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सर्दियों के दौरान विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीणों के शरीर पर लपेटा गया कंबल, मानो राष्ट्रीय परिधान की भांति शोभा देता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में कंबलो का चलन केवल आज से ही नहीं है, बल्कि 7वीं शताब्दी के चीनी यात्री और विद्वान ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang) ने भी अपनी भारत यात्रा के यात्रा वृतांत में कंबल का उल्लेख किया है। लेकिन आज लोगों को सर्दी से बचाने वाले इस सुरक्षा कवच की मांग में तेज़ी से कमी देखी जा रही है, जिसके कारणों और परिणामों के बारे में आज हम विस्तार से जानेंगे।
वास्तव में “कंबल (Blanket)” नरम कपड़े का एक टुकड़ा होता है, जो उपयोगकर्ता (ओढ़ने वाले) के शरीर को ढंकने के लिए पर्याप्त बड़ा और शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त मोटा होता है तथा जो शरीर की गर्मी को भीतर ही रोककर रखता है।
कंबल के लिए अंग्रेजी शब्द "ब्लैंकेट (Blanket)" एक विशिष्ट कपड़े के सामान्यीकरण से उत्पन्न हुआ है, जो 14 वीं शताब्दी में ब्रिस्टल, इंग्लैंड (Bristol, England) में रहने वाले बेल्जियम के फ्लैडर क्षेत्र (Flanders, Belgium) के बुनकर थॉमस ब्लैंकेट (Thomas Blanket) द्वारा बुनी गई एक भारी नैप्ड ऊनी बुनाई (Napped Woollen Knitting) है।
ब्लैंकेट का एक प्राचीन नाम “कंबल" के रूप में भी दर्ज है। दरसल 629-645 ईसवी में चीनी यात्री और विद्वान ह्वेन त्सांग ने अपनी भारत यात्रा के वृतांत में भेड़ या बकरी के बालों से बनी ऊनी सामग्री का उल्लेख किया जो कपड़ों के लिए एक प्रकार की सामग्री के रूप में उपयोग की जाती थी । इस सामग्री को उन्होंने “कंबल” के रूप में संदर्भित किया । प्राचीन भारतीय साहित्य में भी कंबल के नाम का वर्णन मिलता है। गांधार से भी एक प्रकार का“कंबल” , पांडु-कंबल प्राप्त हुआ था। प्राचीन भारतीय विद्वान पाणिनि ने गांधार के ऊपरी हिस्सों (उड्डियाना) में "पांडु-कंबल" के उपयोग का उल्लेख किया था। प्राचीन समय में मोटे कंबलों का उपयोग किसानों और चरवाहों द्वारा किया जाता था। उनमें से कुछ का उपयोग घोड़ों, हाथियों और बैलों जैसे जानवरों की पीठ ढकने के लिए किया जाता था।
कंबल बनाने के लिए कई प्रकार की सामग्रियों का उपयोग किया जाता है, जिसमें “ऊन” प्रमुख सामग्री होती है। लेकिन हल्के कंबल बनाने के लिए कपास का भी उपयोग किया जा सकता है। ऊन के कंबल कपास की तुलना में अधिक गर्म होते हैं, किंतुअपेक्षाकृत धीमी गति से गर्म होते हैं। सबसे आम प्रकार के कंबल बुने हुए ऐक्रेलिक (Acrylic), बुने हुए पॉलिएस्टर (Polyester), मिंक, कपास, और ऊन से निर्मित होते हैं।
सेनाओं द्वारा कंबलों का उपयोग कई सदियों से किया जाता रहा है। सेना ऊनी कंबलों की सबसे बड़ी एकल उपभोक्ता है। सैन्य कंबल आमतौर पर मोटे और भूरे रंग के होते हैं, जिनमें 20 माइक्रोन (Micron) से अधिक के मोटे रेशे होते हैं। शिशुओं को ठंड से बचाने के लिए विशेष बेबी कंबलों (Baby Blanket) का उपयोग किया जाता है।
महाराष्ट्र, भारत में बने एक पारंपरिक ऊनी कंबल को “घोंगड़ी (Ghongadi)” के नाम से जाना जाता है। ये सदियों पुराने पारंपरिक कंबल करघे (Pit-loom) पर बनाए जाते हैं और जैविक और प्राकृतिक रंगों से रंगे जाते हैं। घोंगड़ी एक पवित्र कंबल के रूप में भी पूजनीय होता है और इसका उपयोग गांवों के सभी पवित्र अनुष्ठानों और सामुदायिक कार्यों में किया जाता है। घोंगाडी कंबल आमतौर पर मोटे और भारी होते हैं, जो पुराने दिनों में ज्यादातर चरवाहों और किसानों द्वारा उपयोग किए जाते थे। ऊनी कंबल 'घोंगड़ी' की कहानी खानाबदोश जीवन शैली की परंपरा जितनी ही पुरानी हो सकती है। हालांकि क्षेत्रीय भिन्नता के कारण कंबल के नाम में परिवर्तन हो सकता है लेकिन एकमत यह है कि यह ऊन, बुनाई के तरीके और डिजाइन की विशेषताओं से बना है।
घोंगाडी कंबल का उल्लेख
एक मराठी लोक गायन परंपरा, जिसे “ओवी (Ovi)” कहा जाता है, में मिलता है । गायन की यही परंपरा धनगरों में भी है जिसे 'घोंगड़ी ओवी' भी कहा जाता है, जिसमें मराठी लोग धनगरों की कहानियों, उत्पत्ति, विकास और जीवन शैली को गीतों के रूप में दोहराते हैं। वे अपने बहादुर पूर्वजों के वीर गीत भी गाते हैं। चरवाहों की परंपरा और उनके ऊनी कंबलों को हम्पी और अन्य विजयनगर मंदिरों की नक्काशी में भी देखा जा सकता है। हम्पी में मंदिरों में चरवाहों की नक्काशियां हैं, जहां चरवाहे को अपने मवेशियों को चराते , अपने मवेशियों के साथ खड़े होते और कभी-कभी अपने सिर को कंबल से ढक कर खुद को बारिश से बचाते हुए दिखाया गया है।
हालांकि, दुर्भाग्य से आज घोंगड़ी निर्माता कम कीमत वाली मशीन से बनी रजाइयों के खिलाफ अकेले लड़ाई लड़ रहे हैं। घोंगडी निर्माण तेलंगाना के सबसे पुराने शिल्पों में से एक है, लेकिन दुर्भाग्य से आज इसे सरकार द्वारा भी बेहद कम समर्थन दिया जाता है। घोंगडी बुनाई एक लंबी प्रक्रिया है। एक छोटी घोंगडी को बुनने में लगभग 15 दिन और बड़ी घोंगडी बुनने में लगभग 20 दिन लग सकते हैं। छोटी घोंगडी की कीमत 6,500 रुपये और बड़ी घोंगडी की कीमत 8,000 रुपये तक होती है। ये पूरी तरह से हस्तनिर्मित होती है। घोंगडी 15-20 से अधिक वर्षों तक अच्छी स्थिति में रह सकती है। लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय समस्याओं और भेड़ दर में गिरावट के कारण बुनकरों की संख्या कम हो रही है। शिल्प के लिए मान्यता की कमी के कारण अगली पीढ़ी इसे अपनी आजीविका के रूप में नहीं अपना रही है। इसी कड़ी में आपने पानीपत का नाम भी अवश्य सुना होगा जो उत्तर भारत में संसाधन संपन्न क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करने के लिए वहां लड़ी गई तीन लड़ाइयों के कारण इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी वर्णित है। लेकिन आज, पानीपत को एशिया के कंबल निर्माण केंद्र के रूप में बेहतर पहचाना जाता है, जो भारत में बने चार प्रकार के कंबलों में से तीन प्रकार का उत्पादन करता है। यहां के ऊनी उद्योग की उत्पत्ति द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शुरू हुई, जब पानीपत में छोटी घरेलू इकाइयां ब्रिटिश सेना को आपूर्ति करती थीं। विभाजन के चरण के दौरान, पाकिस्तान से विस्थापित बुनकर समुदाय पानीपत में बस गए, जिन्होंने 1970 और 80 के दशक में कालीन उद्योग के विकास और 1990 के दशक में कंबल के विकास में योगदान दिया।
21वीं सदी की शुरुआत के साथ, तेजी से फैशन ने बड़े पैमाने पर खुदरा विक्रेताओं को नवीनतम फैशन प्रवृत्तियों की आपूर्ति के लिए सस्ते कपड़ों का उत्पादन करने के लिए मजबूर किया। इसके जवाब में, पानीपत “पूंजी छोड़” (Cast of Capital)' में तब्दील हो गया जहां सूत बनाने के लिए आयातित चिथड़ों का पुनर्चक्रण किया जाने लगा । इस पुनर्चक्रण उद्योग ने दुनिया के कपड़ों के कचरे (sartorial spillover) को साफ करने में अहम भूमिका निभाई। इसमें पूर्वोत्तर भारत के ठेका श्रमिकों द्वारा संचालित 400 से अधिक मिलें शामिल थीं। पानीपत ने अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों द्वारा खरीदे गए घटिया-ऊन राहत कंबलों के 90 प्रतिशत से अधिक की आपूर्ति की।
पानीपत के ऐतिहासिक युद्धक्षेत्रों ने पिछले दो दशकों में पुराने सूत से बने हुए वस्र और पॉलिएस्टर (Polyester) के बीच एक भीषण युद्ध देखा है। पॉलिएस्टर से निर्मित कंबल हल्का, सस्ता, गर्म, अधिक टिकाऊ और कोमल होता है, जो पारंपरिक कंबल के एक तेज विकल्प के रूप में उभरा है। इसलिए, जब विदेशों से कटा-छंटा और फेंका हुआ कपड़ा भारत आया, तो भारत में पुराने सूत से बने हुए कंबलों की मांग जल्द ही समाप्त हो गई।
पानीपत में घरेलू ऊन कंबल उद्योग का उत्पादनकार्य , सर्दियों की मांग को पूरा करने के लिए अगस्त से जनवरी तक चलता है। जब गर्मी के मौसम में कंबलों की मांग में कमी आती है, तो कंबल निर्माता घरेलू सामान और कपड़ों के निर्माण के लिए ऊन की जगह पर सूती धागे का प्रयोग करते हैं । घरेलू ऊन के कंबल तुलनीय गुणवत्ता के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी कंबल को कड़ी टक्कर देते हैं। सरकार ने हाल ही में मेगा इंटीग्रेटेड टेक्सटाइल रीजन एंड अपैरल (Mega Integrated Textile Region & Apparel (MITRA) पार्क योजना की घोषणा की, जो छोटी कपड़ा इकाइयों को बड़े निवेश की ओर आकर्षित करने और रोजगार को बढ़ावा देने में सक्षम बनाएगी।
'कपड़ा और हथकरघा' पर ध्यान केंद्रित करने के लिए 'वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट (One District, One Product)' पहल के तहत पानीपत को चुना गया है। पिछले 20 वर्षों में, पानीपत को ऊनी कंबलों के लिए 'टाउन ऑफ एक्सपोर्ट एक्सीलेंस (Town of Export Excellence)' की उपाधि से भी लाभ हुआ है, जिसने कंबल निर्माताओं को निर्यात प्रोत्साहन के लिए प्राथमिकता के आधार पर वित्तीय सहायता प्राप्त करने की अनुमति दी है।
संदर्भ
https://bit.ly/3Fvm53l
https://bit.ly/3YqHl2H
https://bit.ly/3YliLAn
https://bit.ly/3UXBcIg
चित्र संदर्भ
1. धूप सेकते बुजुर्ग को दर्शाता एक चित्रण (PickPik)
2. कंबल और बेल्ट बुनकरों को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
3. कंबल ओढ़े युवती को दर्शाता एक चित्रण (Look and Learn)
4. कंबल वितरण को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. पारंपरिक ऊनी कंबल “घोंगड़ी को दर्शाता एक चित्रण (amazon)
6. कंबल बुनकरों को दर्शाता एक चित्रण (GetArchive)
7. एक कंबल दिखाने वाले व्यापारी के साथ पुरुष, महिला और बच्चे को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
8. सरकार की PM-MITRA योजना को दर्शाता एक चित्रण (india.gov.in)
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