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भूकंप से बचने का वो सबक जिसे दुनिया हिमाचल प्रदेश से सीख सकती है

मेरठ

 16-02-2023 10:38 AM
वास्तुकला 1 वाह्य भवन

हाल ही में तुर्की (Turkey) और सीरिया (Syria) में, महज 11 घंटे के भीतर ही भूकंप के 3 बड़े झटके महसूस किए गए। रिक्टर पैमाने (Richter scale) पर भूंकप की तीव्रता 7.8 मापी गई थी, जिसके कारण बड़ी-बड़ी आधुनिक इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह गई । इन इमारतों के मलबे के नीचे हजारों लोग दबकर मर गए। इतनी सारी इमारतों के ढहने के कारण तुर्की के भवन निर्माण नियमों पर भी सवाल उठना जायज है।
हालांकि, आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जापान जैसे देश में शक्तिशाली भूकंपों का आना आम बात है। जापान में हर दिन लगभग 1,000 झटके महसूस किए जा सकते हैं। 2005 में, जापान में 130,000 से अधिक भूकंप दर्ज किए गए थे। लेकिन वहां के घरों और इमारतों की शानदार संरचना जापानियों को भूकंप के प्रति अधिक लचीला एवं सुरक्षित बनाती है।
न्यूयॉर्क (New York) स्थित संरचनात्मक इंजीनियर और “व्हाई बिल्डिंग्स फॉल डाउन: हाउ स्ट्रक्चर्स फेल” (Why Buildings Fall Down: How Structures Fail) पुस्तक के सह-लेखक, मैथिस लिवी (Matthys Levy) ने भूकंप के बाद तुर्की में खंडहर हो चुकी इमारतों की तस्वीरों का गहनता से विश्लेषण किया। विश्लेषण करने के बाद उन्होंने यह पाया कि तुर्की में कंक्रीट की ब्लॉक संरचनाओं का निर्माण नहीं किया गया था। इसके अलावा कंक्रीट को मजबूत करने के लिए स्टील का उपयोग भी पर्याप्त रूप से नहीं किया गया था। 1999 में भी तुर्की के उत्तर-पश्चिमी शहर, इज़मित (Izmit) में एक विनाशकारी भूकंप आया था जिसमें 17,000 से अधिक लोग मारे गए थे। इस भूकंप में लगभग 20,000 इमारतें क्षतिग्रस्त हो गई थीं। इसके अलावा 2011 में एक और शक्तिशाली भूकंप ने दक्षिणपूर्वी तुर्की को हिलाकर रख दिया था, जिसमें लगभग 500 लोग मारे गए थे।
इन घटनाओं से सबक लेते हुए तुर्की ने 2007 में, भूकंप जोखिम क्षेत्रों के लिए नए भवनों के निर्माण के लिए कुछ नियम बनाए । लेकिन इसके बावजूद लचर प्रवर्तन (Lax Enforcement) और निर्माण प्रथाएं घटिया ही बनी हुई हैं। सरकारी योजनाओं के तहत बड़ी-बड़ी इमारतों को आवासीय भवन परियोजनाओं में बदल दिया गया है, जिन्हें अक्सर पर्याप्त गुणवत्ता मानदंडों का पालन किये बिना बेहद जल्दबाजी में वितरित कर दिया जाता हैं।
बड़ी समस्या यह है कि लोग हमेशा सोचते हैं कि यदि वे नई, आधुनिक इमारतों में रहते हैं तो वे अधिक सुरक्षित हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि विज्ञापनों द्वारा जिन इमारतों को भूकंप से सुरक्षित बताया गया था, आज वह भी जमीन की धूल चाट रही हैं। कई जानकार मानते हैं कि तुर्की का निर्माण क्षेत्र, गुणवत्ता के बजाय मात्रा और लाभ को अधिक प्राथमिकता देता है, जिसका खामियाजा वहां के मासूम लोग अपनी जान देकर चुका रहे है।
भूकंपरोधी होने के लिए किसी संरचना को डिजाइन करने में कई बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है। एक इमारत गिर सकती है यदि:
1. जमीनी गति या जमीनी त्वरण (Ground Acceleration) अथवा भूकंप की तीव्रता, गणना की तुलना में अधिक है।
2. भवन को सुदृढीकरण के किसी भी तन्य विवरण अर्थात लचीलेपन के बिना डिजाइन किया गया है।
3. भवन निर्माण में अनियमितता बरती गई है अर्थात यदि इमारत में बहुत कम स्तंभ हैं, तो भूकंप के दौरान उन्हें अधिक भार उठाना पड़ेगा। इस उच्च अपरूपण मांग और बहुत कम विस्थापन क्षमता के कारण वह ढह जाएंगे। इमारत जितनी ऊंची होती है, उतनी अधिक जटिल हो जाती है। ऊंची इमारतों को भूकंप के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए, हम एक अधिक परिष्कृत पद्धति का उपयोग कर सकते हैं, जिसे प्रदर्शन-आधारित डिज़ाइन (Performance-Based Design) कहा जाता है। इसमें भवन का एक कंप्यूटर मॉडल (Computer Model) बनाना और भूकंप के विभिन्न परिदृश्यों के तहत इसका परीक्षण करना शामिल है। ऐसा करने से, हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि इमारत में भूकंप का सामना करने के लिए पर्याप्त लचीलापन है या नहीं। भूकंप रोधी बनाने के लिए इमारतों को डिजाइन (Design) करते समय ताकत और लचीलेपन, दोनों पर विचार करना जरूरी होता है। तुर्की की भांति ही 1905 में, एक घातक भूकंप ने हमारे देश के पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश को भी हिलाकर रख दिया था। इस दौरान मजबूत दिखने वाले कंक्रीट के भवन भी ताश के पत्तों की तरह बिखर गए थे। हालांकि, इन हालातों में भी वहां के कई कस्बों की संरचनाएं और लोग दोनों सुरक्षित थे। दरसल इन कस्बों के निर्माण में वहां के निवासियों ने “काठ कुनी” (Kath Kuni) नामक एक प्राचीन, पारंपरिक हिमालयी निर्माण तकनीक का उपयोग किया था।
भूकंप के दायरे में आने वाले 500 वर्षों से भी पुराने ‘नग्गर महल’ (Naggar Castle) और अन्य काठ कुनी घरों को सुरक्षित देखकर, ‘भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण’ (Geological Survey of India) के अधिकारी भी चकित रह गए थे। हिमाचल के कई क्षेत्रों में हजारों वर्षों से काठ कुनी घरों का निर्माण किया जा रहा है। यह तकनीक पूरी तरह से हिमालय के अनुकूल है, जो दुनिया में भूकंप के प्रति सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। काठ कुनी घरों के निर्माण में देवदार की लकड़ी और पत्थर का उपयोग किया जाता है। देवदार की लकड़ी और पत्थर के साथ एक भूकंप रोधी संतुलित इमारत का निर्माण होता है। पत्थर इमारत को वजन देता है, जिसके परिणामस्वरूप गुरुत्वाकर्षण का केंद्र कम होता है, और लकड़ी अपने लचीलेपन के कारण संरचना को एक साथ रखती है। भूकंप के दौरान दबाव कम करने के लिए दरवाजे और खिड़कियां छोटे तथा भारी लकड़ी की चौखट से बने होते हैं। इसके अलावा, इमारतों में जड़त्वीय बल (Inertial Forces) को जमीन पर स्थानांतरित करने में मदद करने के लिए इनमें खिड़कियों और दरवाजों की संख्या भी कम होती है। इन इमारतों के ऊपर, मोटी स्लेट की छतें (Slate Roofs) पूरी इमारत को मज़बूती से थामे रहती हैं। “काठ कुनी" शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका हिंदी अनुवाद “लकड़ी का कोना" होता है। किसी भी काठ कुनी इमारत के कोनों पर एक नज़र डालने पर आपको स्पष्ट रूप से लकड़ी के बीम एक दूसरे के साथ गुंथे हुए दिखेंगे । इन परतों के बीच के अंतराल को छोटे पत्थरों, घास और मलबे से भरा जाता हैं। यह जटिल अन्तर्ग्रथन (Interlocking) प्रणाली, काठ कुनी संरचनाओं को बेहद लचीला बना देती है। यही लचीलापन ईमारत को भूकंप के दौरान भी समायोजित रहने की अनुमति देता है। इन भूकंप-रोधी गुणों के अलावा, काठ कुनी संरचनाओं की दीवारें दो-परतों में होती हैं जो विसंवाहक (Insulator) के रूप में कार्य करती हैं। यह सर्दियों के महीनों में जगह को गर्म रखती हैं और गर्मियों में ठंडा रखती हैं। काठ कुनी वास्तुकला क्षेत्र की कृषि और सामुदायिक जीवन शैली के लिए भी अनुकूलित मानी जाती है। इनका भूतल पालतू जानवरों के लिए आरक्षित होता है, जबकि ऊपरी मंजिलों का उपयोग परिवार के रहने के लिए किया जाता है।
शानदार काठ कुनी निर्माण तकनीक पीढ़ियों से चली आ रही है। किंतु धीरे-धीरे यह परंपरा भी विलुप्त हो रही है। आज हिमाचल के कई गांवों में कंक्रीट के घरों को प्राथमिकता दी जा रही है। साथ ही जंगलों और स्थानीय वनवासियों के बीच संबंधों को सुधारने के प्रयासों के तहत , भारत सरकार द्वारा 2006 में ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest Rights Act) भी पारित किया था। यह अधिनियम प्रत्येक हिमाचली परिवार को हर 10 साल में केवल एक पेड़ काटने का अधिकार देता है। इसी कारण लोगों को काठ कुनी घर बनाने के लिए पर्याप्त लकड़ी नहीं मिल पा रही है।
आज हिमाचल प्रदेश के यह पारंपरिक आवास निर्माण की दृष्टि से महंगे और अव्यावहारिक हो गए हैं। स्थानीय लोगों को लकड़ी की तुलना में ईंटों और सीमेंट का घर बनाना सस्ता और आसान प्रतीत होता है। आज पूरे हिमाचल प्रदेश में केवल एक ही गांव (चेहनी) ऐसा है जहां सभी घर काठ कुनी हैं। काठ कुनी संरचनाओं की मांग में गिरावट के साथ ही, इस कला में विशेषज्ञता रखने वाले मिस्त्रियों की संख्या में भी लगातार गिरावट आई है। इसके अलावा लोग यह भी मान रहे हैं कि कंक्रीट संरचनाएं अधिक टिकाऊ होती हैं। हालाँकि, पिछले 100 वर्षों के दौरान हिमाचल प्रदेश में 4.0 और उससे अधिक तीव्रता के कई भूकंप आए हैं, जिनमें इन कंक्रीट के घरों ने उल्टा जानमाल का भारी नुकसान पहुचाया है। जिसके बाद अब कई चुनौतियों के बावजूद, स्थानीय संगठनों द्वारा पारंपरिक निर्माण विधियों को बढ़ावा देने और बचाव के तरीके खोजने की कोशिशें जारी हैं।

संदर्भ
https://bit.ly/40MF7Me
https://bbc.in/40OMpPx
https://bit.ly/3K8F2wq

चित्र संदर्भ
1. काठ कुनी ईमारत को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. जापान प्राकृतिक स्थान ओसाका भूकंप को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. धराशाही ईमारत को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. पारंपरिक जापानी ईमारत को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)
5. काठ कुनी गृह खंड को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)
6. काठ कुनी निर्माण तकनीक को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)

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