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भारत में कैलेंडर कला ने गाय को केंद्रीय विषय के रूप में क्यों चुना ?

मेरठ

 17-12-2022 12:36 PM
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य

सनातन धर्म में मनुष्य और धेनु (गाय) के बीच माता और पुत्र के स्तर का संबंध माना जाता है। साथ ही, सनातन संस्कृति में गाय विशेष रूप से पूजनीय पशु होने के अलावा मातृत्व और उर्वरता की प्रतीक भी है। भारत में हर दूसरे धार्मिक कलैंडर में आपको गाय का चित्र अवश्य नज़र आ जायेगा, आज हम आपको बतायेंगे कि ऐसा क्यों है?
भारतीय समाज के अभिन्न अंग के रूप में गाय, किसी न किसी रूप में प्रत्येक भारतीय के लिए अत्यधिक उपयोगी साबित होती है। वर्तमान में गाय सनातन धर्म का प्रतीक होने के साथ-साथ पारंपरिक भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में, योजना, भोजन, कृषि कार्यों, सिंचाई, परिवहन, निर्माण सामग्री, ईंधन आदि की आधारशिला बन गई है । वर्षों से गाय हमारे लिए आर्थिक वरदान मानी गई है। अपने विनम्र, सहिष्णु स्वभाव कारण, गाय हिंदू धर्मके मुख्य गुण अहिंसा का उदाहरण मानी जाती है। गाय को पृथ्वी का प्रतीक भी माना जाता है, क्योंकि वह हमें बहुत कुछ देती है फिर भी बदले में कुछ नहीं मांगती है। पोषण के मुख्य स्रोत के रूप में, वह जितना लेती है उससे कई गुना अधिक हमें दे देती है। वह मनुष्य को जीवन देने वाली प्रकृति का प्रतिनिधित्व भी करती है। गाय गरिमा, शक्ति, धीरज, मातृत्व, निस्वार्थ सेवा, कृपा और प्रचुरता का भी प्रतीक है। माना जाता है कि गाय द्वारा प्राप्त पांच उत्पाद (पंचगव्य) अर्थात दूध, दही, मक्खन, मूत्र और गोबर सभी महान शुद्धिकरण प्रदान करते हैं। यज्ञ के बाद, पवित्र स्नान की अपेक्षा गाय के दूध को अधिक पवित्र माना गया है। दुग्ध उत्पाद सभी अनिवार्य संस्कारों और समारोहों के लिए आवश्यक हैं। गाय के दान (गोदान) को सर्वोच्च दान माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार गाय पवित्र और पूजनीय हैं तथा सभी पापों का नाश करने वाली हैं। साथ ही यह भी माना जाता है कि यदि कोई गाय को प्रतिदिन (गौ-ग्रास देता है तो उसे आसानी से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। गाय की अवर्णनीय उपयोगिता के कारण, भारत ने गाय को एक धार्मिक भूमिका प्रदान की है, उसे एक देवी और माता के रूप में पूजनीय स्थान दिया गया है।
हालांकि, गाय के प्रति सम्मान की उत्पत्ति का सटीक पता नहीं लगाया जा सका है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व-ऐतिहासिक काल से ही भारतीयों को यह भावना विरासत में मिली है। सिंधु सभ्यता में पूजा की वस्तुओं के बीच गाय का नहीं, बल्कि बैल का महत्वपूर्ण स्थान था। बैल को गाय के बीच एक "सांस्कृतिक कड़ी" के रूप में देखा जा सकता है।वैदिक हिंदू धर्म में सदैव ही गाय का एक धार्मिक महत्व भी था। इसके अतिरिक्त गाय को सिंधु घाटी सभ्यता के प्राचीन हड़प्पावासियों और आधुनिक हिंदुओं के बीच एक "सांस्कृतिक कड़ी" के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि गाय उनके लिए आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण थी। गाय की पूजा तब से शुरू हुई मानी जाती है जब उपमहाद्वीप में पलायन करने वाले देहाती इंडो-यूरोपीय लोगों की किस्मत उनके झुंडों की जीवन शक्ति पर निर्भर थी। पूर्व-आर्यन गाय पंथ का विकास ऋग-वैदिक आर्यों द्वारा किया गया था, जिन्होंने गाय को विशेष सम्मान दिया था क्योंकि वह दूध देती थी और खेतों में श्रम के लिए अतिरिक्त बैल पैदा करती थी। माना जाता हैकि प्राचीन भारत के संतों (साधुओं) ने गाय को पवित्र घोषित किया ताकि अकाल के समय गायों को वध से बचाया जा सके जिस पर उनके लोगों का अस्तित्व निर्भर था। भारत में गाय के प्रति श्रद्धा वैदिक धर्म से भी अधिक पुरानी मानी गई है"। ऋग्वेद गाय को मारने वाले व्यक्ति के लिए राज्य से निष्कासन जैसे कठोर दंड का प्रावधान करता है ।
यजुर्वेद में भी गाय की प्रशंसा करते हुए बताया गया है: "ज्ञान की दीप्ति की तुलना समुद्र से की जा सकती है, पृथ्वी बहुत विशाल है, इंद्र उससे भी विशाल है, लेकिन गाय की तुलना विश्व की किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती''। एक गाय का शारीरिक अपशिष्ट मूत्र और गोबर का सिद्ध आयुर्वेद औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है तथागाय के गोबर का उपयोग हवन और अन्य समारोह में भी किया जाता है। इस प्रकार एक गाय का शारीरिक अपशिष्ट मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान में भी योगदान कर सकता है। ‘हरिवंश’ में कृष्ण को एक चरवाहे (बाल गोपाल) के रूप में चित्रित किया गया है “एक ऐसा बच्चा जो गायों की रक्षा करता है।" अग्नि पुराण कहता है कि गाय एक शुद्ध और शुभ पशु है। गाय की देखभाल करना, उसे नहलाना और उसे खिलाना प्रशंसनीय कार्य है। मार्कंडेय पुराण में बताया गया है कि संसार का कल्याण गाय पर निर्भर है। वराह पुराण भी गाय की स्तुति में बहुत कुछ कहता है। इसके अनुसार गाय एक दिव्य पशु है। उसके शरीर के सभी अंगों में सभी देवताओं का वास है।
19वीं शताब्दी में जब कैलेंडर कला को राजा रवि वर्मा और बी जी शर्मा जैसे कलाकारों द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था, तब महाभारत और रामायण के पात्रों के साथ-साथ, कैलेंडर कला (Calendar Art) ने गाय को हिंदू धर्म के एक अत्यंत शक्तिशाली और पवित्र चिन्ह के रूप में चित्रित किया। कैलेंडर कला ने गाय को एक राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में प्रेरित किया और औपचारिक संगठनों के साथ-साथ 19वीं शताब्दी के अंत में गाय संरक्षण आंदोलन की शुरुआत भी की।
बी सी शर्मा गाय की कैलेंडर छवि बनाने वाले पहले कलाकारों में से एक थे। 1880 के दशक में चित्रित उनकी “मिल्किंग ए काउ (Milking a Cow)” रचना ने गौ रक्षा आंदोलन की विचारधारा को विनियोजित किया। इस रचना में सभी हिंदू देवताओं को एक गाय में समाहित दिखाया गया है। उस छवि के माध्यम से, गाय के शरीर को परमात्मा के रूप में पुनर्गठित किया गया और पूजा के एक नए स्थान के रूप में पुन: कल्पना की गई। स्वतंत्रता के बाद की अवधि में, भारत के लिए एक एकीकृत और धर्मनिरपेक्ष पहचान और राष्ट्रवाद के सामूहिक विचार की स्थापना के लिए कैलेंडर कला को फिर से उन्मुख किया गया। इसके बाद गाय को भारत माता के रूप से जोड़कर उसे सार्वभौमिक पोषक के रूप में प्रस्तुत किया गया । राजा रवि वर्मा की एक रचना “चौरासी देव दर्शन”, जिसने बी.सी शर्मा की कैलेंडर कला को थोड़ा संशोधित किया था, को 1960 में बड़े पैमाने पर पुन: परिचालित किया गया। इसका मुख्य आकर्षण एक गाय थी जो 85 हिंदू देवताओं के निवास स्थान के रूप में दर्शाई गई थी। सिखों और हिंदुओं के बीच भाईचारा और सद्भाव स्थापित करने के प्रयास ने, 1976 में एक कैलेंडर कला के उत्पादन और प्रसार का नेतृत्व किया, जिसमें 10 सिख गुरुओं को अपने शरीर में समायोजित करने वाली गाय की आकृति को चित्रित किया गया था। गाय के माथे पर खालसा का चिन्ह और उसके थूथन पर भक्ति चिन्ह लगाया गया था। गाय का झुका हुआ सींग गुरुद्वारे की वास्तुकला के लिए एक इशारा था, और सिख धर्म के नेताओं को रणनीतिक रूप से गाय के विभिन्न हिस्सों पर रखा गया था। अहिंसा के प्रतीक के रूप में गाय को संदर्भित करते हुए गांधीजी ने कहा था कि 'गौ रक्षा दुनिया को हिंदू धर्म का अनमोल उपहार है। हिंदुओं को उनके तिलक से नहीं, मंत्रों के सही उच्चारण से नहीं, उनके तीर्थयात्रा से नहीं, जाति के नियमों के सबसे सटीक पालन से नहीं, बल्कि गाय की रक्षा करने के लिए उनकी क्षमता से आंका जाएगा। उन्होंने कहा था कि ‘किसी राष्ट्र की महानता और उसकी नैतिक प्रगति को उस तरीके से मापा जा सकता है जिस तरह से वह अपने जानवरों के साथ व्यवहार करता है।’ उन्होंने यह भी कहा था कि अगर कोई मुझसे पूछे कि हिंदू धर्म की सबसे महत्वपूर्ण बाहरी अभिव्यक्ति क्या है, तो मैं सुझाव दूंगा कि यह गौरक्षा का विचार है।
अंत में कहा जा सकता है कि भारतीय परंपरा में गाय का विशेष स्थान है। गाय एक विशेष रूप से पूजनीय पशु है और मातृत्व और उर्वरता का प्रतीक है। गाय के कैलेंडर, नक्काशी और पोस्टर इसके स्वास्थ्य और प्रचुरता के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व को प्रमाणित करते हैं। आज गाय लगभग हिंदू धर्म का प्रतीक बन गई है।

संदर्भ
https://bit.ly/3BFwJ6i
https://bit.ly/3BCXNDw

चित्र संदर्भ
1. कैलेंडर में चित्रित गौ माता को दर्शाता एक चित्रण (facebook, wikimedia)
2. कामधेनु और ब्राह्मण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. दूध दुहते भारतीय किसान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4 . दक्षिण भारत कर्नाटक, में 15वीं से 17वीं शताब्दी के कला नेल्सन-एटकिंस संग्रहालय में कामधेनु, इच्छा-अनुदान देने वाली गाय, को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. नन्हे कृष्ण और गाय को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. राजा रवि वर्मा की एक रचना “चौरासी देव दर्शन”, को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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