 
                                            | Post Viewership from Post Date to 23- Aug-2023 (5th) | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 2837 | 698 | 0 | 3535 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
 
                                            दक्षिण भारत में हिंदू देवी-देवताओं को समर्पित ऊँचे-ऊँचे भव्य मंदिर, प्राचीन भारतीय वास्तुकला के चमत्कार माने जाते हैं। हालांकि आपको जानकर हैरानी होगी की ये चमत्कार केवल ज़मीन के ऊपर ही नहीं बल्कि ज़मीन की गहराई में भी घटित हुए थे, जिन्हें आज बावड़ी या बावलियों के रूप में जाना जाता है। 
बावड़ियाँ, जिन्हें वाव या बावड़ी भी कहा जाता है, बड़े कुओं की तरह होती हैं, जिनकी सीढ़ियाँ नीचे पानी तक जाती हैं। ये शानदार संरचनाएं 7वीं से 19वीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी भारत में बहुत महत्वपूर्ण हुआ करती थी। आज भी ये पश्चिमी भारत और भारत तथा पाकिस्तान के अन्य शुष्क भागों में दिखाई दे जाती हैं। जिन क्षेत्रों में हिंदी बोली जाती है, उन्हें "बावड़ी," या" "बावली" आदि नामों से बुलाया जाता है। गुजराती और मारवाड़ी भाषाओं में, उन्हें "वाव" या "वावरी" कहा जाता है। वहीँ कन्नड़ में इनके लिए "कल्याणी" और "पुष्करणी" जैसे विभिन्न नामों का उपयोग किया जाता है।  कुछ बावड़ियाँ काफी ऊँची और कई मंजिलों वाली होती हैं। भारतीय जन पानी को ऊपरी मंजिल तक लाने के लिए एक विशेष तंत्र का उपयोग करते थे, जिसे फारसी पहिया कहा जाता था, जिसे बैल द्वारा संचालित किया जाता था। इस प्रकार की बावड़ियाँ पश्चिमी भारत में आमतौर पर दिखाई दे जाती हैं। हालांकि शुरुआत में बावली की संरचनाएँ सरल हुआ करती थीं, लेकिन समय के साथ वे अधिक विस्तृत और अलंकृत होने लगी। बावली का निर्माण धनी संरक्षकों या शाही परिवारों के सदस्यों द्वारा किया जाता था। इनका उपयोग धार्मिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता था। कुछ बावलियों में इनसे संलग्न कमरे भी दिखाई देते जिनका उपयोग ध्यान या प्रार्थना के लिए किया जाता था।
 वहीँ कन्नड़ में इनके लिए "कल्याणी" और "पुष्करणी" जैसे विभिन्न नामों का उपयोग किया जाता है।  कुछ बावड़ियाँ काफी ऊँची और कई मंजिलों वाली होती हैं। भारतीय जन पानी को ऊपरी मंजिल तक लाने के लिए एक विशेष तंत्र का उपयोग करते थे, जिसे फारसी पहिया कहा जाता था, जिसे बैल द्वारा संचालित किया जाता था। इस प्रकार की बावड़ियाँ पश्चिमी भारत में आमतौर पर दिखाई दे जाती हैं। हालांकि शुरुआत में बावली की संरचनाएँ सरल हुआ करती थीं, लेकिन समय के साथ वे अधिक विस्तृत और अलंकृत होने लगी। बावली का निर्माण धनी संरक्षकों या शाही परिवारों के सदस्यों द्वारा किया जाता था। इनका उपयोग धार्मिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता था। कुछ बावलियों में इनसे संलग्न कमरे भी दिखाई देते जिनका उपयोग ध्यान या प्रार्थना के लिए किया जाता था। 
बावड़ियों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि, राज्य में पूरे वर्ष पर्याप्त पानी उपलब्ध रहे। ये संरचनाएं उन स्थानों पर विशेष रूप से उपयोगी साबित होती थी जहां बदलते मौसम के साथ जल स्तर भी बदलता रहता था। बावड़ियाँ हमारे आम कुओं और टैंकों से भिन्न होती हैं, क्योंकि ये लोगों का पानी तक पहुंचना और उनकी (बावड़ियों) साफ़-सफाई तथा देखभाल करने की प्रक्रिया को आसान बना देती हैं। प्राचीन भारत में बावड़ियाँ बनाने के लिए, लोगों ने भूजल स्रोतों तक पहुँचने के लिए ज़मीन में गहरी खाइयां खोदीं। उन्होंने इन खाइयों की दीवारों को पंक्तिबद्ध करने के लिए पत्थर के ब्लॉकों (Blocks) का उपयोग किया। इससे उन्हें पानी तक नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाने की अनुमति मिल गई। बावड़ियों के अस्तित्व का सबसे पहला प्रमाण धोलावीरा जैसी जगहों पर मिलता है। ऐतिहासिक अभिलेखों में यह उल्लेख मिलता है कि यात्रियों की सुविधा के लिए नियमित अंतराल पर भारतीय सड़कों के किनारे बावड़ियों का निर्माण किया गया था। उदाहरण के लिए, सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में इस प्रथा का उल्लेख किया है।
भारत में सबसे पुरानी रॉक-कट (Rock-Cut) बावड़ियाँ 200-400 ईस्वी पूर्व की दिखाई देती हैं। ये जूनागढ़, गुजरात में ऊपरकोट गुफाओं जैसी जगहों पर देखी जाती थी। बावड़ियों का विकास लगभग 600 ईसवी में गुजरात में शुरू हुआ और धीरे-धीरे राजस्थान,  उत्तर और पश्चिम भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया। हालाँकि शुरुआत में यह हिंदुओं द्वारा किया गया एक कलात्मक प्रयास था। लेकिन बावड़ियों का निर्माण कार्य 11वीं से 16वीं शताब्दी तक मुस्लिम शासन के दौरान भी खूब फला-फूला।
प्राचीन भारत में बावड़ियाँ बनाने के लिए, लोगों ने भूजल स्रोतों तक पहुँचने के लिए ज़मीन में गहरी खाइयां खोदीं। उन्होंने इन खाइयों की दीवारों को पंक्तिबद्ध करने के लिए पत्थर के ब्लॉकों (Blocks) का उपयोग किया। इससे उन्हें पानी तक नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाने की अनुमति मिल गई। बावड़ियों के अस्तित्व का सबसे पहला प्रमाण धोलावीरा जैसी जगहों पर मिलता है। ऐतिहासिक अभिलेखों में यह उल्लेख मिलता है कि यात्रियों की सुविधा के लिए नियमित अंतराल पर भारतीय सड़कों के किनारे बावड़ियों का निर्माण किया गया था। उदाहरण के लिए, सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में इस प्रथा का उल्लेख किया है।
भारत में सबसे पुरानी रॉक-कट (Rock-Cut) बावड़ियाँ 200-400 ईस्वी पूर्व की दिखाई देती हैं। ये जूनागढ़, गुजरात में ऊपरकोट गुफाओं जैसी जगहों पर देखी जाती थी। बावड़ियों का विकास लगभग 600 ईसवी में गुजरात में शुरू हुआ और धीरे-धीरे राजस्थान,  उत्तर और पश्चिम भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया। हालाँकि शुरुआत में यह हिंदुओं द्वारा किया गया एक कलात्मक प्रयास था। लेकिन बावड़ियों का निर्माण कार्य 11वीं से 16वीं शताब्दी तक मुस्लिम शासन के दौरान भी खूब फला-फूला। मुगल शासन के दौरान भी बावड़ियों को महत्व दिया जाता था और प्रोत्साहित किया जाता था। हालांकि, ब्रिटिश राज में अंग्रेजों ने इनकी स्वच्छता को लेकर शंकाएं पैदा कर दी, जिसके कारण इनका अस्तित्व ही मिटा दिया गया और उनके मूल कार्य को बदलने के लिए पाइप और पंप सिस्टम (Pipe And Pump Systems) की स्थापना कर दी गई।
मुगल शासन के दौरान भी बावड़ियों को महत्व दिया जाता था और प्रोत्साहित किया जाता था। हालांकि, ब्रिटिश राज में अंग्रेजों ने इनकी स्वच्छता को लेकर शंकाएं पैदा कर दी, जिसके कारण इनका अस्तित्व ही मिटा दिया गया और उनके मूल कार्य को बदलने के लिए पाइप और पंप सिस्टम (Pipe And Pump Systems) की स्थापना कर दी गई। 
आज कई खंडहर हो चुकी बावड़ियाँ आम तौर पर तीन प्रकार के स्थानों (किसी मंदिर से जुड़ी हुई, गाँव के भीतर या किनारे पर, या गाँव के बाहरी इलाके) में पाई जाती हैं। गुजरात के पाटन में स्थित रानी की वाव, ('रानी की बावड़ी'), को भारत के इतिहास की सबसे उल्लेखनीय बावड़ियों में से एक माना जाता है। 'रानी की बावड़ी’ को चालुक्य राजवंश के शासनकाल के दौरान रानी उदयमती द्वारा संभवतः 11वीं शताब्दी के आसपास भीम प्रथम की याद में बनवाया गया था। रानी की वाव सरस्वती नदी के किनारे स्थित है। हालांकि समय के साथ यह पूरी तरह से गाद से भर गई, लेकिन 1940 के दशक के दौरान इसे फिर से खोजा गया और 1980 के दशक में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा फिर से बहाल किया गया। 2014 में, इसे भारत में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल (Unesco World Heritage Site) के रूप में नामित होने का गौरव प्राप्त हुआ। यह बावड़ी भारतीय वास्तुकला के बेहतरीन चमत्कारों में से एक मानी जाती है, जिसका आकार उल्टे मंदिर जैसा दिखता है। इस बावड़ी की संरचना में जटिल नक्काशीदार मूर्तिकला पैनलों से सजी सीढ़ियों के सात स्तर दिखाई देते हैं। इन पैनलों के भीतर, 500 से अधिक प्राथमिक मूर्तियां और एक हजार से अधिक छोटी मूर्तियां हैं, जो सामूहिक रूप से धार्मिक और प्रतीकात्मक दोनों अर्थ बताती हैं। यहाँ पर खोजी गई मूर्तियां हिंदू देवताओं, दिव्य प्राणियों, मनुष्यों, जानवरों और पौधों को दर्शाते हुए पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह बावड़ी भारतीय वास्तुकला के बेहतरीन चमत्कारों में से एक मानी जाती है, जिसका आकार उल्टे मंदिर जैसा दिखता है। इस बावड़ी की संरचना में जटिल नक्काशीदार मूर्तिकला पैनलों से सजी सीढ़ियों के सात स्तर दिखाई देते हैं। इन पैनलों के भीतर, 500 से अधिक प्राथमिक मूर्तियां और एक हजार से अधिक छोटी मूर्तियां हैं, जो सामूहिक रूप से धार्मिक और प्रतीकात्मक दोनों अर्थ बताती हैं। यहाँ पर खोजी गई मूर्तियां हिंदू देवताओं, दिव्य प्राणियों, मनुष्यों, जानवरों और पौधों को दर्शाते हुए पूरे ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह बावड़ी अपने समय की शिल्प कौशल और वास्तुशिल्प डिजाइन के चरम वैभव को प्रदर्शित करती है। इसकी संरचना, जल प्रबंधन के अनुरूप अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई है, चौथे स्तर पर इसमें 9.5 मीटर X 9.4 मीटर चौड़ाई गहरा आयताकार टैंक है जिसकी गहराई 23 मीटर की है। रानी-की-वाव का महत्व इसकी वास्तुकला उत्कृष्टता, जल प्रबंधन में तकनीकी नवाचार और इसकी जटिल मूर्तिकला सजावट में निहित है। बावड़ी के अंदर की मूर्तियां और सजावट भरी और खाली जगहों के संतुलन के साथ एक अद्वितीय सौंदर्य का वातावरण प्रदान करती हैं।
यह बावड़ी अपने समय की शिल्प कौशल और वास्तुशिल्प डिजाइन के चरम वैभव को प्रदर्शित करती है। इसकी संरचना, जल प्रबंधन के अनुरूप अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई है, चौथे स्तर पर इसमें 9.5 मीटर X 9.4 मीटर चौड़ाई गहरा आयताकार टैंक है जिसकी गहराई 23 मीटर की है। रानी-की-वाव का महत्व इसकी वास्तुकला उत्कृष्टता, जल प्रबंधन में तकनीकी नवाचार और इसकी जटिल मूर्तिकला सजावट में निहित है। बावड़ी के अंदर की मूर्तियां और सजावट भरी और खाली जगहों के संतुलन के साथ एक अद्वितीय सौंदर्य का वातावरण प्रदान करती हैं।  इस बावड़ी को दो मानदंडों के कारण एक असाधारण संरचना माना जाता है:
1. मानदंड (I): रानी-की-वाव बावड़ी प्राचीन भारतीय परंपरा की कलात्मक और तकनीकी पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती है। हमारे धार्मिक और पौराणिक विषयों को दर्शाती इसकी मूर्तियां और नक्काशियां असाधारण शिल्प कौशल प्रदर्शित करती हैं। यह बावड़ी न केवल एक वास्तुशिल्प चमत्कार है, बल्कि मानव रचनात्मकता और अभिव्यक्ति का एक जीवंत प्रमाण भी है।
इस बावड़ी को दो मानदंडों के कारण एक असाधारण संरचना माना जाता है:
1. मानदंड (I): रानी-की-वाव बावड़ी प्राचीन भारतीय परंपरा की कलात्मक और तकनीकी पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती है। हमारे धार्मिक और पौराणिक विषयों को दर्शाती इसकी मूर्तियां और नक्काशियां असाधारण शिल्प कौशल प्रदर्शित करती हैं। यह बावड़ी न केवल एक वास्तुशिल्प चमत्कार है, बल्कि मानव रचनात्मकता और अभिव्यक्ति का एक जीवंत प्रमाण भी है।
2. मानदंड (II): रानी-की-वाव का भूमिगत मार्ग, बावड़ी निर्माण का एक असाधारण पहलू है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले व्यापक जल संसाधन और भंडारण प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है। यह उस अवधि के दौरान हासिल की गई महारत को दर्शाता है जब पानी सामुदायिक कुओं के माध्यम से भूजल धाराओं और जलाशयों से प्राप्त किया जाता था। सौभाग्य से आज भी रानी-की-वाव को उल्लेखनीय रूप से अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है, कुछ मंडप मंजिलों के गायब होने के बावजूद, इसके अधिकांश प्रमुख वास्तुशिल्प घटक अभी भी सुरक्षित हैं।  आज जबकि भारत गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, ऐसे में इन बावड़ियों को फिर से सुचारू करने में दिलचस्पी नए सिरे से बढ़ गई है। 2007 से 2017 तक भूजल स्तर में 61% तक की भारी गिरावट के कारण पीने के पानी और खाद्य उत्पादन पर इसके गंभीर परिणाम हुए हैं। इसी कारण हजारों वर्ष पहले निर्मित बावड़ियों को अब एक संभावित समाधान के रूप में देखा जा रहा है। बावड़ियों के जीर्णोद्धार से जलभरों को रिचार्ज करने और मानसून के मौसम के दौरान वर्षा जल को संग्रहित करने में काफी मदद मिल सकती है, जिससे संभावित रूप से लाखों लीटर पानी उपलब्ध हो जायेगा।
आज जबकि भारत गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, ऐसे में इन बावड़ियों को फिर से सुचारू करने में दिलचस्पी नए सिरे से बढ़ गई है। 2007 से 2017 तक भूजल स्तर में 61% तक की भारी गिरावट के कारण पीने के पानी और खाद्य उत्पादन पर इसके गंभीर परिणाम हुए हैं। इसी कारण हजारों वर्ष पहले निर्मित बावड़ियों को अब एक संभावित समाधान के रूप में देखा जा रहा है। बावड़ियों के जीर्णोद्धार से जलभरों को रिचार्ज करने और मानसून के मौसम के दौरान वर्षा जल को संग्रहित करने में काफी मदद मिल सकती है, जिससे संभावित रूप से लाखों लीटर पानी उपलब्ध हो जायेगा। राजस्थान में हाल के प्रयासों के कारण बावड़ियों का पुनरुद्धार हुआ है, जिससे ग्रामीणों के लिए पानी की उपलब्धता में उल्लेखनीय सुधार देखा गया है। ये भूमिगत संरचनाएं न केवल जल भंडार के रूप में काम करती हैं बल्कि सामुदायिक जीवन और सांस्कृतिक विरासत को संजोने में भी योगदान देती हैं। उनके जीर्णोद्धार में कुशल कारीगरों, वास्तुकारों और इंजीनियरों द्वारा पारंपरिक तरीकों और सामग्रियों का उपयोग करके सावधानीपूर्वक पुनर्निर्माण किया जाता है। हालाँकि बावड़ियों का जीर्णोद्धार भारत के जल संकट को पूरी तरह से हल नहीं करेगा, लेकिन यह स्थानीय स्तर पर समाधान प्रदान कर सकता है।
राजस्थान में हाल के प्रयासों के कारण बावड़ियों का पुनरुद्धार हुआ है, जिससे ग्रामीणों के लिए पानी की उपलब्धता में उल्लेखनीय सुधार देखा गया है। ये भूमिगत संरचनाएं न केवल जल भंडार के रूप में काम करती हैं बल्कि सामुदायिक जीवन और सांस्कृतिक विरासत को संजोने में भी योगदान देती हैं। उनके जीर्णोद्धार में कुशल कारीगरों, वास्तुकारों और इंजीनियरों द्वारा पारंपरिक तरीकों और सामग्रियों का उपयोग करके सावधानीपूर्वक पुनर्निर्माण किया जाता है। हालाँकि बावड़ियों का जीर्णोद्धार भारत के जल संकट को पूरी तरह से हल नहीं करेगा, लेकिन यह स्थानीय स्तर पर समाधान प्रदान कर सकता है।  यदि आप भी बावड़ियों की भव्यता और इनकी कार्यशैली को अपनी आखों से देखना चाहते हैं, तो आप हमारे मेरठ से लगभग 55 किमी दूर मुजेहरा बावली का दौरा कर सकते हैं जो कि एक अष्टकोणीय बावड़ी है। यह मेरठ से 55 किमी दूर जानसठ ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 9 किमी दक्षिण-पूर्व में मुजेहरा गाँव में स्थित है। ऐसा माना जाता था कि इस बावली  में स्नान करने से गठिया रोग ठीक हो जाता है, लेकिन फ़िलहाल इस बावड़ी का भी उपयोग नहीं किया जा रहा है।
यदि आप भी बावड़ियों की भव्यता और इनकी कार्यशैली को अपनी आखों से देखना चाहते हैं, तो आप हमारे मेरठ से लगभग 55 किमी दूर मुजेहरा बावली का दौरा कर सकते हैं जो कि एक अष्टकोणीय बावड़ी है। यह मेरठ से 55 किमी दूर जानसठ ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 9 किमी दक्षिण-पूर्व में मुजेहरा गाँव में स्थित है। ऐसा माना जाता था कि इस बावली  में स्नान करने से गठिया रोग ठीक हो जाता है, लेकिन फ़िलहाल इस बावड़ी का भी उपयोग नहीं किया जा रहा है।
संदर्भ
 https://tinyurl.com/2p9ejn55
https://tinyurl.com/bdn4m77n
https://tinyurl.com/5e63afvn
https://tinyurl.com/38bpvb3e
https://tinyurl.com/ycyc8ccd
https://tinyurl.com/3yscmwvv
https://tinyurl.com/3a4jncaj
https://tinyurl.com/2xm5uexs
https://tinyurl.com/44e26su3
चित्र संदर्भ
1. राजस्थान के बांदीकुई के पास आभानेरी गांव में चांद बावड़ी भारत की सबसे गहरी और बड़ी बावड़ियों में से एक है। को दर्शाता चित्रण (Flickr)
2. चांद बावड़ी को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
3. महाराष्ट्र के अमरावती जिले के महिमापुर गांव में एक बहुमंजिला बावड़ी को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
4. नई दिल्ली में अग्रसेन की बावली, को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
5. श्रवणबेलगोला सीढ़ीदार तालाब को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
6. रानी की बावड़ी’ को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
7. भीतर से रानी की बावड़ी’ को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
8. ऊपर से देखने पर रानी की बावड़ी’ को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
9. महाराष्ट्र में परभणी जिले के हटनूर गांव में नागनाथ मंदिर में बड़ी बावड़ी को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)
10. हिंडौन, राजस्थान में जच्चा की बावड़ी को दर्शाता चित्रण (Wikimedia)    
 
                                         
                                         
                                         
                                        