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हमारा इतिहास कई अहम लोगों को संदर्भित करता है किंतु इनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें वर्तमान में शायद ही कोई जानता हो। 1790 के दशक में विदेश यात्रा करने वाले मिर्ज़ा अबू तालेब भी इन्हीं लोगों में से एक हैं जिनका नाम शायद आज बहुत कम ही लोग जानते होंगे।
मिर्ज़ा अबू तालेब खान उत्तरी भारत के एक कर-संग्रहकर्ता और प्रशासक थे जिन्हें फ़ारसी विद्वान के रूप में भी जाना जाता था। वे ब्रिटेन, यूरोप और एशिया में अपनी यात्रा के संस्करण के लिये प्रसिद्ध थे। अपने लंदन दौरे पर उन्हें फारसी राजकुमार के नाम से जाना जाता था किंतु जब वे भारत वापस आये तो उन्हें अबू तालिब लंदनी के नाम से भी जाना जाने लगा। उन्होंने अपना संस्मरण ‘मासीर तालिब फाई बिलाद अफरानजी’ लगभग 1799 से 1805 के बीच लिखा। बाद में इस किताब के शीर्षक को ‘द ट्रैवेल्स ऑफ तालेब इन द रीजन ऑफ यूरोप’ (The Travels of Taleb in the Regions of Europe) में परिवर्तित किया गया। पश्चिमी देशों में इस संस्करण का पुनर्मुद्रण ‘ट्रैवेल्स ऑफ मिर्ज़ा अबू तालेब खान इन एशिया अफ्रिका एंड यूरोप’ (Travels of Mirza Abu Taleb Khan in Asia, Africa and Europe) के रूप में किया गया। उनके द्वारा लिखी गयी यह किताब पश्चिमी देशों का वर्णन करने वाली प्रारम्भिक किताबों में से एक है।
उस दौर में यह संस्करण यूरोप में प्रकाशित होने वाला सबसे महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तांत था। यूं तो अबू तालेब खान के पिता हाजी मोहम्मद बेग खान, तुर्की मूल के थे किंतु नादिर शाह के अत्याचार के कारण वे उत्तर भारत के अवध, लखनऊ में भाग आये थे। हालांकि कुछ समय के बाद वे कुछ कारणों से मुर्शिदाबाद भाग गए थे। इस समय अबू तालेब और उनकी मां अवध के नवाब शुजा-उद-दौला के संरक्षण में लखनऊ में ही रहे, जहां नवाब ने खर्च चलाने और तालेब की शिक्षा के लिये उनकी मां को पैसे दिए। 1766 में तालेब और उनकी मां भी मुर्शिदाबाद आ गये। हालांकि उनके जाने के कुछ समय बाद ही उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। तालेब के चारों ओर एक व्यापक शिक्षा जिसमें इतिहास, कविता और खगोल विज्ञान शामिल थे, मौजूद थी लेकिन फिर भी उन्होंने गुटीय संघर्षों में संघर्ष किया और रोजगार हासिल करने के लिए भी यह संघर्ष चलता रहा। अबू तालेब की शादी बंगाल के नवाब मुज़फ्फर जंग के परिवार में हुई। इसके कुछ समय बाद तालेब ने इटावा के कर-संग्रहकर्ता, लॉर्ड-लेफ्टिनेंट (Lord-Lieutenant) और स्थानीय सैन्य नियंत्रक के रूप में कार्य किया। इस दौरान अबू तालेब ने लखनऊ में पूरा एक साल बिताया जिसके बाद उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) द्वारा नियुक्त किया गया जोकि अवध मामलों में पहले से ही अच्छी तरह से शामिल थी। चालीस की उम्र में फारसी भाषा का स्कूल खोलने के लिये तालेब ने एक ब्रिटिश अधिकारी को लंदन की यात्रा करने के लिए मनाया। यह वो व्यक्ति था जो खुद भी फारसी भाषा से प्रभावित था। हालांकि लंदन में तालेब खान को कोई नौकरी नहीं मिली लेकिन उन्होंने खुद को यहां रातोंरात विख्यात कर दिया था। लंदन में प्रेस (Press) द्वारा उनका स्वागत "फारसी राजकुमार" के रूप में किया जाता था।
भारतीय यात्री मिर्ज़ा अबू तालेब खान ने पेरिस में भी यात्रा की तथा इस यात्रा का एक संस्करण पेश किया। इस संस्करण को पहले फारसी में लिखा गया जिसे बाद में अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी भाषा में अनुवादित किया गया। तालेब का यह यात्रा वृत्तांत पेरिस के अनिवार्य स्मारकों के एक विशिष्ट पाठ से भी कहीं अधिक है। उन्होंने पेरिस को एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया जहाँ पर उन्होंने अपनी पहचान को प्रदर्शित किया। इस संस्करण में उन्होंने ब्रिटिश सत्ता की सूक्ष्म आलोचना भी की है। तालेब फ्रांसिसी संस्कृति और उसकी परिष्कृत कला से मंत्रमुग्ध हुए। अबू ने संस्करण में वहां के सार्वजनिक उद्यानों जैसे ट्यूलरीज़ (Tuileries) की प्रतिमाओं और फव्वारों की प्रशंसा भी की। अबू तालेब यहां की फ्रांसिसी मिठाई से भी बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने फ्रांसिसी शिष्टाचार के लालित्य को स्वीकार किया जो चिड़चिड़े और शक्तिशाली अंग्रेजों की तुलना में कहीं अधिक सुखद था। अबू तालेब पेरिस के प्रसन्न और कलात्मक खज़ाने का आनंद लेने वाले पहले भारतियों में से एक थे।
उनकी पुस्तक जहां पश्चिमी देशों में उनकी यात्रा को वर्णित करती है वहीं उनकी आकांक्षाओं और आध्यात्मिक उद्देश्यों को भी संदर्भित करती है।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2OmEhVs
2. https://bit.ly/2OhkFC7
3. https://bit.ly/2JUtHAK
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