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धार्मिक वास्तुकला, फिर वो चाहे मंदिर हो या मस्जिद हो या फिर कोई गिरिजाघर या गुरुद्वारा, साधकों के जीवन में इनका अनन्यसाधारण महत्व होता है। यूँ तो सभी धर्म हमें यही बताते हैं कि इश्वर सर्व-भूत है मगर यह सभी जगह ऐसी होती हैं जो किसी भी साधक को भीड़ में रहकर भी इश्वर से एक होने की सीख एवं प्रेरणा देती हैं।
मेरठ भी अपने पुराने मंदिरों के लिए खासा प्रसिद्ध है। बिल्वेश्वर मंदिर, औघड़नाथ मंदिर मेरठ के प्रमुख पुराने मंदिरों में से हैं। यहाँ पर मिले अवशेषों के अधार पर और इन मंदिरों के इतिहास पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि यह भी प्राचीन मंदिर स्थापत्यशैली के अनुसार निर्माण किये गए थे तथा यहाँ की मूर्तियाँ भी प्राचीन मूर्तिशास्त्र के तहत ही बनाई गयी थी।
प्राचीन भारतीय मूर्तिशास्त्र, वास्तुकला शास्त्र, शिल्पशास्त्र आदि बहुत ही विकसित और सर्व-सम्मिलित हैं तथा हर पहलू एवं आयाम का इनमें गहराई से विचार किया गया है तथा उपयोग किया गया है। हर इस शास्त्र का अपना एक फलसफा है।
आलय मतलब मंदिर यह सनातन धर्म का एक अविभाज्य हिस्सा है जो बनाते वक़्त इन सभी शास्त्रों का उपयोग बड़ी खूबी से किया गया है। आगम, मयशास्त्र, देवीपुराण, बृहत्संहिता, शिल्पशास्त्र आदि में मंदिर कैसे बनाना चाहिए एवं उसके हर हिस्से के पीछे का दर्शनशास्त्र क्या है, प्रतीकवाद क्या है इसकी जानकारी दी गयी है। हर जगह पर एक ख़ास ग्रन्थ को प्रमाण माना जाता है जिस वजह से विविध स्थापत्य शैलियाँ उभरकर आईं, जैसे द्राविड़, नागर, भूमिज, वेसर आदि। लेकिन बहुतायता से सबका आधारभूत सिद्धांत एक ही होता है, आलय मतलब मंदिर यह परमात्मा का भौतिक प्रस्फुटन होता है। मंदिर का हर हिस्सा भगवान के शरीर का रूपक बताया गया है। क्यूंकि मंदिर मनुष्य और परमात्मा को नज़दीक लाकर उसके मोक्ष प्राप्ति का जरिया होता है, शास्त्रों में उसके बनाने की विधि के साथ वो कहाँ पर बनाना उचित होगा इसके बारे में भी जानकारी दी जाती है।
शास्त्रों के अनुसार मंदिर पानी के प्राकृतिक स्त्रोतों के नज़दीक जैसे समुद्र, आदि के पास होना चाहिए, अगर वहाँ पर प्राकृतिक स्त्रोत ना हो तो पुष्कर्णी, तालाब की निर्मिती करनी चाहिए, अगर मंदिर संगम पर स्थित हो तो वह महत्वपूर्ण तीर्थक्षेत्र कहलाता है। मंदिर हमेशा बगीचों/वाटिका के पास अथवा सुगंधी पौधों और पेड़ों के बीच होना चाहिए, ऐसे पेड़ों को स्थलवृक्ष कहा जाता है। मंदिरों का निर्माण पत्थर, ईंट, मिट्टी, लकड़ी से और चट्टानों को काटकर किया जा सकता है। मंदिरों के स्थान की भी परिभाषा होती है जहाँ पर कौन से प्रकार का और कौन से देवता का मंदिर कहाँ पर बनाना चाहिए इसकी जानकारी भी दी जाती है।
जैसे कि हमने ऊपर जाना कि मंदिर का हर हिस्सा खड़े, बैठे अथवा लेटे हुए परमात्मा के शरीर का रूपक होता है। विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र में यह कहा गया है:
उपपिठम चरणाकारम अधिष्ठानं जानुमंडलम समागम
कुम्भपंजरा संस्थानम नाभि च उदर समागम पादवर्गम कराकारम
प्रस्तारम भुमुलकम तत कण्ठं गलमित्युक्तम
शिखरं मुखमेव च उशनिशानतम शिखा चैव महानासी च नासिका
नेत्रानाम क्शुद्रनस्यौ च विश्वरुपमिति स्मर्तम
- उपपीठ (चबूतरा) यह परमेश्वर के पैरों का रूपक है जो सहारा देता है, जांघ और घुटने अधिष्ठान हैं, प्राकार भिक्ति –पादवर्गम जो गर्भगृह को समेटता है यह भगवान के हाथों और शरीर का रूपक हैं, पादवर्गम में जो पूर्ण कुम्भ होता है वो भगवान के पेट और नाभि का प्रतीक है, कंगनी मतलब प्रस्तर यह उनके कन्धों का प्रतीक है, कण्ठं तालाब परमात्मा का गला, शिखर यह उनका चेहरा और सर है, महानासी जो है वो भगवान् का नाक है और महानासी के दोनों तरफ जो क्शुद्रनासी है वो उनकी ऑंखें होती हैं।
इसी तरह अलग अलग शास्त्र मंदिर को परमात्मा के शरीर का प्रतीक बताते हुए उनका विवरण देते हैं।
मंदिर की सरंचना खास कर जमीन का खाका ज्यामितीय रहती है खास कर गर्भगृह की, इसे वास्तु-पुरुष मंडल कहते हैं। मंडल मतलब चक्र, पुरुष मतलब परमात्मा का रूपक और वास्तु मतलब निवासस्थान। वास्तुपुरुषमंडल यह एक यंत्र है जिस वजह से मंदिर की संरचना सममित होती है जो प्रधान मान्यताओं, मिथकों, मौलिक और गणितीय सिद्धांत से प्राप्त की जाती है। चार प्रमुख दिशाएं मंदिर का अक्ष अधोरेखित करती हैं जो चारों ओर से फिर एक पूर्ण-चौकोर आकार में बद्ध किया जाता है, मंडल का वृत्त फिर इस चौकोर को चारों ओर से बंदिस्त करता है। चौकोर उसकी पूर्णता की वजह से दिव्य माना जाता है जो ज्ञान और विचार का रूपक है (यह वैदिक अग्नि वेदिका का भी प्रतीक है) तथा वृत लौकिक माना जाता है जैसे मनुष्य और सूर्य, पानी आदि, यह दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। चौकोर को फिर सम्मितीय वर्गों में विभाजित किया जाता है जिसे पद कहते हैं। यह संरचना 1,4, 9,16, 25, 36, 49, 64, 81 से लेकर 1024 तक विभाजित की जा सकती है, 1 सबसे सरल और 64 सबसे पवित्र माना जाता है। इन पदों को जैसे कि हमने जाना संकिंद्रिक वृत्तों में विभाजित किया होता है और हर पद का विशेष देवता होता है, मध्य पद ब्रह्म के लिए होता है तथा उसे ब्रह्मपद कहा जाता है। सबसे बाहरी पद असुरों के लिए होते हैं, उनके अन्दर के मनुष्य के लिए और उसके अन्दर के दैवी रूप के लिए होते हैं, मनुष्य पद में प्रदक्षिणापथ रहता है, इसीलिए हम प्रदक्षिणा एक वृत्त में करते हैं, मनुष्य बीच में, अच्छाई अन्दर और बुराई बाहर की तरफ। ब्रह्मपद इनके बीचोबीच होता है जो गर्भगृह में स्थित होता है, उर्जा का स्त्रोत होता है और परमात्मा का रूपक। गर्भगृह का शतशः अर्थ होता है, आप निर्माण स्थान जो वैश्विक उर्जा का स्त्रोत है और परमात्मा का प्रतीक है, उसके नजदीक जा रहे हैं। गर्भगृह के अन्दर जाने से पहले एक छोटा सा भाग रहता है जिसे अंतराल कहते हैं, यह परिवर्तन का प्रतीक होता है, आप सांसारिक चीजों को, माया को छोड़कर, निराकार होकर परमात्मा से मिलने के लिए गर्भगृह में जा रहे हैं।
1. आलयम: द हिन्दू टेम्पल एन एपिटोम ऑफ़ हिन्दू कल्चर- जी वेंकटरमण रेड्डी
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Hindu_temple_architecture
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