भारत में ब्रिटिश काल के दौरान भी थी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाएँ, कौन थे उस सेना के भारतीय प्रतिभागी?

मेरठ

 17-01-2023 10:40 AM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

1775-83 के स्वतंत्रता संग्राम में अमेरिकी उपनिवेशों की हार के बाद, भारत, ब्रिटेन की विदेशी संपत्ति का केंद्र बिंदु बन गया। इसका मुख्य कारण आंशिक रूप से चल रहे एंग्लो-फ्रांसीसी (Anglo–French) संघर्ष के साथ-साथ खंडित मुगल साम्राज्य की राजनीतिक और वाणिज्यिक प्रतिद्वंद्विता में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किया गया हस्तक्षेप था।
1600 में स्थापित, ईस्ट इंडिया कंपनी एशियाई वस्त्रों, मसालों, चीनी मिट्टी के बरतन और चाय का कारोबार करती थी। जैसे-जैसे कंपनी का कारोबार बढ़ता गया, कंपनी को अपनी भारतीय बस्तियों को यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों और शत्रुतापूर्ण स्थानीय लोगों से सुरक्षित करने की आवश्यकता हुई। अतः कंपनी ने भारतीय शासकों से भूमि खरीदी और इन सूबोँ (Presidencies) की रक्षा के लिए सैनिकों की भर्ती की और सेनाओं का गठन किया । अंततः, ये सेनाएँ बंगाल, बॉम्बे और मद्रास की सेनाओं के रूप में में विकसित हुईं।
प्लासी (1757), वांडीवाश (1760) और बक्सर (1764) की लड़ाई में जीत के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की प्रमुख शक्ति बन गई। 1765 में, जब कंपनी ने कमजोर मुगल सम्राट शाह आलम (Shah Alam) से भारत के सबसे अमीर प्रांत बंगाल में कर और सीमा शुल्क एकत्र करने का अधिकार प्राप्त किया, तो इसकी सर्वोच्चता की पुष्टि हुई । तब एक शाही प्रशासक के रूप में, कंपनी ने मैसूर (1767-99), मराठों (1775-1818) और सिखों (1845-49) जैसी देशी शक्तियों की को हराकर अपनी सत्ता का विस्तार किया। यह विस्तार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, व्यावसायिक हित, राजस्व की आवश्यकता और सुरक्षा कारणों के मिश्रण से प्रेरित था। 1850 के दशक के मध्य तक, कंपनी उपमहाद्वीप के दो तिहाई हिस्से पर शासन कर रही थी।
कंपनी के तीन सूबोँ– बंगाल, बॉम्बे और मद्रास में से प्रत्येक ने अपनी सेनाएं बनाए रखी। शुरुआत में, सेना में सैनिकों की संख्या मुट्ठी भर फ़ैक्टरी गार्डों (factory guards) से अधिक नहीं थी । लेकिन 1740 के बाद से, जैसे-जैसे एंग्लो-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता भारत में फैली, ये सेनाएं बढ़ने लगीं। कंपनी की सेना भारतीय सेना से आकार में कई गुना बड़ी थी ।इसके साथ ही कंपनी के सैनिकों के बेहतर यूरोपीय प्रशिक्षण और हथियार ने भी उन्हें भारतीय सेना को पराजित करने में सक्षम बनाया। उदाहरण के लिए, बक्सर की लड़ाई (1764) में लगभग 7,000 कंपनी सैनिकों ने अपने बेहतर प्रशिक्षण और हथियारों के कारण लगभग 40,000 दुश्मन सैनिकों को हराया था। अंततः, बंगाल सेना तीनों सेनाओं में सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण बन गई। इसके कमांडर-इन-चीफ को भारत में वरिष्ठ कंपनी सैन्य व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
ब्रिटिश सेना के सैनिक कभी-कभी तीनों सेनाओं से जुड़े होते थे । जब कभी कंपनी सैनिकों की तैनाती की लागत की हामीदारी करती थी, तो ब्रिटिश सरकार द्वारा जरूरत के समय इसको उधार दिया जाता था। भारत में तैनात पहली ब्रिटिश रेजिमेंट 39वीं रेजिमेंट ऑफ फुट (39th Regiment of Foot) थी, जिसको 1754 में भारत में तैनात किया गया था ।
जनरल सर आइरि कूट (General Sir Eyre Coote) और जनरल सर आर्थर वेलस्ली (General Sir Arthur Wellesley) जो आगे चलकर ड्यूक ऑफ वेलिंगटन ( Duke of Wellington) बने, सहित कई ब्रिटिश सेना अधिकारी पहली बार कंपनी के सैनिकों के साथ और प्रमुखता से सेवा करने के लिए आए थे। 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक, कंपनी की सेना 250,000 सैन्य बल के साथ अत्यंत मजबूत हो गई थी, जो कई देशों की सेना से बड़ी थी। इसके अधिकारी ब्रिटिश थे और यह केवल यूरोपीय लोगों से बनी कई रेजिमेंट थीं। लेकिन कंपनी के अधिकांश सैनिक भारतीय थे।
कंपनी ने भारतीय मार्शल परंपराओं के साथ पश्चिमी हथियारों, वर्दी और सैन्य प्रशिक्षण को अत्यधिक शीघ्रता के साथ जोड़ा, क्योंकिएक ऐसे समाज में जहां योद्धाओं का बहुत सम्मान किया जाता था, उनको अच्छे वेतन, पेंशन, भूमि अनुदान और सम्मानित स्थिति की संभावना के साथ नए भर्ती कर्ताओं द्वारा आकर्षित किया जा सकता था । हालांकि, ब्रिटिश सेना के कुछ अधिकारियों को इसकी सेवा में स्थानांतरित कर दिया गया, कंपनी ने ब्रिटेन में अधिकारियों को सीधे कमीशन देने के लिए संरक्षण की एक प्रणाली भी संचालित की। 1809 में, कंपनी ने सैन्य विषयों और भारतीय भाषाओं में अपने कैडेटों को प्रशिक्षित करने के लिए एडिसकोम्बे ,सरे (Addiscombe in Surrey) में एक महाविद्यालय की स्थापना भी की थी। कई अभियानों के दौरान, कंपनी की सेनाओं को भारतीय ‘रियासतों’ की सेनाओं द्वारा सहायता प्रदान की गई। इन राज्यों ने अपनी स्वयं की सेनाएँ रखीं और अक्सर अपने सैनिकों को आदेश देने के लिए कंपनी अधिकारियों को नियुक्त किया। हैदराबाद और ग्वालियर जैसे बड़े राज्यों में, कंपनी ने छोटी सेनाएँ भी रखीं – जिन्हें हैदराबाद एवं ग्वालियर टुकड़ी के रूप में जाना जाता था एवं जो राज्यों की अपनी छोटी सेनाओं के अलावा संचालित होती थीं।
एक अन्य विषय कंपनी द्वारा भारतीय सैनिकों को मिलने वाले वेतन का है। इतिहास में किसी भी समय भारतीय सेना के सिपाही को कंपनी द्वारा वास्तव में कभी भी अच्छा भुगतान नहीं किया गया था। हालांकि मुगलों के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अच्छा भुगतानकर्ता बन गई, जो कि शायद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद केवल सिख साम्राज्य द्वारा प्रतिद्वंद्विता के कारण थी और वह भी थोड़े समय के लिए क्योंकि खालसा सेना का वेतन कंपनी के वेतन का दोगुना था। नियमित वेतन की संभावना ने देश के सभी कोनों से प्रतिभाओं को आकर्षित किया।
कंपनी के राज के दौरान सेना को एक बेहतर अनुदान मिला । पश्चिमी समाज सेना को एक ऐसी संस्था के रूप में देखते हैं जो राष्ट्र को बनाए रखती है। भारत में, औपनिवेशिक राज्य ने सेना को विशेषाधिकार दिए क्योंकि यह ब्रिटिश शासन के लिए आवश्यक था। एक सिपाही का मासिक वेतन 1860 में 7 रुपये, 1895 में 9 रुपये और 1911 में 11 रुपये तय किया गया था। 1860 के दशक में और उसके बाद भारतीय अधिकारी निश्चित रूप से बेहतर स्थिति में थे। घुड़सवार सेना में एक रिसालदार मेजर को 150 रुपये, एक रिसालदार को 80 रुपये और एक जमादार को 50 रुपये महीने का भुगतान किया जाता था। लेकिन ये भी यूरोपीय अधिकारियों को प्राप्त होने वाली राशि की तुलना में असाधारण रूप से कम थे। उदाहरण के लिए घुड़सवार सेना या घुड़सवार तोपखाने के यूरोपीय कर्नल को 1,478 रुपये प्रति माह, लेफ्टिनेंट कर्नल को 1,032 रुपये प्रति माह और मेजर को 929 रुपये प्रति माह का भुगतान किया जाता था। आज के मानकों के अनुसार, उस समय कर्नल को लगभग 8 लाख रुपये के बराबर भुगतान किया जा रहा था (राष्ट्रीय अभिलेखागार, ब्रिटेन के पुराने मुद्रा परिवर्तक के अनुसार, 1,478 रुपये प्रति दिन लगभग 280 पाउंड है, जो लगभग 8 लाख रुपये प्रति माह है)। शीर्ष प्रतिभाओं को आकर्षित न कर पाने के डर के कारण चिंतित कंपनी ने, सिपाहियों के वेतन को 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बढ़ा दिया था। शांति काल में भारतीय सेना के लगभग 40% लोगों को अपनी जमीन तक जोतने के लिए छुट्टी पर जाने की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा, 1914 तक बट्टा जैसे असाधारण भुगतान अतिरिक्त 5 रुपये तय किए गए थे और ब्रिटिश अधिकारियों को अपने सैनिकों पर उपहारों की बौछार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।1890 के दशक तक पंजाब में सैन्य सेवा को भूमि अनुदान प्राप्त करने, औपनिवेशिक सेवा के अन्य रूपों में रोजगार, या विदेश में प्रवास को सक्षम करने के एक तरीके के रूप में देखा गया था। जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो कंपनी राज-युग के विशेषाधिकारों को व्यवस्थित रूप से सशस्त्र बलों से वापस ले लिया गया। तो इस प्रकार, यहाँ हम ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं और ब्रिटिश राज की सेना के भारतीय प्रतिभागियों के बारे में पढ़ते हैं। हमने ब्रिटिश राज के दौरान सेना के वेतन और भत्तों को भी यहां देखा।

संदर्भ–
https://bit.ly/3X1DZ5i
https://bit.ly/3iwvwrJ

चित्र संदर्भ
1. ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों को संदर्भित करता एक चित्रण (Picryl)
2. ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार को संदर्भित करता एक चित्रण (Store norske leksikon)
3. ब्रिटिश हुकूमत को संदर्भित करता एक चित्रण (NDLA)
4. भारतीय विद्रोह 1857-1859, आलुम्बाग की छत पर ब्रिटिश सैनिकों को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)

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