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आज की तारीख में हम सभी भारत और इजरायल की गहरी मित्रता से परिचित हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस मित्रता की नीवं आज से कई दशक पूर्व पड़ चुकी थी? साल 1918 में भारतीय सैनिकों ने ओटोमन शासन (Ottoman Rule) से हाइफ़ा (इज़राइल का तीसरा सबसे बड़े शहर) की मुक्ति में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। हाइफ़ा, तेल अवीव (Tel Aviv) से लगभग 90 किलोमीटर दूर स्थित है।
ईसाइयों और यहूदियों जैसे अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा हाइफ़ा पर किये गए कब्जे ने तुर्की सुल्तानों के उत्पीड़न से मुक्ति का बिगुल फूंक दिया था। ब्रिटिश शासन के तहत, दोनों समुदायों (ईसाइयों और यहूदियों) के समग्र विकास में बड़ी कामयाबी हासिल हुई। भारतीयों द्वारा हाइफ़ा की फ़तेह का एक और फायदा “बहाई धर्म के आध्यात्मिक नेता अब्दुल बहा की मुक्ति” के रूप में भी मिला। दरअसल 1892 में बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह की मृत्यु के बाद, उनके बेटे, अब्दुल बहा ने नवोदित समुदाय का नेतृत्व संभाला। ईरान में स्थापित होने के बावजूद, बहाई धर्म का प्रशासनिक और आध्यात्मिक केंद्र, इजराइल के हाइफ़ा में माउंट कार्मेल (Mount Carmel In Haifa) पर स्थित है। अब्दुल बहा ने अपना अधिकांश जीवन हाइफ़ा में एक कैदी के रूप में ही बिताया।
जैसे-जैसे प्रथम विश्व युद्ध निकट आया, वैसे-वैसे साठ साल के अब्दुल बहा को हाइफ़ा के तुर्क गवर्नर से धमकियाँ मिलने लगी। स्थिति इस हद तक बिगड़ गई कि अधिकारियों ने अब्दुल बहा को फाँसी देने और माउंट कार्मेल पर बहाई धर्मस्थलों को नष्ट करने की योजना बना दी। ये जगह बहाई आस्था के सबसे पवित्र स्थल मानी जाती है।
सौभाग्य से, जनरल एलनबी (General Allenby) के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना, जिसमें दो भारतीय घुड़सवार ब्रिगेड भी शामिल थीं, को फिलिस्तीन में तुर्की और जर्मन सेना को हराने का काम सौंपा गया था। सितंबर 1918 में, जोधपुर लांसर्स (Jodhpur Lancers) और मैसूर लांसर्स (Mysore Lancers), शेरवुड फॉरेस्टर येओमेनरी (Sherwood Forester Yeomanry) समर्थित टुकड़ियाँ, हाइफ़ा और अब्दुल बहा के बचाव के लिए आगे आई। इसके बाद हुए एक साहसी युद्ध के दौरान जोधपुर लांसर्स ने माउंट कार्मेल की ढलानों पर हमला कर दिया, जबकि मैसूर लांसर्स के एक स्क्वाड्रन ने दक्षिण से हमला किया। 23 सितंबर, 1918 के दिन 15वीं (इंपीरियल सर्विस) कैवलरी ब्रिगेड, 5वीं कैवलरी डिवीजन और डेजर्ट माउंटेन कोर के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने हाइफ़ा के पास ओटोमन रियर गार्ड बलों (Ottoman rear guard) पर हमला किया। यह हमला शेरोन की लड़ाई के अंत में हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य की पैदल सेना ने पहले ही ओटोमन मुख्यालय पर कब्जा कर लिया था, जिससे घुड़सवार सेना को उत्तर की ओर बढ़ने तथा ओटोमन पैदल सेना को घेरना आसान हो गया। 25 सितंबर तक, तुर्क सेना दमिश्क की ओर पीछे हट गई थी।
लड़ाई की शुरुआत में ही कमांडिंग ऑफिसरों में से एक, कर्नल ठाकुर दलपत सिंह मारे गए। लेकिन इस झटके के बावजूद, लांसर्स अपने डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा की कमान के तहत एकजुट हुए। भारी तोपखाने और मशीन-गन की आग का सामना करते हुए भी भारतीय घुड़सवार सेना आगे बढ़ी और उन्होंने हाइफ़ा के लिए जाने वाला मार्ग खोल दिया। मैसूर लांसर्स की एक टुकड़ी ने तुरंत अब्दुल बहा के घर को सुरक्षित कर लिया और बहाई तीर्थस्थलों को विनाश से बचा लिया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिकों का प्रदर्शन असाधारण था जो कि भारतीयों के लिए भी लाभदायक साबित हुआ था। क्यूंकि इसके बाद ही ब्रिटिश शासित भारत में भी भारतीयों को अधिकारी बनने की अनुमति मिल गई। इससे पहले शाही अधिकारी यह मानते थे, कि “भारतीयों में कमीशन पदों के लिए आवश्यक नेतृत्व गुणों का अभाव होता है।” लेकिन इस युद्ध के तुरंत बाद, भारतीयों को सैंडहर्स्ट रॉयल मिलिट्री अकादमी (Sandhurst Royal Military Academy) में प्रवेश की अनुमति दी गई। इसके साथ ही संभावित सैंडहर्स्ट कैडेटों (Sandhurst Cadets) को प्रशिक्षित करने के लिए 1922 में प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज “Prince of Wales Royal Indian Military College” (अब देहरादून में राष्ट्रीय भारतीय मिलिट्री कॉलेज) की स्थापना की गई।
इजरायल में, भारतीय सैनिकों के स्मारक हाइफ़ा, येरुशलम (Monument Haifa, Jerusalem) और रामले में मौजूद हैं। इजराइल के इन शहरों के कब्रिस्तानों में करीब 900 भारतीय सैनिकों को दफनाया गया है। हाइफ़ा की मुक्ति में भारतीय सैनिकों की बहादुरी और भूमिका के बारे में आज भी इज़रायली स्कूलों में इतिहास पाठ्यक्रम में इस बारे में पढ़ाया जाता है। हालांकि हमारा दुर्भाग्य है कि इस बारे में भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में कहीं भी चर्चा नहीं की गई है। बड़े ही दुःख की बात है कि प्रथम विश्व युद्ध के मध्य पूर्वी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की वीरता और बलिदान के किस्से धीरे-धीरे लोगों के दिमाग से ही लुप्त हो रहे हैं।
क्या आप जानते हैं कि, प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना,अपने लगभग दो मिलियन सैनिकों के साथ, इतिहास की सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना थी। लेकिन इतने बलिदानों के बावजूद, इन सैनिकों को अफ्रीकी और कैरेबियाई सैनिकों की "अदृश्य सेना" के हिस्से के रूप में संदर्भित किया जाता है। हाइफा की लड़ाई न केवल बहाई समुदाय के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए एक महत्वपूर्ण जीत मानी जा रही थी। इसने भारतीय सैनिकों के साहस और बलिदान को प्रदर्शित किया, जिन्होंने चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में बहादुरी से लड़ाई लड़ी। उनकी विरासत दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करती रहती है।
भारत और इजराइल के बीच संबंध इजरायल की आजादी के शुरुआती दिनों से ही मजबूत हैं। दोनों देशों ने रक्षा, आतंकवाद विरोधी और व्यापार सहित कई मुद्दों पर सहयोग किया है। हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच रिश्ते और गहरे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई बार इजराइल का दौरा कर चुके हैं और इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) कई बार भारत का दौरा कर चुके हैं। दोनों देशों ने कई समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए हैं, जिनमें एक रक्षा समझौता और कृषि में सहयोग पर एक समझौता शामिल है। वर्तमान में भारत में बहाई समुदाय के दो मिलियन से अधिक सदस्य रहते हैं। नई दिल्ली में स्थित “लोटस टेम्पल (Lotus Temple)” एक महत्वपूर्ण बहाई उपासना गृह है। इसे दिसंबर 1986 में समर्पित किया गया था, और यह अपनी सुंदर कमल जैसी आकृति के लिए जाना जाता है। लोटस टेम्पल सभी धर्मों के लोगों के लिए खुला है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/3kemcsdp
https://tinyurl.com/mwy7tu75
https://tinyurl.com/3rbwmwae
https://tinyurl.com/42vx4e8k
https://tinyurl.com/4ftn2d5j
चित्र संदर्भ
1. भारतीय साइकिल सैनिको को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
2. अक्टूबर 1911 में पेरिस, फ्रांस में लिए गए अब्दुल-बहा के चित्र को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
3. 1920 के दशक के दौरान माउंट कार्मेल से हाइफ़ा को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
4. प्रथम विश्व युद्ध अभियान के दौरान भारतीय सैनिकों को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
5. भारत और इजरायल के राजदूतों को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
6. लोटस टेम्पल को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)