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उनकी कौन सुनेगा जो जंगलों के करीब रहते हैं?

मेरठ

 03-03-2023 11:03 AM
जंगल

क्या आप जानते हैं कि आज भी भारत के दूरदराज गांवों के लगभग 300 मिलियन आदिवासी एवं स्थानीय लोग अपने जीवन निर्वाह और आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, भारत की लगभग 70% ग्रामीण आबादी अपनी घरेलू ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगलों की लकड़ी पर निर्भर है। लेकिन क्या आप इस संदर्भ में हमारे मेरठ शहर से सटे गांवों की स्थिति के बारे में जानते हैं ?
भारत एक विकासशील राष्ट्र है। हमारे देश की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा वे विभिन्न प्रकार के लाभ भी प्रदान करते हैं, जिनमें रोजगार और आय, ईंधन की लकड़ी, भोजन और चारा आदि शामिल हैं। कृषि के बाद, भूमि का दूसरा सबसे बड़ा उपयोग वन क्षेत्र द्वारा किया जाता है। भारत में लगभग 100 मिलियन लोगों के लिए, जंगल आजीविका का मुख्य स्रोत माने जाते हैं। स्थानीय कौशल और ग्रामीण स्तर की तकनीक लगाकर लकड़ी के उत्पादों का निर्माण करके ग्रामीण लोगों को, माध्यमिक रोजगार और आजीविका कमाने का अवसर मिलता है। उनके द्वारा बनाए जाने वाले लकड़ी आधारित उत्पादों में आरा मिल , कागज, प्लाईवुड (Plywood) और खेल सामान, माचिस की तीली, लकड़ी के बक्से, बांस और बेंत के उत्पाद, कृषि उपकरण, फर्नीचर, लकड़ी के संरचनात्मक सामान, संगीत वाद्ययंत्र, बीड़ी, शैक्षिक सामान, लकड़ी की नक्काशी, लकड़ी के बर्तन आदि शामिल हैं।
भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India) 2019 के अनुसार, भारत के कुल 650,000 गांवों में से लगभग 26 प्रतिशत गावं जंगलों से सटे हुए हैं, जहां वन महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक और आजीविका की अधिकांश जरूरतों को पूरा करते हैं। इन गाँवों में देश की लगभग 22 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन नीति निर्माण के दौरान अक्सर इन समुदायों को नजरंदाज़ कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर कोरोना महामारी के समय इन सीमांत गावों के लोगों को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा। दरअसल, तालाबंदी के बीच कृषि उत्पादों की आवाजाही की इजाजत तो दी गई थी, लेकिन इनमें लकड़ी आधारित उत्पादों को शामिल नहीं किया गया था। हालांकि, बाद में इसे अगले दिन ही जोड़ा गया था।
व्यापक आकलन और जानकारी के अभाव में, इन सीमांत क्षेत्रों के लोगों की सहायता नहीं हो पाती है। मध्य भारत में जंगलों के पास रहने वाली आबादी के लिए, खाद्य सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है। उनकी आजीविका वन आधारित उत्पादों पर निर्भर है, लेकिन केवल वन उत्पादों से उनकी आय अपेक्षाकृत बहुत कम हो पाती है। जंगलों पर निर्भर लोगों की औसत आय भी कम दर्ज की गई है । इसके अलावा, उनके द्वारा निर्मित उत्पादों की अधिकांश बिक्री, या तो वन विभाग को या फिर स्थानीय बाजारों को अथवा स्थानीय ठेकेदारों को, की जाती है।
इसके अतिरिक्त, सीमांत गावों में रहने वाले अधिकांश लोग निरक्षर हैं और उन्हें वन अधिकारों के बारे में अधिक जानकारी भी नहीं है। इस कारण वन संसाधनों और आय-सृजन के अवसरों तक उनकी पहुंच भी सीमित हो गई है। अध्ययन में पाया गया कि जंगलों से सटे ग्रामीण लोगों की बुनियादी सुविधाओं तक भी पहुंच नहीं है। उदाहरण के तौर पर अधिकांश ग्रामीण पानी के लिए सार्वजनिक पंपों पर निर्भर हैं और 36 प्रतिशत घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। इन लोगों के लिए कृषि और मजदूरी घरेलू आय के प्राथमिक स्रोत माने जाते हैं। इसलिए, गरीबी को दूर करने के साधन के रूप में शिक्षा, स्वच्छता और स्वच्छ पानी तक उनकी पहुंच जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
हमारे मेरठ शहर के हस्तिनापुर वन क्षेत्र को 34 साल पहले अभयारण्य घोषित किया गया था। लेकिन ‘राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड’ (National Board for Wildlife (NBWL) ने अब राज्य सरकार के एक प्रस्ताव के आधार पर अभयारण्य के क्षेत्र को कम (लगभग आधा) करने की सिफारिश की है। प्रस्ताव के स्वीकार होने के बाद, इस अभयारण्य का क्षेत्रफल (जो वर्तमान में बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, अमरोहा और हापुड़ जिलों सहित पश्चिमी यूपी में गंगा के दोनों किनारों पर 2,073 वर्ग किमी तक फैला है) घटकर 1,094 वर्ग किमी रह जाएगा।
वन्यजीव कार्यकर्ताओं के अनुसार, यह कदम अंततः अभयारण्य को ही नष्ट कर देगा, क्योंकि इससे लोगों की वन्यजीवों तक पहुंच आसान हो जाएगी। उनका कहना है कि सरकार ऐसा कदम व्यावसायीकरण लाभ के लिए उठा रही है। हालांकि, इस मामले में याचिकाकर्ताओं का यह भी मानना है कि वर्तमान में अभयारण्य बहुत अधिक मानव हस्तक्षेप के साथ काफी अव्यवस्थित हो गया है, और इसके आकार को कम करने से यह अधिक संरक्षित हो जाएगा। उन्हें लगता है कि क्षेत्र को कम करने से अभयारण्य की रक्षा करना आसान हो जाएगा। हमारी पृथ्वी की रक्षा और बेहतर स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने में जंगली जानवरों और पौधों के योगदान को उजागर करने और उनकी सराहना करने के लिए हर साल 3 मार्च को ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ (World Wildlife Day) मनाया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र (United Nations) द्वारा स्थापित एक अंतर्राष्ट्रीय दिवस है। यह तिथि इसलिए चुनी गई है क्योंकि इस दिन वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन (Convention on International Trade in Endangered Species (CITES) की नींव रखी गई थी । लुप्तप्राय प्रजातियों को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से बचाने के लिए इस सम्मेलन के संकल्प पत्र को 1973 में हस्ताक्षरित और 1 जुलाई 1975 को लागू किया गया था।

संदर्भ
https://bit.ly/3J0HyEi
https://bit.ly/3kCIdlS
https://rb.gy/mb5alr

चित्र संदर्भ
1. चूल्हा चौकी करती महिला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. एक आम ग्रामीण माहौल को दर्शाता एक चित्रण (Peakpx)
3. ग्रामीण क्षेत्रों में राशन वितरण को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. एक ग्रामीण महिला दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. एक बैलगाड़ी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ को दर्शाता एक चित्रण (flickr)

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