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प्राचीन यूनानियों को अपनी मूर्तिकला के लिए विश्व भर में जाना जाता है। प्राचीन यूनानी मूर्तिकारों को उन पहले मूर्तिकारों में से एक माना जाता है, जिन्होंने अपनी मूर्तिकला को सजीव और यथार्थ रूप देने का प्रयास किया। उनके इस विशिष्ट गुण के कारण भविष्य के कलाकार भी उनकी मूर्तिकला से प्रभावित हुए। उनकी कला उन सभी लोगों या मूर्तिकारों के लिए मानक बन गई, जो अपनी मूर्तिकला को सटीक और यथार्थ रूप देना चाहते थे। यूनानी मूर्तिकला का एक रूप हमें यूनानी-बौद्ध कला या गांधार कला के रूप में भी दिखाई देता है, जो बौद्ध धर्म और प्राचीन यूनानी कला का एक मिश्रण है। हालांकि यूनानी मूर्तिकारों को भी सटीक और यथार्थवादी मूर्तियां बनाने की प्रेरणा अन्यत्र ही से प्राप्त हुई थी,जिनसे प्रेरित होकर उन्होंने सबसे यथार्थ और सटीक आंकड़ों वाली मूर्तियां बनाने का प्रयास किया। अपने सटीक और यथार्थवादी गुण के कारण अन्य मूर्तिकार भी प्राचीन यूनानी मूर्तिकला से प्रेरणा लेते रहे हैं। 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में कांस्य, मिट्टी और अन्य सामग्रियों से अनेकों मूर्तियां बनाई गईं, जिनमें मानव आकृति को विस्तारपूर्वक बारीकी के साथ प्रदर्शित किया गया था। ये मानव मूर्तियां या तो पूरी होती थीं, या इनमें केवल मनुष्य के सिर का हिस्सा चित्रित किया जाता था। अक्सर, ये मूर्तियां कांसे से बने पात्रों या बर्तनों से जुड़ी होती थीं।
समय के साथ मानव के साथ-साथ जानवरों की आकृतियां भी मूर्तिकला में दिखाई देने लगीं, जिनमें घोड़े और पौराणिक ग्रिफ़िन (griffins) शामिल थे। यूनानी मूर्तिकला में अक्सर युवा पुरुषों को नग्न अवस्था में दर्शाया जाता था, जिन्हें “कौरोई” (Kouroi) कहा जाता है, जबकि महिलाओं को वस्त्र धारण किए हुए दर्शाया जाता था, जिन्हें कोरे (Kore) कहा जाता है। प्रारंभ में इन मूर्तियों को काफी कठोर मुद्रा में चित्रित किया गया था, हालाँकि, इस कठोरता को दूर करने हेतु धीरे-धीरे मूर्तियों की भुजाओं को थोड़ा मुड़ा हुआ तथा मूर्तियों की मांसपेशियों को हल्का तनावपूर्ण दर्शाया गया, ताकि मूर्तियों को यथार्थवादी रूप दिया जा सके।
यूनानी कला का प्रभाव गांधार कला पर भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। गांधार कला को यूनानी-बौद्ध (Greco-Buddhist) कला भी कहा जाता है, जो मूर्तिकला में यूनानी संस्कृति और बौद्ध धर्म के मिश्रण को दर्शाती है। दूसरे शब्दों में यूनानी-बौद्ध कला यूनानी संस्कृति और बौद्ध धर्म के बीच मौजूद समन्वय की कलात्मक अभिव्यक्ति है। यह कला भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी किनारे पर स्थित गांधार के प्राचीन क्षेत्र में विकसित हुई थी जो कि अब उत्तरी पाकिस्तान (Pakistan) और पूर्वी अफगानिस्तान (Afghanistan) का एक प्राचीन क्षेत्र है। यह कला यूनानी और रोमन (Roman) कला की शैलियों से काफी प्रभावित थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि गांधार कई प्रमुख व्यापार मार्गों का केंद्र था और यहां के कलाकारों को भूमध्यसागरीय दुनिया की संस्कृति से अत्यधिक संपर्क स्थापित हुआ। गांधार मूर्तिकला में पौराणिक कथाओं के कथा दृश्य और आकृतियां या पात्र देखने को मिलते हैं, जैसे ट्रोजन युद्ध (Trojan War), हरक्यूलिस (Hercules) का जीवन और यूनानी पैंथियन (Pantheon) के देवी-देवता। यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि गांधार मूर्तिकला पर यूनान और रोम (Rome) की मूर्तिकला का विशिष्ट प्रभाव था। एशिया (Asia) में यूनानी मूर्तिकार पुरातात्विक रूप से अपने पत्थर की रंगपट्टिका (Stone palettes) के लिए प्रसिद्ध हैं। पत्थर के पैलेट को "टॉयलेट ट्रे" (Toilet trays) भी कहा जाता है, जो आमतौर पर बैक्ट्रिया (Bactria) और गांधार के क्षेत्रों में पाए जाते हैं। पत्थर की रंगपट्टिका आमतौर पर यूनान के पौराणिक दृश्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। माना जाता है, कि इनमें से सबसे पहली रंगपट्टिका दूसरी और पहली शताब्दी ईसा पूर्व में भारत-यूनानी काल की हैं। इंडो-पार्थियन (Indo-Parthians) काल तक इनका उत्पादन जारी रहा, लेकिन पहली शताब्दी के बाद वे व्यावहारिक रूप से गायब हो गई।
यूनानी-बौद्ध कला का एक उदाहरण बोधगया में महाबोधि मंदिर परिसर में भी देखा जा सकता है। यहां बोधि वृक्ष के निकट ही एक मंच बना हुआ है, जिसे वज्रासन (हीरा सिंहासन) के नाम से जाना जाता है। यह मंच पॉलिश किए गए बलुआ पत्थर से बनाया गया है। माना जाता है, कि इसका निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था, ताकि उस स्थान को चिह्नित किया जा सके, जहां भगवान बुद्ध ने बैठकर ध्यान किया था। एक बार बोधि वृक्ष के नीचे इस स्थान पर बलुआ पत्थर का एक छज्जा भी बनाया गया था, लेकिन अब यहां छज्जे के कुछ ही मूल स्तंभ ही मौजूद हैं। इन स्तंभों पर मानव चेहरों, जानवरों और सजावटी आकृतियों को उकेरा गया है। मुख्य मंदिर की ओर जाने वाले केंद्रीय मार्ग पर एक छोटा सा अन्य मंदिर भी है, जिसके पीछे भगवान बुद्ध की खड़ी अवस्था में एक मूर्ति है तथा काले पत्थर पर भगवान बुद्ध के पदचिह्न उकेरे गए हैं। माना जाता है, कि ये पदचिह्न तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हैं, जब सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया था तथा बौद्ध धर्म राज्य का आधिकारिक धर्म बन गया था। इस घटना के बाद सम्राट अशोक ने अपने पूरे राज्य में ऐसे हजारों पदचिह्न वाले पत्थर स्थापित किये थे।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/85jprsae
https://tinyurl.com/ytnks2e9
https://tinyurl.com/3tsxbxdt
https://tinyurl.com/mwe8x2dw
चित्र संदर्भ
1. यूनानी-बौद्ध कला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. बुद्ध के जीवन के चार दृश्यों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. टोक्यो संग्रहालय में गांधार कला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. यूनानी-बौद्ध कला में बुद्ध की शिक्षाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. वज्रासन (हीरा सिंहासन) बोधगया को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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