आज हमारा लखनऊ शहर, कई व्यवसायों का केंद्र बन गया है। लेकिन, जब तक, हमें अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली, तब तक हमारा देश आर्थिक रूप से नष्ट हो चुका था। इसके बावजूद, भारत अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्र बन गया है, और आज़ादी मिलने के उपरांत देश की अर्थव्यवस्था में काफ़ी वृद्धि हुई है। हमारी अर्थव्यवस्था आज जिस मुकाम पर है, वहां तक पहुंचने के लिए यह कई सुधारों से गुज़री है। इस लेख में हम, आज़ादी के बाद रची गई, भारत की अर्थव्यवस्था की कहानी के बारे में बात करेंगे। हम चर्चा करेंगे कि, पिछले कुछ वर्षों में भारत में व्यवसाय कैसे बदल गए हैं। इसके अलावा, हम कृषि, प्रशासनिक, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में सुधारों, विकास एवं उपलब्धियों पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम उन आर्थिक कारणों पर नज़र डालेंगे, जिनके कारण 25 जून 1975 को भारत में आपातकाल (इमर्जेन्सी) घोषित की गयी थी ।
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आज लगभग 5,000 कंपनियां हमारे देश के विभिन्न स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध हैं। जबकि, आज़ादी के समय, यह आंकड़ा लगभग 100 ही था। देश में आज दर्जनों कंपनियों की आश्वस्त करने वाली उपस्थिति है, जो हमारे वर्तमान को अतीत से जोड़ती है। उदाहरण के लिए, 1937 में, कोलगेट ने भारत में अपनी पहली डेंटल क्रीम प्रमोचित की थी। हम आज भी, उसी क्रीम या टूथपेस्ट का उपयोग करते हैं।
भारत के कारोबारी परिवार भी, कुछ हद तक व्यावसायिक निरंतरता प्रदान करते हैं। हालांकि, 1947 में प्रमुख रहे, ऐसे कई परिवार 1980 के दशक के बाद, तेज़ी से बदलते कारोबारी माहौल का सामना करने में असमर्थ रहे । एक तरफ़, कुछ नए समूह, जैसे टाटा, बिड़ला और महिंद्रा, उद्योगों में शामिल हो गए। इस कारण, आज भी देश में लगभग 70% व्यावसायिक उत्पादन व्यापारिक परिवारों द्वारा किया जाता है।
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18 वीं शताब्दी तक, विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी लगभग 24% थी, जो वर्तमान में अमेरिका की हिस्सेदारी के बराबर है। 1950 के दशक तक, ब्रिटिश शासन के बाद, विश्व आय में भारत की हिस्सेदारी 3% तक कम हो गई थी। परंतु, उचित विकास के साथ, आज अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष(International Monetary Fund) के अनुसार, विश्व सकल घरेलू उत्पाद में भारत की लगभग 6.1% हिस्सेदारी है।
भारत को जब स्वतंत्रता मिली थी, तब हमारा देश एक टूटी हुई अर्थव्यवस्था, व्यापक अज्ञानता और आश्चर्यजनक गरीबी का काल देख रहा था। इस प्रकार, समकालीन वित्तीय विशेषज्ञ, भारत के वित्तीय विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दो चरणों में विभाजित करते हैं : १. स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती 45 वर्ष, और २. अप्रतिबंधित अर्थव्यवस्था के लगभग तीस वर्ष।
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वित्तीय परिवर्तनों ने प्रगति और निजीकरण की रणनीति की शुरुआत के साथ, एक नायक के रूप में काम किया। 1991 के वित्तीय परिवर्तनों के बाद, भारत के आर्थिक विकास को गति देने वाले मुख्य विचारों में विस्तारित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, डेटा नवाचार का स्वागत और विस्तारित देशज उपयोग शामिल थे।
कृषि व्यवसाय में 1950 के दशक से काफ़ी सुसंगत प्रगति रही है। बीसवीं सदी के मुख्य भाग में, व्यवसाय क्षेत्र का लगभग, 1% प्रति वर्ष की दर से विकास हुआ। अतः स्वतंत्रता के पश्चात, विकास दर लगभग 2.6% प्रति वर्ष बढ़ गया । कृषि निर्माण में विकास का केंद्रीय बिंदु, खेती वाले क्षेत्रों का विस्तार एवं फसलों की उच्च उपज वाली किस्मों की प्रस्तुति था। <
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एक तरफ़, देश के प्रशासन क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सुधार – दूरसंचार और डेटा नवाचार है। यह पैटर्न, वर्तमान में अच्छी तरह से फल-फूल रहा है। कुछ वैश्विक कंपनियां, अपने टेली प्रबंधन और सूचना प्रौद्योगिकी प्रशासन को भारत में पुनः नियुक्त करती रहती हैं। इससे आईटीईएस(ITES), बीपीओ(BPO) और केपीओ(KPO) संगठनों का विकास होता है। आर्थिक सर्वेक्षण, 2021-22 के अनुसार, देश का प्रशासन क्षेत्र, भारतीय सकल घरेलू उत्पाद के 50% से अधिक हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है।
परंतु, इस विकास के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था ने उतार–चढ़ाव भी देखें हैं।
दरअसल, 1975 में, देश में आपातकाल घोषित की गयी थी । इस आपातकाल के लिए ज़िम्मेदार आर्थिक कारण इस प्रकार हैं:
•1960 के दशक तक, भारत ने सफलतापूर्वक एक केंद्रीय नियोजित, राज्य-नियंत्रित और विनियमित अर्थव्यवस्था बनाई थी। तब भारतीय उद्योग पर लगभग सौ से अधिक सार्वजनिक उद्यमों का वर्चस्व था। क्योंकि, निजी क्षेत्र को लाइसेंस, परमिट, कोटा एवं इंस्पेक्टर राज सहित, कई जटिल नियमों द्वारा दबा दिया गया था।
•केंद्रीकृत योजना और राज्य संचालित अर्थव्यवस्था का यह नेहरूवादी मॉडल, अपनी शुरुआत के दो दशकों के भीतर ही लड़खड़ाना शुरू हो गया। फिर, 1960 के दशक के अंत तक, राज्य द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था में ठहराव के लक्षण दिखने लगे। लेकिन, भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाज़ार के लिए खोलने और निजी उद्योग के विकास को रोकने वाली नौकरशाही बाधाओं को खत्म करने का विरोध किया। विश्व बैंक समूह और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने उदारीकरण पर ज़ोर देने के लिए, भारत और अन्य देशों जैसी बंद अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करना जारी रखा। हालांकि, ऐसी अर्थव्यवस्थाओं ने अर्थव्यवस्था और देश को नुकसान पहुंचने की कीमत पर भी, इन समूहों के इस सुझाव का विरोध करना जारी रखा। अंततः कई राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएं, उदारीकरण के लिए सहमत हुईं। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि, बड़ी आर्थिक तबाही को टाला और विश्व बैंक को शांत करा जा सका |
•इससे भारत को लंबे समय तक मदद नहीं मिल पाई, और 1974 तक भारत फिर से आर्थिक संकट का सामना करने लगा। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के कारण, भारत में शरणार्थी संकट पैदा हुआ। इसके परिणामस्वरूप, भारी बजटीय घाटा हुआ।
•इसके बाद, 1972 और 1973 में, देश में लगातार दो सूखे पड़े, जिसके परिणामस्वरूप भोजन की कमी और मुद्रास्फीति हुई। इससे खाद्य दंगों और बड़े पैमाने पर आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी और कालाबाज़ारी की स्थिति पैदा हो गई। नेहरूवादी व्यवस्था, सबसे गरीब लोगों की देखभाल करने में विफल रही। परिणामी, आर्थिक मंदी ने बेरोजगारी पैदा की। इस तरह एक नियंत्रित और संरक्षित अर्थव्यवस्था ने आर्थिक तबाही का सामना किया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/mr3nsa4n
https://tinyurl.com/7w669ddr
https://tinyurl.com/yeyvcd7z
चित्र संदर्भ
1. पहले स्वतंतत्रा दिवस के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. भारतियों की भीड़ को संदर्भित करता एक चित्रण (Ideas for India)
3. एक कुली को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. हथियारों का निर्माण करते एक भारतीय व्यक्ति को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL)
5. गैस भरण व्यवस्था को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)