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किसी भी देश में वन आर्थिक और पर्यावरणीय जीवन रेखा के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। वैश्विक स्तर पर वन पेड़ों की 60,000 से अधिक प्रजातियों का घर हैं। वे विश्व स्तर पर 80% उभयचर प्रजातियों, 75% पक्षी प्रजातियों और 68% स्तनपायी प्रजातियों के लिए एक सुरक्षित आश्रय प्रदान करते हैं। दूसरी ओर, वनों का वैश्विक अर्थव्यवस्था में कुल 1.3 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का योगदान है। अतः जैव विविधता और वन आवरण की रक्षा करते हुए, उनसे प्राप्त उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
वनों के इस मूल्य को बढ़ाने तथा वनों का संरक्षण करने हेतु विश्वभर में प्रयास चल भी रहें हैं। क्या आपको पता है कि हमारे राज्य की वन अर्थव्यवस्था की मूल्य श्रृंखला में सुधार तथा अपने पारिस्थितिक उद्देशों को पूरा करने के लिए सरकार लगभग 1,000 करोड़ रुपये का निवेश करने और 2030 तक राज्य के हरित क्षेत्र को 15% तक बढ़ाने की योजना बना रही है। वर्तमान में, राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.23% क्षेत्र वन और वृक्षावरण से अन्तर्निहित है। साथ ही, सरकार राज्य में इस वर्षा ऋतु में 350 दशलक्ष पौधे लगाने की योजना बना रही है। सामाजिक वानिकी योजना के लिए राज्य के बजट में 600 करोड़ रुपये का प्रावधान भी किया गया है। इसके अलावा, राज्य में हरित आवरण बढ़ाने हेतु नर्सरी प्रबंधन योजना में भी 175 करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा। राज्य सरकार द्वारा ग्रीन इंडिया मिशन (Green India Mission) के तहत कई कार्यक्रमों के लिए 100 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।
राज्य सरकार द्वारा न केवल हरित अर्थव्यवस्था को संरक्षित करने का लक्ष्य रखा गया है, बल्कि इसमें स्थानीय जन समुदाय को पर्यावरण पर्यटन, कृषि, नर्सरी विकास आदि के रूप में एक व्यवहार्य वन समर्थित आजीविका भी प्रदान करना शामिल किया गया है। राज्य में पर्यावरण पर्यटन के विकास के लिए 10 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। हमारी राजधानी लखनऊ के कुकरैल वन क्षेत्र में रात्रि में जंगल की सैर को प्रेरित करने हेतु उद्यान निर्मिति के लिए 50 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। इसके अलावा वन अर्थव्यवस्था से संबंधित प्राकृतिक खेती योजना पर राष्ट्रीय मिशन के तहत राज्य में लगभग 114 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे।
राज्य की कृषि और संबंधित गतिविधियों के पूरक के रुप में, राज्य के चार कृषि विश्वविद्यालयों में कृषि-प्रौद्योगिकी स्टार्ट-अप (Start up) के लिए 20 करोड़ रुपये की पेशकश की जाएगी। इसके अलावा, 300 करोड़ रुपये ‘राष्ट्रीय बागवानी मिशन’ में और 100 करोड़ रुपये ‘उत्तर प्रदेश खाद्य प्रसंस्करण उद्योग नीति’, 2022 के कार्यान्वयन के लिए निवेश किए जाएंगे।
जबकि इससे संबंधित एक अन्य प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या समय के साथ वन उत्पादों के उपयोग से वन आवरण को बनाए रखना संभव है, और क्या इस प्रकार समग्र पर्यावरण का रक्षण होगा? यदि वन प्रबंधन टिकाऊ है, स्थानीय जैव विविधता की रक्षा करता है और वन संपदा के बहुआयामी उपयोग को बढ़ावा देता है, तो इसका उत्तर हां है। हम कई तरीकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वनों पर निर्भर है। हम दिन प्रतिदिन जिन उत्पादों का प्रयोग करते है, उनके निर्माण में प्रयुक्त कच्चा माल भी वनों से ही प्राप्त होता है। वन देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा एवं महत्वपूर्ण हिस्सा होते है। ग्रामीण आजीविका के समर्थन में भी वन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वर्तमान में, भारत में लगभग 200 दशलक्ष लोग वनों पर निर्भर हैं।
देश में कई लोग जंगलों से मूल्यवान वस्तुओं तथा उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त करते हैं। इसके बावजूद, जंगलों को आम तौर पर गरीबी और अभाव के स्थान के रूप में देखा जाता है। यह दरअसल सच है, क्योंकि वन उत्पादों का संग्रह और व्यापार अनौपचारिक क्षेत्र में उलझा हुआ है, जिससे वनों का मूल्य लगभग अदृश्य हो गया है।
दूसरी ओर, कई उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार और धन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए वनों की क्षमता से अनभिज्ञ है। उन्हें देश में वन उत्पादों के मूल्य, मात्रा और वितरण की पर्याप्त जानकारी नहीं है क्योंकि आपूर्ति श्रृंखला का पहला स्तर अदृश्य है। वन रोजगार, धन और समृद्धि के सृजन के अवसरों के महत्वपूर्ण स्रोत का प्रतिनिधित्व करते हैं। और यदि इसे तीन-आयामी दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह वनों को समृद्धि के अवसर के रूप में बदल देगा। परंतु, इससे पहले हमें वनों पर निर्भर लोगों की स्थिति को सुधारना होगा। हमें वन उत्पादों का एकत्रीकरण और बाजार तक पहुंच के लिए समुदाय आधारित उद्यमों के माध्यम से अर्थव्यवस्थाओं को भी विकसित करना होगा। वनों से आर्थिक एवं सामाजिक लाभ अधिकतम करने के लिए कृषक उत्पादक संगठनों के अनुभवों को यहां भी आसानी से अपनाया जा सकता है। साथ ही, स्थानीय स्तर पर मूल्यवर्धन के लिए प्रसंस्करण स्थापित कर उत्पादकता में वृद्धि करना भी आवश्यक है।
वन उत्पादों का उचित एकत्रीकरण, प्रसंस्करण और बाजार में उनकी पहुंच से भारत के कुछ सबसे गरीब और सीमांत समुदायों की घरेलू आय में भी वृद्धि होगी। ‘वन अधिकार अधिनियम’, 2006 के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों की मान्यता वनों की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करने का एक आसान समाधान है।
यदि हम इन समुदायों को सशक्त बनाकर स्थानीय स्तर पर वन उत्पादों का मूल्यवर्धन करते हैं, तो हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वन न केवल स्थानीय लाभ प्रदान करें बल्कि वे अन्य कई सेवाओं को भी बढ़ाते रहे।
आज वनों से संबंधित एक अन्य मुद्दा भी चर्चा में है, वह है – वनों की कटाई के कारण हो रहा आर्थिक एवं पर्यावरणीय नुकसान। वन भूमि के व्यापक रूपांतरण के परिणामस्वरूप, वैश्विक स्तर पर लगभग 70% वन आज उनकी सीमाओं के एक किलोमीटर के भीतर तक सिकुड़ गए हैं और भविष्य में इनके और विखंडन की संभावना है। जबकि हमें वनों के विनाश से होने वाली असंख्य समस्याओं के बारे में भली-भांति पता है, तो ऐसे में हमें वनों के सतत विकास की जरूरत है। जैव-अर्थव्यवस्था वन संसाधनों के संभावित आर्थिक उपयोग के साथ-साथ प्राकृतिक संपत्ति की भलाई और संरक्षण को भी ध्यान में रखती है।
हमारे सामने पहले से ही ऐसे कुछ फलदायक प्रयासों के उदाहरण हैं। जैसे कि, गुजरात में, नर्मदा जिले के समुदाय, वनों का प्रबंधन कर रहे हैं और साथ ही कागज और लुगदी उद्योग को बांस की आपूर्ति भी कर रहे हैं। इसी भांति अब पूरे भारत में वन अर्थव्यवस्था को पोषित करने का समय आ गया है।
वन-आधारित जैव-अर्थव्यवस्थाओं में जैव विविधता हानि को दूर करने की क्षमता है, जो आज हमारी दुनिया अनुभव कर रही है। इस तरह के प्रयास हमारे लिए आर्थिक स्तंभों और पर्यावरण सुरक्षा उपायों के रूप में हमारी वन संपदा का उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/41THcWX
https://bit.ly/3NkHAJJ
https://bit.ly/41PNabt
चित्र संदर्भ
1. महिलाओं द्वारा वृक्षारोपण को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. वृक्षारोपण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. नर्सरी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. पेड़ लगाते किसानों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. घने जंगल को दर्शाता एक चित्रण (PixaHive)
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