औपनिवेशिक फर्नीचर का भारत में आगमन और प्रयोग में विस्‍तार

घर - आंतरिक सज्जा/कुर्सियाँ/कालीन
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औपनिवेशिक फर्नीचर का भारत में आगमन और  प्रयोग में विस्‍तार

औपनिवेशिक फर्नीचर पूर्वी और पश्चिमी सभ्‍यता के बीच रचनात्मक सहयोग की एक स्थायी विरासत है। औपनिवेशिक फर्नीचर को भारतीय उपमहाद्वीप में, दुनिया भर के संग्रहालयों और घरों में देखा जा सकता है। लोग अक्सर मानते हैं कि औपनिवेशिक फर्नीचर अंग्रेजों के समय के हैं, लेकिन यह 1500 के दशक के मध्य में पुर्तगालियों द्वारा भारत में पेश किए गए थे। इनमें पुर्तगाली (Portuguese), डच (Dutch), फ्रेंच (French) और ब्रिटिशों (British) द्वारा तैयार फर्नीचर शामिल है।
जब पुर्तगालियों ने भारत पर आक्रमण किया और भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की, तो उन्होंने दक्षिणी भारत में अपने मुख्यालय और आवासीय परिसरों का निर्माण कर व्यापारिक बस्तियों की स्थापना की। किंतु पुर्तगालियों ने जब भारत में प्रवेश किया, तो उनका सामना एक अलग जीवनशैली से हुआ। प्रारंभ में भारत में ऊंचे फर्नीचर की कोई परंपरा नहीं थी। भारतीय लोग फर्श पर अति सुंदर बुने हुए कालीनों, दरी आदि पर बैठकर भोजन करते थे। इसके अलावा, उस समय फर्नीचर बनाने के लिए कोई बुनियादी ढांचा भी नहीं था। जबकि पुर्तगाली अपने दैनिक जीवन में फर्नीचर प्रयोग करते थे जिसके कारण फर्नीचर की भारत में कमी से उन्‍हें अत्यंत निराशा हुई । इसके समाधान हेतु डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिशों ने अपने देश से फर्नीचर आयात करना शुरू किया। लेकिन समय के साथ , उन्होंने स्थानीय कारीगरों के दस्तकारी कौशल पर ध्यान दिया, जिन्हें राजघरानों का संरक्षण प्राप्त था। उन्‍होंने पाया कि फर्नीचर बनाने के लिए कारीगरों के पास कौशल और कच्चा माल (लकड़ी) यहां पहले से ही मौजूद है। पुर्तगालियों ने तब अपने देश से फर्नीचरों की प्रतिकृति का आयात किया और इनकी अन्‍य कृतियों को तैयार करने के लिए स्‍थानीय कारीगरों को नियुक्‍त किया। पुर्तगालियों ने स्थानीय भारतीय कारीगरों को अपनी कला के साथ स्थानीय डिजाइन जोड़ने की अनुमति दी। इसलिए, उनके द्वारा बनाए गए फर्नीचर में अक्सर बाघ, हाथी, चील, मछली, शेर और कुत्ते जैसे जानवरों के रूपांकनों के साथ पत्ते और फलों की नक्काशी देखने को भी मिली। भारतीय और विदेशी शैली को मिलाकर जो उत्पाद तैयार हुआ उसकी गुणवत्ता इतनी अच्छी थी कि पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश मसालों के साथ-साथ फर्नीचर का निर्यात भी करने लगे, जो उनके लिए बेहद लाभदायक साबित हुआ। भारतीय और विदेशी शैली के इस मिश्रण ने फर्नीचर की इंडो-पुर्तगाली शैली को जन्म दिया। इंडो-पुर्तगाली औपनिवेशिक कुर्सियों और फर्नीचर की एक विशिष्ट शैली है जिनमें गहरे रंग की लकड़ी, जटिल जड़ाई का काम और पत्तों, फूलों, जानवरों और फलों की विस्तृत नक्काशी की जाती थी। वास्तव में इंडो-पुर्तगाली शैली सुंदर फर्नीचर बनाने के लिए दो संस्कृतियों का विलय है। शुरुआती पुर्तगाली यहां चर्चों की स्थापना के लिए आए थे अतः उनके द्वारा बनवाए गए फर्नीचर जैसे वेस्ट्रीज़, बेंच, वेदी आदि सबसे पहले गोवा तथा दमन और दीव में दिखाई दिए। हालांकि औपनिवेशिक फर्नीचर ब्रिटिश शासन के तहत सबसे अधिक विकसित हुआ। उन्होंने छोटे आकार के फर्नीचर की बनावट को बढ़ावा दिया , जिसे वे गर्मी के दौरान पहाड़ियों में अपने घरों में ले जा सकते थे । औपनिवेशिक फर्नीचर की एक और श्रेणी, जिससे बहुत से लोग परिचित नहीं हैं, वह है एंग्लो-इंडियन फर्नीचर। यह फर्नीचर, अन्य शैलियों के विपरीत, जिनमें उथली नक्काशी होती है अपनी नक्काशी की उत्कृष्ट विशेषता के लिए जाना जाता है। लॉर्ड क्लाइव (Lord Clive), जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक व्यापारिक संगठन से एक शासक शक्ति में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी,की निजी संपत्ति में इस फर्नीचर को देखा जा सकता है। आज हम जो अधिकांश पुर्तगाली औपनिवेशिक फर्नीचर देखते हैं, वे पश्चिमी भारत में गोवा से आते हैं। फर्नीचर की इस शैली ने भारत में अमीर जमींदारों और शासक वर्गों को भी अपनी ओर आकर्षित किया, जिन्हें डच और पुर्तगालियों द्वारा उपहार के रूप में इनकी कुछ इकाई दी गयी थी। गोवा में पुर्तगालियों द्वारा बैठने की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए बढ़ई और उस्ताद कारीगर अधिक संगठित हो गए। ईसाई पुर्तगालियों से संबंधित धार्मिक रूपांकनों और फूलों की डिजाइनों वाली गोवा शैली के फर्नीचर के उत्पादन में उष्णकटिबंधीय लकड़ी के साथ रतन (Rattan) की लकड़ी, जो भारत की एक अन्य मूल सामग्री थी, का उपयोग किया गया। रतन की लकड़ी का उपयोग यूरोप (Europe) में इस्तेमाल होने वाले चमड़े या कपड़े की जगह पीठ और सीट पर इस्तेमाल किया गया था। पुर्तगाली औपनिवेशिक कुर्सियों का एक असामान्य और दुर्लभ उदाहरण कोने वाली कुर्सियाँ थी जो किंग जोस I (King Jose I) के समय की पुर्तगाली कुर्सियों, चीनी (Chinese) कुर्सियों तथा अंग्रेजी चिप्पेंडेल (Chippendale) कुर्सियों से प्रेरित थीं। इनमें से कई कुर्सियों पर चीनी शैली के प्रभाव के कारण एक चीनी प्रतीक लिंग्ज़ी (Linghzi) (पवित्र मशरूम) की आकृति देखी जा सकती थी। मकाऊ (Macao) के जरिए चीन के साथ व्यापार के कारण चीनी कुर्सियों का गोवा में आना जारी रहा। और यदि ये कुर्सियों किसी कारणवश पश्चिमी कार्यशैली के अनुकूल नहीं होती थी तो उनके डिजाइन में परिवर्तन कर इन्हें इंडो पुर्तगाली शैली के अनुरूप बनाया जाता था। पुर्तगाली औपनिवेशिक कुर्सियों का एक सुंदर उदाहरण तह कुर्सियाँ हैं। ये कुर्सियाँ स्टील के शिकंजे से जुड़े तीन घटकों पीठ, आसन और हाथ से बनी होती है। कुर्सी को खोलने के लिए एक पैर नीचे की और फैलता है। इसकी पीठ गुम्‍बदाकार और नक्‍काशीदार होती है। ये कुर्सियां यात्रा के दौरान ले जाने के लिए अत्यंत उपयुक्त होती थी क्‍योंकि इन्‍हें आसानी से खोला या बंद किया जा सकता था। कुर्सियों के कई अलग-अलग रूपों के अलावा इस समय के दौरान कई बेंच भी बनाई गई । अक्सर अलंकृत नक्काशीदार, कुर्सियों के समान ये बेंच भी विदेशी दृढ़ लकड़ी से बनी होती हैं। ये बेंच इस प्रकार बनी होती हैं कि इन पर तीन या चार व्‍यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं, इसका पृष्‍ठ भाग खुला या ढका हुआ, दोनों प्रकार का था। हाथ रखने के स्थानों को आमतौर पर पुर्तगाली औपनिवेशिक शैली के अनुरूप विस्तृत रूप से उकेरा जाता था । पुर्तगाली अपने साथ कैथलिक (Catholic) धर्म को गोवा लाए, जिसके लिए उन्हें यहां न केवल यूरोपीय शैली में चर्चों का निर्माण करने की आवश्यकता थी, बल्कि ईसाईवादी फर्नीचर भी स्‍थापित करने पड़े । पुर्तगाली प्रार्थना कुर्सियों को विशेष रूप से प्रार्थना के लिए डिजाइन किया गया था जिन्‍हें प्री-डियू(Prie-Dieu) कुर्सियों के रूप में भी जाना जाता है।

संदर्भ:
https://bit.ly/40cBv4S
https://bit.ly/40f53yC

चित्र संदर्भ
1. साथ मिलकर भोजन करते एक ब्रिटिश परिवार को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. जमीन पर बैठकर भोजन करते लोगों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. नैनीताल, भारत में गुर्नी हाउस को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. विशाखापत्तनम में 18 वीं सी की शुरुआत हाथी दंत से बनी शीशम की तालिका को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. ब्रिटिश कालीन फर्नीचर को दर्शाता एक चित्रण (Pxfuel)
6. पुर्तगाली फर्नीचर को दर्शाता एक चित्रण (flickr)