मेरठ कई विविधितताओं का शहर है यहाँ पर कहीं सनातन धर्म के अवशेष हैं तो कहीं बौद्ध के, कहीं जैन तो कहीं इस्लाम यही विविधितता इस शहर को एक माला में पिरोने का कार्य करती है। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित शाहपीर का मकबरा इन्ही में से एक है। शाहपीर अर्थात् रहमत उल्लाह का जन्म रमजान की पहली तिथि को 978 हिजरी (1557 ई.) में मेरठ के शाहपीर गेट पर हुआ था। शाहपीर एक संत थें तथा यही कारण है की प्रत्येक जुम्मेरात को यहाँ पर सूफी गायन का आयोजन भी किया जाता है। शाहपीर का मकबरा वर्तमान में पूर्ण रूप से बनी हुई अवस्था में नही है और ना ही यह कभी पूरा हो सका था। इसके पूरा ना होने के पीछे प्रमुख रूप से दो किंवदंतियाँ यहाँ पर फैली हैं। जैसा की इस मकबरे का निर्माण कार्य नूरजहाँ (जहाँगीर की बीवी) ने शुरू करवाया था तो यह जानना बड़ा विशिष्ट हो जाता है कि आखिर मुगल शासन को क्या कमीं थी जो यह मकबरा पूरा ना हो सका। प्रथम किंवदंति के अनुसार जिस वक्त इस मकबरे का निर्माण करवाया जा रहा था उस वक्त जहाँगीर को लाहौर या कहीं अन्य स्थान पर बंदी बना लिया गया था जिस कारण इसका निर्माण पूरा ना हो सका। द्वितीय किंवदंती के अनुसार जब इस मकबरे का निर्माण हो रहा था उस समय किसी अधिकारी ने इसपर होने वाले खर्च का हिसाब मांग लिया था जिसकारण शाहपीर रुष्ठ हो गयें और उन्होने कहा कि हम संत हैं और संत इतना हिसाब किताब नही रखते। यह एक कारण है जिस वज़ह से इस मकबरे का निर्माण रुक गया और यह कभी पूरी नही हो सकी। शाहपीर का मकबरा मुगलकला की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है। इस मकबरे के छज्जे, जालियाँ, व इसके अपूर्ण गुम्बद के अंदर वाले भाग पर की गयी कलाकृति इस मकबरे के सौन्दर्य को प्रदर्शित करती है। इस मकबरे को बनाने के लिये लाये गये नक्काशीदार पत्थर आज भी यहाँ पर जहाँ तहाँ फैले हुये हैं। मकबरे के सामने एक अन्य छोटा मकबरा बनाया गया है जो कि शाहपीर के भाई का है जिनकी पीढियाँ आज भी यहाँ रहती हैं। मेरठ के इस मकबरे पर कई लोग आते हैं जो यहाँ पर व्यापार का एक साधन मुहैया करा सकते हैं। चित्र में शाहपीर के मकबरे का पूरा चित्र और अंदर का अपूर्ण गुम्बद दिखाया गया है तथा मकबरे में की गयी कलाकारी भी दिखाया गया है।
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