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मनुष्य अपने मस्तिष्क में समस्त संसार का ज्ञान समाहित करने की क्षमता रखता है। किंतु इसके बावजूद भी, अधिकांश लोग अपने स्वयं के व्यक्तित्व से ही अनभिज्ञ होते हैं। बहुधा लोग इस बात को लेकर अत्यंत दुविधा में रहते हैं कि उनके अस्तित्व का मूल आधार क्या है? जबकि कुछ तो अपने मूल अस्तित्व से ही अनभिज्ञ होते हैं। हालांकि, सनातन धर्म में इस दुविधा से बाहर निकलने का एक श्रेष्ठ मार्ग बताया गया है, जिसे “ज्ञान योग" के नाम से संबोधित किया जाता है।
ज्ञान योग को ज्ञान मार्ग के रूप में भी जाना जाता है। सनातन धर्म में यह मार्ग मोक्ष (मुक्ति) प्राप्ति के तीन शास्त्रीय पथों (मार्गों) में से एक “ज्ञान पथ” माना जाता है। इसे “आत्म-साक्षात्कार का मार्ग" भी कहा जाता है। मुक्ति पाने के शेष दो मार्गों में कर्म-मार्ग (योग) और भक्ति मार्ग (योग) शामिल हैं।
ज्ञान योग एक आध्यात्मिक अभ्यास है। यह संसार में व्यक्ति के अपनी उपस्थिति से जुड़े प्रश्नों जैसे कि “मैं कौन हूं एवं मैं क्या हूं" आदि की खोज करने में सहायता करता है। प्राचीन और मध्यकालीन युग के हिंदू शास्त्रों, उपनिषदों और भगवद गीता जैसे ग्रंथों में ज्ञान-मार्ग के विचारों पर विस्तृत चर्चा की गई है
परिभाषा के तौर पर समझें तो “ज्ञान” वास्तव में किसी भी ऐसी संज्ञानात्मक घटना को संदर्भित करता है, जो समय के साथ सही और सत्य होती है। अद्वैत वेदांत के अनुसार ज्ञान योग के दो अर्थ- प्राथमिक (आत्म-चेतना अर्थात जागरूकता) और द्वितीयक (सापेक्ष अर्थात बौद्धिक समझ) होते है। आधुनिक वर्गीकरणों में, ज्ञान प्राप्ति के एक मार्ग के रूप में शास्त्रीय योग, जिसे “राज योग” भी कहा जाता है, का उल्लेख चौथे योग के रूप में किया गया है। राज योग को स्वामी विवेकानंद द्वारा पेश किया गया था ।
मुक्ति प्राप्त करने के तीन अलग-अलग मार्गों में से, ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग सबसे अधिक प्राचीन माने जाते हैं। इनका वर्णन वैदिक युग के साहित्यों में भी मिलता है। ज्ञान का मार्ग उन लोगों के लिए है जो दार्शनिक विचार पसंद करते हैं। इस मार्ग में गहरे अध्ययन और ध्यान की आवश्यकता होती है।
ज्ञान योग मनुष्य को स्वयं से अहंकार को दूर रखने और संसार से संबंधित माया से मुक्त होने के लिए प्रोत्साहित करता है। उपनिषदों के अनुसार, ज्ञान योग का सर्वोच्च उद्देश्य व्यक्तिगत स्व (आत्मा) और परम स्व (ब्रह्म) की एकता की प्राप्ति करना है। ये शिक्षाएं प्रारंभिक उपनिषदों में दी गई हैं।
भगवद गीता में, ज्ञान योग को बुद्धि योग भी कहा गया है, जिसका परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार करना बताया गया है। भगवद गीता का अध्याय 4 ज्ञान योग की सामान्य व्याख्या के लिए समर्पित है, जबकि अध्याय 7 और 16 इसके धार्मिक सिद्धांत और स्वयंसिद्ध पहलुओं पर चर्चा करते हैं।
महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक श्री रामकृष्ण अक्सर मनुष्यों में आध्यात्मिक अज्ञानता की स्थिति की तुलना उस युवा राजली पक्षी से करते थे, जो मुर्गी के चूजों के बीच पैदा होता है। जब मुर्गी अपने पंख फैलाकर अपने चूजों को ढकती है तो युवा राजली पक्षी अपनी मां से पूछता है कि वह मुर्गी ऐसा क्यों कर रही है? इसके जवाब में उसकी मां (मुर्गी) कहती है कि वह ऐसा अपने बच्चों को शक्तिशाली राजली पक्षी से बचाने के लिए कर रही है। जिसके बाद वह नन्हा चूजा उस बात को सच मान लेता है और पूरे जीवनभर अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ ही रहता है।
इसी प्रकार मनुष्य भी अपने शरीर को ‘मैं' अर्थात सर्वस्व मान लेता है। उसके लिए भौतिक शरीर ही स्थाई धारणा और वास्तविक सत्य बन जाता हैं। मनुष्य को लगता है कि वह जन्म के चक्र में असहाय रूप से फंसा हुआ है एवं उससे बाहर निकलने में असमर्थ है। अपने वास्तविक स्वरूप की अज्ञानता के कारण, मनुष्य अपनी इच्छित वस्तुओं के प्रति अनुचित आसक्ति विकसित कर लेता हैं। और यही सभी समस्याओं का मूल कारण है। बिना अपने वास्तविक स्वरूप और अस्तित्व के सत्य को जाने मनुष्य, वास्तव में, कभी भी वास्तविक शांति नहीं पा सकता है ।
नीचे कुछ शब्द और अवधारणाएँ दी गई हैं जिनके बारे में जानना ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक है -
१. ज्ञानयोग: आत्म और ब्रह्म के पवित्र ज्ञान का अध्ययन और अभ्यास जो मुक्ति की ओर ले जाता है।
२. ज्ञानयज्ञ: चिंतन और ध्यान रूपी कर्म करना।
३. ज्ञानकाण्ड: वेदों का वह भाग जो ब्रह्म, आत्मा, योग और आत्म-साक्षात्कार के आध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित है।
४.ब्रह्मज्ञान: ब्रह्म का पवित्र ज्ञान या उपनिषदों में पाया जाने वाला सर्वोच्च स्व ज्ञान। ब्रह्मज्ञान का अर्थ “ब्रह्म को जानना” है।
५. विज्ञान: इसे अक्सर ज्ञान के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है। हालाँकि, कुछ संदर्भों में इसका अर्थ वस्तुओं की प्रामाणिकता को सत्यापित या परीक्षित ज्ञान, व्यावहारिक ज्ञान और भौतिक चीज़ों का ज्ञान (विषय ज्ञान) हो सकता है। इसका उपयोग स्थानीय भाषाओं में विज्ञान शास्त्र को निरूपित करने के लिए भी किया जाता है।
६.अज्ञान: ज्ञान की कमी। अज्ञान को अविद्या भी कहते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार, अज्ञानता भ्रम का मूल कारण है जिससे हम अपने आस-पास की वस्तुओं में छिपे सत्य को नहीं खोज पाते। अज्ञान पर विजय पाने वाला मनुष्य ही सच्चा दृष्टा है।
७. ज्ञानेन्द्रिय: इंद्रिय अंग अर्थात सांसारिक अनुभव के लिए उपयोग किए जाने वाले अंग।
८. ज्ञानचक्षु: मन की आंख, तीसरी आंख, बौद्धिक तेज या सहज बुद्धि। यह सत्य को असत्य से अलग करने के लिए उच्च स्तर के ज्ञान या बौद्धिक क्षमता को भी संदर्भित करता है।
सनातन धर्म के विकास में अनगिनत लोगों ने अपना योगदान देकर इसे समृद्ध किया। हजारों धर्मपरायण लोगों, प्रबुद्ध गुरुओं और आध्यात्मिक शिक्षकों के व्यक्तिगत योगदान के माध्यम से सनातन धर्म ने अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया है।
यही कारण है कि सनातन धर्म को अनिवार्य रूप से “मनुष्यों का, मनुष्यों द्वारा और मनुष्यों के लिए धर्म” माना जाता है। हिंदू शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि हिंदू धर्म का स्रोत स्वयं ईश्वर हैं । समय के साथ सनातन धर्म के पवित्र ज्ञान को विभिन्न अवतारों, निर्गमों, देवताओं, मनुष्यों, राक्षसों, संतों और द्रष्टाओं आदि के माध्यम से प्रकट और विस्तारित किया गया।
हिंदू धर्म के अनुसार ज्ञान रुपी नौका के माध्यम से ही मनुष्य सुरक्षित रूप से संसार रूपी अशांत भवसागर को पार कर सकता है। ज्ञान मनुष्य की आँखों को खोलता है और उनमें छिपे सत्य को उजागर करता है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य अज्ञानता और मानसिक अंधकार के समुद्र में खो जाएगा।
पवित्र ज्ञान को दर्शाने के लिए संस्कृत में, “ज्ञानम” शब्द का प्रयोग किया जाता है। जहां ज्ञान का अर्थ स्वयं को जानना या स्वयं के बारे में जागरूक होना होता है। कोई भी मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ईश्वर, धर्म, दर्शन, शास्त्र, अंतर्दृष्टि, अंतर्ज्ञान, बुद्धि, समझ, अध्ययन, सीखने और चिंतन जैसे माध्यमों का प्रयोग कर सकता है। सनातन धर्म में पवित्र ज्ञान को धर्म, सदाचारी आचरण, आदेश और नियमितता, विवेक, पवित्रता, आत्म-जागरूकता और आत्म-साक्षात्कार का आधार माना गया है। ज्ञान ज्ञानियों को अज्ञानियों से और द्रष्टाओं को भ्रमितों से अलग करता है। यह मनुष्य को चिरस्थायी सुख, शांति और स्थिरता के आनंद का अनुभव करा सकता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, जब तक कोई व्यक्ति सही ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तब तक वह अज्ञानी रहता है और अपना जीवन भ्रम में व्यतीत करता है। अज्ञानी मनुष्य जन्म और मृत्यु के चक्र से बंधा रहता है। लेकिन एक बार ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह परम ब्रह्म में विलीन होकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।
संदर्भ
https://bit.ly/3So3Vq0
https://bit.ly/3y3hkLb
https://bit.ly/3Zakc4c
चित्र संदर्भ
1. श्री कृष्ण से सहायता मांगने आये दुर्योधन और अर्जुन को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
2.‘ध्यान में विलीन हिन्दू पुरुष को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
3. श्रीमद भागवत गीता को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ध्यान मुद्रा को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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