दुनिया भर में पुरातत्वविदों द्वारा पुरातत्व का अभ्यास किया जाता है, ताकि हम कौन हैं और कहां से आए हैं, इसके बारे में, सवालों के जवाब देने में मदद मिल सके। कभी-कभी, पुरातत्वविद अतीत में फले-फूले समाजों पर प्रकाश डालने के लिए आधुनिक समाजों का भी अध्ययन करते हैं। हमारे लखनऊ में भी, आपने 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' (Archaeological Survey of India (ASI) द्वारा संरक्षित कई स्थलों और स्मारकों को देखा होगा। तो आइए, आज हम 'पुरातत्व क्या है तथा पुरातत्ववेत्ता किसे कहा जाता है' , इसके बारे में विस्तार से जानेंगे और इसके साथ ही, भारत में पुरातत्व के इतिहास और अलेक्ज़ैंडर कनिंघम के संबंध के बारे में गहराई से समझते हैं। अंत में हम, हमारे लखनऊ के कैसरबाग पैलेस के इतिहास पर भी चर्चा करेंगे, जो कि एएसआई द्वारा संरक्षित महल है।
पुरातत्व मूलतः मानवता और उसके अतीत का अध्ययन है। पुरातत्वविद, उन वस्तुओं का अध्ययन करते हैं, जो अतीत में मनुष्यों द्वारा बनाई गईं, उपयोग की गईं या बदली गईं व भौतिक अवशेषों, जैसे कि पत्थर के औज़ार, झोपड़ीनुमा घर, सोने के गहनों से ढके कंकाल या रेगिस्तान के फ़र्श से शानदार ढंग से उभरे पिरामिड जैसी वस्तुओं को देखकर अतीत का अनुमान लगाते हैं। कभी-कभी, पुरातत्वविद् अतीत में फले-फूले समाजों पर प्रकाश डालने के लिए आधुनिक समाजों का अध्ययन करते हैं, एक ऐसी प्रथा जिसे कभी-कभी "नृवंशविज्ञान" कहा जाता है।
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पुरातत्व को कभी-कभी "मानवविज्ञान" का हिस्सा भी माना जाता है, जो मनुष्यों, प्रारंभिक होमिनिड्स और चिंपैंजी जैसे प्राइमेट्स का अध्ययन हैं। पुरातत्वविद, अतीत के रहस्यों को सुलझाने में मदद करने के लिए कई प्रौद्योगिकियों और तकनीकों का उपयोग करते हैं। आज "पुरातत्ववेत्ता" शब्द तेज़ी से व्यापक होता जा रहा है। कुछ पेशेवर पुरातत्वविद विशेषज्ञता प्राप्त भी होते हैं, उनका यह विशेष कौशल, उन्हें कुछ विशेष प्रकार की कलाकृतियों या साइटों के अध्ययन में विशेषज्ञता प्राप्त करने में सक्षम बनाते हैं। कुछ पुरातत्वविद भाषा कौशल विकसित कर सकते हैं, जो उन्हें पुरातात्विक स्थलों पर पाए गए, ग्रंथों को रिकॉर्ड करने और अनुवाद करने में सक्षम बनाता है। हालाँकि, इन भाषा विशेषज्ञों को पुरातत्ववेत्ता न कहकर शिलालेखकार या जिस भाषा का वे अध्ययन करते हैं, उससे संबंधित किसी अन्य पदवी के रूप में संदर्भित किया जाता है। इसी तरह, जो लोग मानव अवशेषों के अध्ययन में विशेषज्ञ होते हैं, उन्हें "भौतिक" या "जैविक" मानवविज्ञानी कहते हैं।
नई प्रौद्योगिकियों और विषयों के विकास के साथ पुरातत्ववेत्ता निरंतर नए कौशल विकसित करते हैं। अधिकांश पुरातत्वविद अपने अध्ययन को दुनिया के एक निश्चित हिस्से, या एक विशिष्ट संस्कृति, जैसे मिस्र, चीन या मध्य अमेरिका में माया सभ्यता पर केंद्रित करते हैं। वे विशिष्ट समय-सीमाओं पर भी ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक मिस्रविज्ञानी पुराने साम्राज्य काल (2649 ईसा पूर्व से 2150 ईसा पूर्व) पर ध्यान केंद्रित कर सकता है, वह समय अवधि, जब गीज़ा में पिरामिड बनाए गए थे। पेशेवर रूप से पुरातत्वविद बनने के लिए, अक्सर मास्टर डिग्री या डॉक्टरेट जैसी उपाधि की आवश्यकता होती है। हालाँकि, पुरातत्वविद् हॉवर्ड कार्टर के मामले में, जिन्होंने 1922 में तूतनखामुन की कब्र की खोज करने वाली टीम का नेतृत्व किया था, उनके पास औपचारिक शिक्षा बहुत कम थी और उन्होंने अभ्यास से विभिन्न पुरातात्विक तकनीकों को सीखा था। कई विश्वविद्यालय पुरातत्व कार्यक्रम पेश करते हैं। कुछ विश्वविद्यालय, जिनमें पुरातत्व विभाग नहीं होता है, वे मानवविज्ञान, ललित कला, भूगोल और क्लासिक्स को समर्पित विभागों में पुरातत्व पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। पुरातत्वविद विभिन्न प्रकार के नियोक्ताओं के लिए काम कर सकते हैं। इनमें संग्रहालय, कला दीर्घाएँ, विश्वविद्यालय, अनुसंधान संस्थान, सरकारी एजेंसियां (उदाहरण के लिए राष्ट्रीय उद्यान सेवा), सांस्कृतिक संसाधन प्रबंधन फर्म (जो अक्सर विकास से पहले स्थलों का सर्वेक्षण और उत्खनन करने के लिए निजी कंपनियों और सरकारों के साथ काम करती हैं), पर्यटन कंपनियां भी शामिल हैं।
हमारे देश, भारत में अलेक्ज़ैंडर कनिंघम (Alexander Cunningham) को सबसे आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व पुरातात्विक खोज करने के लिए याद किया जाता है। उन्होंने ही, हड़प्पा में पहली खुदाई करवाई थी, सांची और सारनाथ में स्तूपों की खुदाई करवाई थी और अन्य प्रमुख बौद्ध स्थलों की खुदाई और जीर्णोद्धार किया था, इन्होंने ही तक्षशिला का सही स्थान निर्धारित किया था और यही वह व्यक्ति था, जिसने मद्रास की राजधानी (महाजनपद काल, छठी शताब्दी ईसा पूर्व) और भारत में सिकंदर की सेना की आखिरी बड़ी घेराबंदी के स्थल ( एओर्नोस) की खोज की थी। उन्होंने ऐसे शिलालेखों, सिक्कों और मूर्तियों की भी खोज की थी, जिन्हें पहले कभी भी किसी ने नहीं देखा था।
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वे ब्रिटिश भारतीय सेना की सेवा में 28 साल बिताने के बाद, मेजर जनरल के पद पर आसीन थे, जिसके साथ उन्होंने, भारत में कुछ बेहद रोमांचक पुरातात्विक खोजें भी की थीं। वह 47 साल की उम्र में सेना से सेवानिवृत्त हुए, लेकिन उन्होंने, एक पुरातत्व प्रेमी के रूप में अपने पद से हटने से इनकार कर दिया और देश की ऐतिहासिक स्मारकों का प्रबंधन करने वाली वर्तमान सर्वोच्च संस्था 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण" की स्थापना की। वे 19 साल की उम्र में बंगाल इंजीनियर्स में शामिल होने के लिए भारत आए थे। 1833 में कलकत्ता पहुंचने के तुरंत बाद, उनकी मुलाकात जेम्स प्रिंसेप से हुई, जिन्होंने इस युवा सैनिक के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला और भारतीय पुरातत्व में आजीवन रुचि जगाई। जेम्स प्रिंसेप कलकत्ता टकसाल में सरकारी जांचकर्ता थे और उन्होंने खरोष्ठी और अशोकन ब्राह्मी, दोनों लिपियों को पढ़ा था। कनिंघम ने भारत में अपने सैन्य करियर में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और उन्हें 1836 से 1840 तक भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड ऑकलैंड का एड-डी-कैंप नियुक्त किया गया था। वह 1860 में रॉयल इंजीनियर्स के कर्नल के पद तक पहुंचे और अंततः 1861 में मेजर जनरल के पद के साथ सेवानिवृत्त हो गए।
कनिंघम ने अपने सैन्य और सरकारी कर्तव्यों के एक हिस्से के रूप में अपने पुरातत्व जीवन की शुरुआत की थी। उन्हें उपमहाद्वीप की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा करने की आवश्यकता थी। उन्होंने इसे बड़े उत्साह से किया, चाहे फिर वोघोड़े से हो, गाड़ी से हो या पैदल हो । उन्होंने पुन्नियार से लेकर कश्मीर में लद्दाख-तिब्बत सीमा का सीमांकन किया, जहां उन्हें कई मंदिरों के अवशेष मिले थे। उनका पहला गंभीर शैक्षणिक कार्य, इन मंदिरों पर उनके द्वारा 1848 में लिखा गया निबंध 'ऑन द आर्यन ऑर्डर ऑफ आर्किटेक्चर' (on the Aryan Order of Architecture) था।
1837 में, कर्नल मैस्ले के साथ, कनिंघम ने सारनाथ में खुदाई की, जहां बुद्ध ने पहली बार धर्म की शिक्षा दी और बौद्ध संघ की उत्पत्ति हुई।
1842 में, उन्होंने संकिसा में खुदाई की, वह स्थान जहां माना जाता है, कि बुद्ध देवताओं को अपने धर्म का उपदेश देने के बाद, रत्नों से बनी सीढ़ी पर स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरे थे। कनिंघम ने 1842 में संकिसा की फिर से खुदाई की. जिसमें उन्होंने 1851 से पहले और उसके बाद के वर्षों में, जब उन्होंने सांची की खुदाई की, तो उन्होंने सतधारा, मुरेलखुर्द (भोजपुर), सोनारी और अंधेर (बवलिया) में आसपास के क्षेत्र में स्तूपों की व्यवस्थित खुदाई की। 1854 में, उन्होंने इन स्थलों पर अपने सभी कार्यों के निष्कर्षों को 32 मानचित्रों की प्लेटों, रेखा चित्रोंऔर शिलालेखों की प्रतियों के साथ 368 पृष्ठों के पाठ में प्रकाशित किया था। उन्होंने इसका शीर्षक 'द भिलसा टॉप्स' (The Bhilsa Topes) रखा, जिसे उनके लगभग सभी प्रकाशनों की तरह आज भी विद्वान और इतिहासकार संदर्भित करते हैं। कनिंघम की कश्यप, मोगलाना और सारिपुत्र (बुद्ध के शिष्य और अनुयायी (जिनके नाम सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित हैं) के अवशेषों की खोज ने बौद्ध अध्ययन की दुनिया को पलट कर रख दिया था। जब कनिंघम बंगाल इंजीनियर्स में एक युवा सेकेंड लेफ़्टिनेंट थे, तब उन्होंने 1848 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए, एक योजना तैयार करने में जेम्स प्रिंसेप की सहायता की थी। इसे ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखा गया था, लेकिन इसमें कोई सफ़लता नहीं मिली थी। हालाँकि, एशियाई सोसायटी और उनकी सहयोगी संस्थाओं के काम की बदौलत पुरातात्विक जागरूकता बढ़ रही थी और सरकार को संरक्षण कार्य के लिए धन स्वीकृत करने के लिए मज़बूर होना पड़ा। 1844 में जब लॉर्ड हार्डिंग गवर्नर-जनरल बने, तो उन्होंने भारतीय पुरावशेषों के अनुसंधान और ज्ञान के आधार पर व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों को मंजूरी देने के लिए एक प्रणाली शुरू की। हालाँकि, 1857 के भारतीय सैनिकों के विद्रोह के कारण पुरातात्विक गतिविधियों पर रोक लग गई।
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जब औपचारिक सर्वेक्षण स्थापित करने का उनका प्रयास विफ़ल हो गया, तो कनिंघम ने सेना से इस्तीफ़ा दे दिया और 1861 में सेवानिवृत्ति के बाद इंग्लैंड चले गए। जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने पुरातत्व सर्वेक्षणकर्ता के पद के निर्माण को मंजूरी दे दी और कनिंघम को उसी वर्ष इस पद पर नियुक्त किया। कनिंघम ह्वेन त्सांग और फ़ा हेन द्वारा उल्लेखित प्रत्येक स्थान की पहचान करने के लिए ह्वेन त्सांग की यात्रा को दोहराने का फ़ैसला किया गया। उन्होंने, अपने इस अभियान में फ़ाह्यान की यात्रा, सिकंदर की यात्रा, मेनेंडर की यात्रा और मेगस्थनीज की यात्रा को भी जोड़ा । अगले दशक में, कनिंघम ने अर्नोस, तक्षशिला, सांगला, श्रुघ्न, अहिच्छत्र, बैराट, संकिसा, श्रावस्ती, कौशाम्बी, पद्मावती, वैशाली और नालंदा के प्राचीन शहरों की पहचान की। प्राचीन ग्रंथों और यात्रा वृतांतों को ध्यान से पढ़ने से उन्हें इतिहास की कई त्रुटियों को सुधारने में मदद मिली। वह तक्षशिला में खुदाई करने वाले पहले व्यक्ति थे और सर जॉन मार्शल का काम उनके द्वारा किए गए काम की अगली कड़ी थी। कनिंघम को प्राचीन ग्रंथों में केवल संकेतित स्थलों की पहचान करने और उनका पता लगाने की आदत थी। उन्होंने गंगा घाटी में पूर्व से पश्चिम तक भूमि के विशाल भूभाग का व्यवस्थित रूप से सर्वेक्षण किया और कई महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों की पहचान की। अपने सर्वेक्षणों के एक भाग के रूप में, उन्होंने गहन अन्वेषण और कई छोटी खुदाई की, जिसके कारण उन्होंने भारी संख्या में और विभिन्न प्रकार की कलाकृतियाँ, मूर्तियाँ और सिक्के एकत्र किए, इसके साथ ही कई शिलालेख दर्ज़ किए। यह पहला सर्वेक्षण 1861 से 1865 तक 5 वर्षों तक चला, जब लॉर्ड लॉरेंस ने इसे पैसे की बर्बादी मानकर अचानक रोक दिया था।
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सौभाग्य से, लॉर्ड लॉरेंस के बाद लॉर्ड मेयो आए। उन्होंने पुरातत्व सर्वेक्षण को सरकार के एक विशिष्ट विभाग के रूप में पुनर्जीवित किया और अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को इसका महानिदेशक नियुक्त किया था। कनिंघम ने फ़रवरी 1871 में कार्यभार ग्रहण किया। अपने पास अधिक संसाधनों के साथ, कनिंघम ने इस बार 1871 में, दिल्ली और आगरा में; 1872 में राजपूताना, बुन्देलखण्ड, मथुरा, बोधगया और गौड़; 1873 में पंजाब; और 1873 से 1877 तक मध्य प्रांत, बुन्देलखण्ड तथा मालवा में फिर से सर्वेक्षण शुरू किया। उन्होंने प्राचीन व्यापार मार्ग को समझने के लिए बौद्ध खोजों और स्मारकों को एक मानचित्र पर अंकित करके, उन्हें रिकॉर्ड करने का विकल्प चुना था। उनके सर्वेक्षणों से कई खोजें हुईं, जैसे अशोक के स्तंभों के शिलालेख , अन्य अवशेष; गुप्त , उत्तर-गुप्त काल के स्थापत्य नमूने, भरहुत का महान स्तूप, संकिसा श्रावस्ती और कौशांबी नामक प्राचीन शहरों की पहचान शामिल हैं। उन्होंने तिगावा, बिलसर, भीतरगांव, कुथरा, देवगढ़ में गुप्त मंदिरों और एरण, उदयगिरि और अन्य स्थानों पर गुप्त शिलालेखों को भी प्रमुखता से सामने लाया। कनिंघम ने 1873 व 1874 में तीन बार भरहुत स्तूप का दौरा किया और वहां एकत्र पुरातात्विक अवशेषों तथा मूर्तियों को कलकत्ता पहुंचाया। उन्हें कलकत्ता में भारतीय संग्रहालय में भरहुत गैलरी शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। बौद्ध साहित्य में अपने शोध और भरहुत स्थल की मूर्तियों के अध्ययन के आधार पर, उन्होंने भरहुत का स्तूप (1876) प्रकाशित किया, जो आज भी भरहुत पर सबसे प्रामाणिक स्रोतों में से एक है।
1885 में जब सेवानिवृत्त होने पर, कनिंघम ने सिफ़ारिश की, कि सरकार महानिदेशक का पद समाप्त कर दे, इसके साथ ही उत्तर भारत को तीन स्वतंत्र मंडलों, अर्थात् पंजाब, सिंधराजपूताना को उत्तर पश्चिमी प्रांत (उत्तर प्रदेश) व मध्य प्रांत तथा बंगाल सहित बिहार, उड़ीसा, असम और छोटा नागपुर में पुनर्गठित कर दें। इस प्रकार, उन्होंने एएसआई सर्किलों की प्रणाली बनाई, जो आज भी मौजूद हैं। कनिंघम ने अपने कार्यकाल के दौरान प्रकाशित एएसआई की रिपोर्टों के 11 खंड लिखे और 23 खंड संपादित किए गए, जबकि बाकी उनकी देखरेख में लिखे गए थे। वह 30 सितंबर 1885 को सेवानिवृत्त हुए, र लंदन लौटने पर उन्होंने अपनी खुदाई और प्राचीन सिक्कों पर किताबें लिखना जारी रखा।साहसिक और कड़ी मेहनत से भरे जीवन के बाद कनिंघम ने 28 नवंबर 1893 को लंदन में अंतिम सांस ली। उन्होंने अपने पीछे, एक ऐसी विरासत छोड़ी थी, जो आज भी उपमहाद्वीप में बेजोड़ है। और, इसके लिए हम सदैव ऋणी रहेंगे।
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गोमती नदी के तट पर स्थित हमारा लखनऊ शहर अस्सी वर्षों तक नवाबी शासन के अधीन राजधानी रहा। यहां नवाबों के शासन में तीन नये महल मच्छी भवन, छत्तर मंज़िल और दौलत खाना बनाये गये थे। इनमें से अंतिम और सबसे विस्तृत कैसरबाग महल है, जिसे 1857-58 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ोंद्वारा शहर पर कब्ज़ा करने से पहले आखिरी शाही स्मारक के रूप में बनाया गया था। अवध के अंतिम नवाब, नवाब वाज़िद अली शाह ने 1847 में सिंहासन पर बैठते ही कैसरबाग का निर्माण शुरू कर दिया था। यह छतर मंज़िल महल के दक्षिण-पूर्व में स्थित था, जिसे उनके पूर्ववर्ती नवाब सादात अली खान ने बनवाया था। कैसरबाग नाम का एक दिलचस्प इतिहास है। कुछ लोग कहते हैं, कि इसका नाम यह इसलिए रखा गया था, क्योंकि जर्मन भाषा में 'कैसर' शब्द का अर्थ 'सम्राट' या 'शासक' होता है। वाज़िद अली के लिए, इस महल का नाम 'केसर' शब्द से कैसरबाग रखा गया था, क्योंकि उनकी अधिकांश प्रमुख इमारतें लाल थीं। जब अंग्रेज़ों ने यह नाम सुना तो उन्होंने, इसे इसका निकटतम ध्वन्यात्मक संस्करण कैसर समझ लिया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2j3muxtt
https://tinyurl.com/2nuyz9d5
https://tinyurl.com/yxz2r2mw
चित्र संदर्भ
1. अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी, मेक्सिको सिटी में इंसानी खोपड़ी के मॉडल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. टोरेस जलडमरूमध्य (Torres Strait) में मोआ द्वीप के मूल निवासियों के साथ अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. 1870 के दशक में, इंजीनियर-पुरातत्वविद् अलेक्ज़ैंडर कनिंघम द्वारा खोजी गई हड़प्पा सभ्यता की स्टीटाइट सील को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6.कैसर बाग़ के गेट को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)