ़िल्म देखने के अनुभव को और भी समृद्ध बना दिया। ध्वनि के साथ, फ़िल्मों में भावनाओं और संवादों का नया आयाम जुड़ गया, जिससे सिनेमा की दुनिया में एक नई क्रांति आ गई।
चलिए अब पिछले कुछ दशकों में भारतीय सिनेमा के सफ़र को बिंदुवार समझते हैं:
बॉलीवुड का जन्म: भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1913 में आई दादा साहब फाल्के की फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के साथ हुई। यह फ़िल्म भारत की पहली फ़ुल -लेंथ फीचर फ़िल्म (Full-Length Feature Film) थी। यह एक मूक फ़िल्म थी और बहुत सफ़ल भी रही। इस फ़िल्म ने दुनिया को भारतीय फ़िल्म निर्माताओं से परिचित कराया। दादा साहब फाल्के ने इस फ़िल्म को बनाने में कई भूमिकाएँ निभाईं। वे इस फ़िल्म के निर्देशक, लेखक, कैमरामैन (Cameraman), संपादक (Editor), मेकअप आर्टिस्ट (Makeup Artist) और कला निर्देशक (Art Director) भी थे। 1914 में 'राजा हरिश्चंद्र' को लंदन में भी दिखाया गया था। इस शुरुआती सफ़लता के बावजूद, भारतीय फ़िल्म उद्योग, हॉलीवुड की तुलना में धीमी गति से आगे बढ़ा।
1920 के दशक में नई प्रोडक्शन कंपनियों (Production Companies) का उदय: 1920 के दशक में कई नई प्रोडक्शन कंपनियाँ उभरकर सामने आई। इस दौरान मिथकों और इतिहास पर आधारित फ़िल्में बहुत लोकप्रिय हुईं। इस दौर में भारतीय दर्शकों ने हॉलीवुड फ़िल्मों, खासकर एक्शन फ़िल्मों (Action Films) का भी लुत्फ़ उठाया। इस अवधि ने बॉलीवुड के भविष्य के विकास की नींव रखी।
बोलती फ़िल्मों की शुरुआत: 1931 में 'आलम आरा' फ़िल्म की रिलीज़ के साथ ही भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण बदलाव दर्ज हुआ। अर्देशिर ईरानी (Ardeshir Irani) द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म भारत की पहली साउंड फ़िल्म (Sound Film) थी। इस फ़िल्म के संगीत में डब्ल्यू.एम. ख़ान द्वारा गाया गया प्रसिद्ध गीत 'दे दे खुदा के नाम पर' शामिल था। इसने फ़िल्म देखने के उत्साह को और भी बढ़ा दिया। फ़िल्मों में ध्वनि के प्रयोग के साथ, कई और फ़िल्में बनाई गईं। 1931 में, 328 फ़िल्में बनाई गईं, जबकि 1927 में 108 फ़िल्में बनाई गईं थीं । इस दौरान बड़ी संख्या में मूवी थिएटर (Movie Theaters) भी खुले और अधिक से अधिक लोग फ़िल्में देखने लगे।
स्वतंत्रता के बाद का परिवर्तन: 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, भारतीय सिनेमा में कई बड़े बदलाव देखे गए। सत्यजीत रे (Satyajit Ray) और बिमल रॉय (Bimal Roy) जैसे फ़िल्म निर्माताओं ने सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने निम्न-वर्ग के लोगों के संघर्षों को उजागर किया। फ़िल्मों में उनके द्वारा प्रदर्शित महत्वपूर्ण विषयों में वेश्यावृत्ति, दहेज और बहुविवाह जैसे सामाजिक विषय शामिल थे। 1960 के दशक में ऋत्विक घटक (Ritwik Ghatak) और मृणाल सेन (Mrinal Sen) जैसे निर्देशकों ने वास्तविक दुनिया की समस्याओं को फ़िल्मी पर्दे पर दिखाना जारी रखा और अपने काम के लिए अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त की।
हालांकि इससे पहले द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के दौरान, भारत में बनने वाली फ़िल्मों की संख्या में कुछ समय के लिए कमी ज़रूर आई थी। लेकिन साल 1947 के आसपास, आधुनिक भारतीय फ़िल्म उद्योग एक बार फिर से फलने-फूलने लगा। इस युग में फ़िल्म उद्योग में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। सत्यजीत रे और बिमल रॉय जैसे उल्लेखनीय फ़िल्म निर्माताओं ने ऐसी फ़िल्में बनाईं जो समाज के निचले तबके के संघर्षों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर केंद्रित थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि इस दौर में ऐतिहासिक और पौराणिक विषय कम लोकप्रिय हो गए। इसके बजाय, सामाजिक संदेश वाली फ़िल्में, फ़िल्म उद्योग पर हावी होने लगीं। 1960 के दशक में, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन सहित निर्देशकों की एक नई पीढ़ी उभरी। उन्होंने अपना ध्यान, आम लोगों के सामने आने वाली वास्तविक समस्याओं पर केंद्रित किया। अपनी बेहतरीन फिल्मों के माध्यम से, इन निर्देशकों ने भारतीय फ़िल्म उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाने में मदद की।

1950 से 1960 के बीच के समय को भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाता है। इस अवधि में कई महान अभिनेता उभरे, जिनमें गुरु दत्त, राज कपूर और दिलीप कुमार शामिल थे। इन अभिनेताओं ने, फ़िल्म उद्योग पर अपनी अमिट छाप छोड़ी और अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता।
बॉलीवुड में रोमांस और मेलोडी का युग (1960-1970): बॉलीवुड संगीत में रोमांस और मेलोडी के युग को अपने अविस्मरणीय गीतों, गहरी भावनाओं और संगीतकारों तथा पार्श्व गायकों (Playback Singers) की उल्लेखनीय प्रतिभा के लिए जाना जाता है। इस अवधि का संगीत, बेजोड़ और कालजयी (Timeless) माना जाता है। इस युग की कई फ़िल्मों में बेहतरीन साउंडट्रैक (Soundtrack) थे, जिन्होंने फ़िल्मों की सफ़लता में बहुत बड़ा योगदान दिया। "मेरा साया", "आराधना", "बॉबी", "कटी पतंग" और "अमर प्रेम" जैसी क्लासिक फ़िल्में विशेष रूप से अपने यादगार संगीत के लिए जानी जाती हैं। इन साउंडट्रैकों ने न केवल फ़िल्मों को बेहतर बनाया, बल्कि दर्शकों के ज़हन पर अपना गहरा प्रभाव भी छोड़ा।
संगीतमय युगल गीत: इस अवधि में कई अविस्मरणीय युगल गीत भी बने, जहाँ पुरुष और महिला पार्श्व गायकों ने मिलकर आकर्षक और रोमैंटिक गीत बनाए। इन युगल गीतों ने अभिनेताओं के बीच ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री (On-Screen Chemistry) को कैद किया, जिससे वे दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए।
लोकप्रिय संस्कृति पर प्रभाव: इस युग के गीत, आज भी देश की फिज़ाओं में गूंजते रहते हैं। इनमें से कई गीतों के आज भी रीमेक बनाए जा रहे हैं। इससे इन धुनों की कालातीत गुणवत्ता और समकालीन संस्कृति में उनकी प्रासंगिकता प्रदर्शित होती है।
संगीतकारों की बहुमुखी प्रतिभा: इस युग के संगीतकारों ने विभिन्न संगीत शैलियों के साथ प्रयोग करते हुए उल्लेखनीय बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। जहाँ वे रोमांटिक गाथागीतों को गढ़ने में माहिर थे, वहीं उन्होंने विभिन्न शैलियों में अपनी महारत दिखाते हुए जीवंत और उत्साहपूर्ण गीत भी रचे।
विविध संगीत शैलियाँ: आरडी बर्मन (R.D. Burman), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (Laxmikant-Pyarelal) और कल्याणजी-आनंदजी (Kalyanji-Anandji) जैसे उल्लेखनीय संगीतकार, संगीत के प्रति अपने अभिनव दृष्टिकोण के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में रॉक (Rock), डिस्को (Disco) और फंक (Funk) जैसी शैलियों के तत्वों को शामिल किया। उनकी इस पहल से इस जीवंत समय के दौरान, बॉलीवुड संगीत की ध्वनि समृद्ध हुई।
संदर्भ
https://tinyurl.com/25uvf3ze
https://tinyurl.com/2at3bzan
https://tinyurl.com/2d5z79jy
https://tinyurl.com/254ons6q
चित्र संदर्भ
1. मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय सिनेमा संग्रहालय (National Museum of Indian Cinema) को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. भारतीय राष्ट्रीय सिनेमा संग्रहालय में दादा साहब फाल्के अवार्ड विजेताओं के चित्र को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. 3 मई, 1913 को रिलीज़ हुई भारत की पहली फ़ीचर फ़िल्म, राजा हरिश्चंद्र के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. सत्यजीत रे को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. मेरा नाम जोकर फ़िल्म के पोस्टर को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
6. लोकप्रिय फ़िल्म वीर ज़ारा के एक दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)