मेरठ ज़िले में 21,314 हेक्टेयर जंगल क्षेत्र है। मेरठ की उर्वर भूमि में विविध प्रकार के पेड़ पौधे उपजते हैं। पेड़ पौंधों का विश्व समतोल और मानव जीवन में बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। खान-पान के अलावा बहुतसे पेड़ औषधीय गुणों के लिए भी इस्तेमाल होते हैं। उनके पत्ते, फूल, फल, विविध भागों से मिलने वाले रस यहाँ तक की छाल भी खाने एवं औषधी के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। मेरठ के स्थानीय वृक्षराजी में भी ऐसे कुछ अत्यंत उपयुक्त पेड़ पौधे मौजूद हैं। इनमे अमरुद, आम्रपाली, केला, पपीता, चकोतरा, बबूल, हल्दू, कदम्ब, बेल, कटहल, बरहड, नीम आदि वृक्ष हैं। इनमेसे बहुतसे पेड़ मेरठ छावनी परिसर तथा गांधी बाग, डी.एन.कॉलेज, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय और मेरठ शहर की इलाके में भी उपलब्ध हैं। मेरठ में किये गए एक अन्वेषण के अनुसार सन 2016 तक मेरठ में 37 वंश के परिवार हैं जिनके कुल मिलकर सौ से भी अधिक प्रकार हैं। इन पेड़ों की नस्लों में से कुछ के सिर्फ 1 या दो पेड़ ही बचे हैं और विलुप्त होने के मार्ग पर हैं, जैसे बहेड़ा, निर्गुंडी, रक्तचंदन, हरिनहर्रा, रेशम रुई का पेड़ आदि। निचे कुछ पेड़ एवं उनके उपयोग दिए गए हैं जो मेरठ में उपलब्ध हैं। 1. खैर: इससे कत्था मिलता है जो कषाय एवं पाचक का काम करता है साथ ही खासी एवं मुह, गले की बीमारी तथा दस्त के इलाज में भी गुणकारी है। 2. करम/कदमी: इस पेड़ की छाल का इस्तेमाल खांसी, पेटदर्द, पीलिया, नासूर आदि के इलाज़ के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मेरठ छावनी क्षेत्र में ये बहुत मात्रा में पाए जाते हैं। 3. कटहल: यह पेड़ गांधी बाग में बहुत पाए जाते हैं। इनके फल का इस्तेमाल खाने के लिए किया जाता है। इनसे निकलता वनस्पति-दूध जुगल में इस्तेमाल किया जाता है। इसके फल की लुगदी को आइसक्रीम आदि के लिए इस्तेमाल में लाते हैं तथा इनसे जैम-जेली भी बनाते हैं। 4. बरहड: यह पेड़ रेल कॉलोनी में बहुतायता में उपलब्ध है। इसके फल यकृत के टॉनिक के लिए इस्तेमाल होते हैं। 5. चिकरासी: यह पेड़ अस्थि-भंग को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तथा दस्त में भी इस पेड़ के फल सेवन से आराम मिलता है। इस पेड़ का इस्तेमाल कर ऊँची असबाब बनते हैं। प्रस्तुत चित्र बाबुल के पेड़ों का है जिसका इस्तेमाल त्वचा रोग, मधुमेह आदि के उपचार के लिए किया जाता है। 1. मेरठ सी-डेप 2007 2. सर्वे ओन ट्रीज इन डिस्ट्रिक्ट मेरठ, उत्तर प्रदेश, इंडिया- डॉ. यशवंत राय https://www.onlinejournal.in/IJIRV2I2/082.pdf
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