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क्या आप जानते हैं कि ब्रिटिश शासन के दौरान, भारत में मज़दूर आंदोलनों को दबाने के लिए एक ऐसा मुकदमा चलाया गया था, जिसने न केवल भारतीय श्रमिक संघर्ष को प्रभावित किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हलचल मचा दी थी? यह मामला इतिहास में "मेरठ षड्यंत्र केस (Meerut Conspiracy Case) " के नाम से प्रसिद्ध है। इस मुकदमें ने भारत की आज़ादी की लड़ाई में आग में घी का काम किया! यह मुकदमा ब्रिटिश सरकार की उस साज़िश का सबसे बड़ा प्रमाण था, जिसका उद्देश्य भारत में ट्रेड यूनियन नेताओं और मज़दूर आंदोलनों को कमजोर करना था। ब्रिटिश हुकूमत ने इस केस के ज़रिए भारतीय मज़दूर आंदोलनों को कुचलने की योजना बनाई थी, लेकिन उनका यह दांव उलटा पड़ गया! इस मुकदमे ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में मज़दूरों के अधिकारों को लेकर एकजुटता और जागरूकता को बढ़ावा दिया। यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हुआ और दुनिया के कई हिस्सों से भारतीय श्रमिकों के समर्थन में आवाज़ें उठने लगीं। इसलिए आज के इस लेख में हम इस ऐतिहासिक मुक़दमे की गहराई में उतरेंगे। इसके तहत हम जानेंगे कि मुक़दमे के दौरान किन नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, उन पर कौन-कौन से आरोप लगे और उन्हें किसका समर्थन मिला। साथ ही, हम उन प्रमुख हस्तियों पर भी प्रकाश डालेंगे जिन्होंने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आगे हम देखेंगे कि इस मुक़दमे का मेरठ और देश के अन्य हिस्सों पर क्या प्रभाव पड़ा! अंत में, हम इसके ऐतिहासिक फ़ैसले पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
पिछली पंक्ति (बाएं से दाएं): के. एन. सहगल, एस. एस. जोश, एच. एल. हचिंसन, शौकत उस्मानी, बी. एफ. ब्रैडली, ए. प्रसाद, पी. स्प्रैट, जी. अधिकारी।
मध्य पंक्ति: आर. आर. मित्रा, गोपेन चक्रवर्ती, किशोरी लाल घोष, एल. आर. कदम, डी. आर. थेन्गड़ी, गौरा शंकर, एस. बनर्जी, के. एन. जोगलेकर, पी. सी. जोशी, मुजफ्फर अहमद।
सामने की पंक्ति: एम. जी. देसाई, डी. गोस्वामी, आर. एस. निम्बकर, एस. एस. मिराजकर, एस. ए. डांगे, एस. वी. घाटे, गोपाल बसाक। चित्र स्रोत : wikimedia
1929 के मेरठ षड्यंत्र केस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सफ़र में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। उस समय पूरी दुनिया आर्थिक महामंदी (The Great Depression) से जूझ रही थी, लेकिन सोवियत रूस तेज़ी से प्रगति कर रहा था। इस माहौल में, भारत में भी मज़दूर आंदोलनों की लहर उठी, जिसमें साम्यवादी और क्रांतिकारी नेता सबसे आगे थे। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान देशभर में मजदूरों की हड़तालें तेज़ हो गई थीं। लेकिन जब महात्मा गांधी ने यह आंदोलन वापस ले लिया, तो हड़तालों की लहर भी धीरे-धीरे थमने लगी।
हालांकि, 1920 के दशक के अंत तक मज़दूर फ़िर से संगठित होने लगे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी। 1929 की आर्थिक महामंदी का सबसे बड़ा प्रभाव मज़दूरों और किसानों पर ही पड़ा। इस दौरान महंगाई बढ़ गई, नौकरियां घट गईं और जीवनयापन करना बहुत मुश्किल हो गया। हालात इतने खराब हो गए कि 1930 के दशक की शुरुआत में मज़दूर आंदोलनों ने और अधिक उग्र रूप ले लिया। इस दौरान मज़दूरों में राजनीतिक जागरूकता भी बढ़ी।
भारत में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (Comintern (कॉमिन्टर्न)) की विचारधारा तेज़ी से फ़ैलने लगी! इसकी वजह से ब्रिटिश सरकार सतर्क हो गई और उसने वर्कर्स एंड पीज़ेंट्स पार्टी (Workers and Peasants Party (WPP)) को निशाना बनाना शुरू कर दिया। मार्च 1929 में, ब्रिटिश सरकार ने ट्रेड यूनियन और साम्यवादी नेताओं समेत 31 लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। इन पर भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code(IPC)) की धारा 121-A के तहत ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ साज़िश रचने का आरोप लगाया गया।
हालांकि यह मामला केवल एक मुक़दमें तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उस समय के मज़दूर आंदोलनों और भारत में बढ़ती क्रांतिकारी चेतना का प्रतीक बन गया। इस केस ने भारत में साम्यवादी विचारधारा को गति दी। मज़दूरों और किसानों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी, जिससे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ संघर्ष और तेज़ हो गया।
मेरठ षड्यंत्र केस, भारतीय इतिहास में न सिर्फ़ एक कानूनी घटना थी, बल्कि एक ऐसा मोड़ था, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में मज़दूर आंदोलनों को एक नई दिशा दी। मेरठ षड्यंत्र केस की शुरुआत 29 ट्रेड यूनियन नेताओं की गिरफ़्तारी से हुई थी। इनमें तीन अंग्रेज़ भी शामिल थे। इन सभी पर आरोप था कि वे "ब्रिटिश भारत की संप्रभुता को समाप्त करने" की साज़िश कर रहे थे। इस मामले में उनके खिलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 121A के तहत मुकदमा चलाया गया।
यह केस उस समय ब्रिटिश सरकार के भीतर समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के बढ़ते प्रभाव के प्रति डर को दर्शाता है। अंग्रेज़ों को लगता था कि ट्रेड यूनियन और भारतीय साम्यवादी पार्टी (Communist Party of India (CPI)) के ज़रिए मज़दूरों में फ़ैलाए जा रहे मार्क्सवादी विचार उनकी सत्ता को कमज़ोर कर देंगे।
इस केस में बेंजामिन ब्रैडली (Benjamin Bradley) बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। वे भारत में एक बड़ी कार्यशाला के इंजीनियर थे। ख़राब कामकाजी हालात और कम मज़दूरी से निराश होकर, उन्होंने ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा बनने का फ़ैसला किया। इसके बाद वे भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन में सक्रिय हो गए। 1929 में, ब्रैडली को सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। आख़िरकार, 1932 में उन्हें सज़ा सुनाई गई।
1929 में, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय साम्यवादी पार्टी (CPI) के कई नेताओं को गिरफ़्तार किया। इनमें एस.ए. डांगे (S.A. Dange),), मुज़फ़्फ़र अहमद (Muzaffar Ahmed) और शौक़त उस्मानी (Shaukat Usmani) शामिल थे। इन नेताओं पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने की साज़िश रचने का आरोप लगा। यह कार्रवाई औपनिवेशिक क़ानूनों के तहत की गई थी।
यह मुकदमा भारत में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बन गया। इसने ब्रिटिश सरकार द्वारा असहमति को दबाने की नीतियों की ओर सबका ध्यान खींचा। यह मामला ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों का प्रतीक बन गया। इसके अलावा, भारत और विदेशों में ट्रेड यूनियनों और मज़दूर संगठनों के बीच एकजुटता को भी मज़बूत किया।
मेरठ षड्यंत्र केस ने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को एक नई दिशा दी! इस मुक़दमे के ज़रिए ब्रिटिश सरकार ने साम्यवादी विचारधारा को दबाने की कोशिश की, लेकिन इसका असर बिल्कुल उलटा हुआ। जैसे कि:
मेरठ षड्यंत्र केस का फ़ैसला: सत्र न्यायाधीश ने 27 लोगों को दोषी करार दिया। अहमद को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई, जबकि स्प्रैट, डांगे, घाटे, जोगलेकर और निंबकर को 12 साल की जेल हुई।बाकी दोषियों को 10 साल से 4 साल तक की सज़ा मिली। दोषियों ने इस फ़ैसले के खिलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील की। इस बार उनकी ओर से प्रसिद्ध वक़ील डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने बचाव किया। काटजू की दलीलों ने अदालत को प्रभावित किया और उन्होंने कई दोषियों को बरी करवाने में सफलता पाई। दोषियों की सज़ा भी घटा दी गई। अहमद, डांगे और उस्मानी को सिर्फ़ 3 साल जेल में रहना पड़ा। स्प्रैट (Spratt) की सज़ा घटाकर 2 साल कर दी गई।
घाटे (Ghate) , जोगलेकर (Joglekar), निंबकर (Nimbkar), ब्रैडली, मिराजकर (Mirajkar), जोश (Josh), गोस्वामी (Goswami) और माजिद (Majid) की सज़ा घटाकर 1 साल कर दी गई। इस तरह, मेरठ षड्यंत्र केस का अंत हुआ। हालांकि सरकार ने इसे एक कड़ी कार्रवाई के रूप में पेश किया था, लेकिन इसका असर उल्टा हुआ। इस केस ने कम्युनिस्ट आंदोलन की छवि को और मज़बूत कर दिया।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/2cmpagmk
https://tinyurl.com/25auyzxv
https://tinyurl.com/23dtefvm
https://tinyurl.com/2cn39whk
https://tinyurl.com/2bnpjpae
मुख्य चित्र: मेरठ के टाउन हॉल का एक दुर्लभ दृश्य (प्रारंग चित्र संग्रह)
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