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कैसे कर रहे हैं हमारे देश के आदिवासी समुदाय पवित्र वनों का संरक्षण?

मेरठ

 22-11-2022 10:45 AM
जंगल

आदिवासी समुदायों की घनिष्ठ भागीदारी के साथ किए गए एक शोध के हालिया निष्कर्ष इस दृष्टिकोण को खारिज करते हैं कि आदिवासी खाद्य प्रणाली स्वाभाविक रूप से पिछड़ी हुई है। इनमें से कई वन-आधारित खाद्य पदार्थ पोषण से भरपूर पाए गए हैं। लगातार सूखे की स्थिति जैसे प्रतिकूल मौसम के दौरान वन आधारित भोजन का महत्व बढ़ जाता है। इसलिए, जलवायु परिवर्तन के कारण भूख और कुपोषण से लड़ने में इसकी भूमिका बढ़ने की संभावना है। इसके साथ ही स्वदेशी और आदिवासी क्षेत्रों में वनों की कटाई की दर काफी कम है, जहां सरकारों ने सामूहिक भूमि अधिकारों को औपचारिक रूप से मान्यता दी है।शोध के इन और अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्षों को वन्य खाद्य विविधता और मात्रा के साथ वन के संबंध पर हाल ही में एक संगोष्ठी (यह संगोष्ठी का आयोजन भुवनेश्वर में किया गया था) में प्रस्तुत किया गया था।कई आदिवासी समुदाय आस-पास के वन क्षेत्रों से पौष्टिक भोजन प्राप्त करते हैं। भोजन की उपलब्धता प्राकृतिक वनों और उनकी समृद्ध जैव विविधता के अस्तित्व और स्वास्थ्य के साथ-साथ लघु वन उपज एकत्र करने के लिए जनजातीय अधिकारों की सुरक्षा से जुड़ी है।
दुर्भाग्य से, इन दोनों कारकों का कई स्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। यह एक कारण हो सकता है कि पोषण योजनाओं की शुरुआत के बावजूद, कई जनजातीय समुदायों के बीच समग्र पोषण की स्थिति में कोई भी सुधार नहीं देखा जा रहा है। वहीं जलवायु परिवर्तन के कारण वन आधारित खाद्य पदार्थों का महत्व और बढ़ने की संभावना है। इसलिए, शेष प्राकृतिक स्रोतों की रक्षा करने की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक हो चुकी है। जब इन विविध वन-आधारित खाद्य पदार्थों तक पहुँचने और उनका उपयोग करने की बात आती है, तो हमें उस ज्ञान के महत्व को पहचानने और उसका सम्मान करने की भी आवश्यकता है, जो आदिवासी समुदायों के पास है। लिविंग फार्म्स द्वारा बताया गया है कि कोंध समुदाय की खाद्य प्रणाली को ज्यादातर गैर-आर्थिक और गैर-व्यवहार्य माना जाता है, लेकिन उनके शोध से पता चलता है कि आदिवासियों और सामाजिक-सांस्कृतिक सेवाओं द्वारा सतत तरीके से एकत्र किए गए कई वन खाद्य पदार्थों की समृद्ध पोषण सामग्री के संदर्भ में इसके बहुआयामी लाभ हैं।वनों से एकत्रित पत्तेदार सब्जियों, कंदों आदि का पोषण विश्लेषण उनके उच्च पोषण मूल्य को दर्शाता है।गांधीरी साग बीटा कैरोटीन (Beta carotene) से भरपूर होता है। मुंडी कांडा और लंगला कांडा आयरन (Iron) और जिंक (Zinc) से भरपूर माने जाते हैं। बौंशो छतु और गांधीरी साग में उच्च स्तर के घुलनशील प्रोटीन (Protein) होते हैं।वहीं हो रहे शोध से यह पता चलता है कि यदि वनों का प्रबंधन मुख्य रूप से व्यावसायिक दृष्टिकोण से किया जाता है, तो आदिवासी समुदाय के लिए इन खाद्य स्रोतों में कमी आने लगती है, जिसका आदिवासी समुदायों के पोषण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।वहीं जंगलों में कुछ पौधे जहरीले भी हो सकते हैं इसलिए वनों के भोजन और पोषण आधार को समझने और उसका उपयोग करने के लिए आदिवासी समुदायों की ज्ञान प्रणाली को समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। आदिवासी समुदायों का परस्पर सुरक्षात्मक संबंधों के बारे में व्यापक दृष्टिकोण है।उनका मानना है कि यदि जंगल है तो वे हैं और वे जंगल को लाभजनक व्यवसाय के रूप से नहीं देखते हैं। वे जंगल को सुरक्षित रखते हैं और उसमें रहने वाले सभी जीवों और वस्तुओं का आदर करने पर विश्वास रखते हैं। वहीं धार्मिक विश्वास के कारण आदिवासियों द्वारा कई पौधों को उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षित किया जाता है कि वे भगवान और देवी के निवास स्थान हैं।
मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित आदिवासी संस्कृति मध्य प्रदेश के डिंडोरी, बालाघाट और मंडला जिलों और छत्तीसगढ़ राज्यों के कवर्धा और बिलासपुर जिलों में दर्ज की गई है। सर्वेक्षण अध्ययन से पता चलता है कि पौधों और फूलों के साथ उनका गहरा संबंध है और वे उन्हें गहराई से प्रभावित करते हैं। आदिवासी पेड़ों और फूलों की पूजा करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि उनमें देवी-देवताओं का वास होता है।केवल इतना ही नहीं कई आदिवासी और स्वदेशी लोगों द्वारा कई पौधों और चावल, मक्का, बाजरा, अनाज, फलियां, फल और सब्जियों जैसी कृषि फसलों की लुप्तप्राय किस्मों का संरक्षण किया गया है, जो भारत के उत्तर-पूर्व, मध्य और प्रायद्वीपीय क्षेत्र में विविध कृषि-पारिस्थितिक जलवायु के तहत उत्पन्न हुए हैं। उदाहरण के लिए चावल की इन स्वदेशी किस्मों में से कुछ जैसे पट्टाम्बी, चंपारा, वलसाना को कुरिच्या, परियार, खासी, जतिन और गारो को आदिवासी समुदाय द्वारा उत्तर पूर्व क्षेत्र - मणिपुर, मेघालय, असम में संरक्षित किया जाता है।
चावल की 150 जंगली किस्में जो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बिहार की संथाल, मुंडा, बिरहोर और गोंड आदिवासी समुदाय द्वारा संरक्षित हैं।उनको फलों, बीजों, कंदों और जड़ों के लिए कई जंगली प्रजातियों पर निर्भर रहना पड़ता है जिनका उपयोग खाद्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इसलिए वे खाद्य पौधों की कटाई में पर्यावरण संरक्षण नियम का पालन करते हैं जो पारिस्थितिक विवेक स्थापित करता है। डायोस्कोरिया एसपीपी (Dioscorea spp) जैसे खाद्य पौधों के कंदों की कटाई तब की जाती है जब बेल की पत्तियां पीली हो जाती हैं और शारीरिक रूप से परिपक्व हो जाती हैं। वह जंगली कंद संबंधित प्रजातियों को नुकसान से बचाने के लिए सावधानी से खुदाई करते हैं। आदिवासियों द्वारा कुछ पौधों की जड़, तना और पत्तियों का चूर्ण बनाकर लेप तैयार किया जाता है और हड्डी के टूटे हिस्से पर लगाया जाता है।वांडा टेसाला (Vanda tessala), अल्टरनेथेरा सेसिल्स (Alternanthera sessiles) जैसे पौधों के तने और पत्तियों और कैसिया एडनाटा (Cassia adnata), सिडा कॉर्डेटा (Sida cordata), बाउहिना पुरपुरिया (Bauhina purpurea) आदि की जड़ों से लेप तैयार करके टूटी हड्डियों पर 10 - 15 दिनों के लिए घाव भरने के लिए बांधा जाता है।आर्थोपेडिक (Orthopedic) उपचार के लिए इन पौधों को प्राकृतिक जंगलों में आदिवासी जड़ी बूटी संबंधी आरोग्यसाधक द्वारा संरक्षित किया जाता है। केवल इतना ही नहीं आदिवासी लोगों द्वारा सदियों से बीमारी से लड़ने के लिए कई पौधों का उपयोग किया जाता आ रहा है और इनका पारंपरिक औषधीय उपयोग में व्यापक स्वीकृति पाई जाती है।इक्विसेटम रामोसिसिमम (Equisetum ramosissimum), आर्जीमोन मैक्सिकाना (Argemone maxicana) जैसे पौधों को सुखाकर, चूर्ण बनाकर त्वचा के संक्रमित हिस्से और घावों पर लगाया जाता है।बाउहिनिया पुरपुरिया (Bauhinia purpurea), सिडा एकुटा (Sida acuta), जेट्रोफा करकस (Jatropha curcus), ग्रेविया हिर्सुटम (Grewia hirsutum), अल्बिजिया लेबेक (Albizzia lebbeck), कैपेरिस डेसीडुआ (Capparis deciduas) जैसे पौधों को मांसपेशियों के दर्द, बुखार के इलाज, सिरदर्द और शरीर की सूजन में उपयोग के रूप में संरक्षित किया जाता है।
फसलों की खेती की स्थानांतरित कृषि झूम प्रथा भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में असम, त्रिपुरा, मिजोरम आदि राज्यों में संजातिया समाजों द्वारा मध्य भारत में यूपी, महाराष्ट्र, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ और दक्षिण भारत के राज्यों, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में प्रचलित है। इस अभ्यास में पेड़ों को काटकर जंगल को साफ किया जाता है और पौधों के जैव भार को जलाया जाता है और एकत्रित राख जो पौधों के आवश्यक पोषक तत्वों का स्रोत होती हैं को खेतों में फैला दिया जाता है। एक वर्ष की खेती के बाद, मिट्टी की उर्वरता के पुनर्जनन के लिए भूमि को कई वर्षों के लिए छोड़ दिया जाता है। इस अवधि के दौरान किसानों द्वारा अन्य भूमि में खेती की जाती है। वहीं आदिवासी जंगल की पूरी तरह से कटाई नहीं करते हैं लेकिन वे बागवानी और कृषि महत्व की कई उपयोगी प्रजातियों जैसे आम, संतरे,गूज़ बेरी, मक्का, गन्ना का उत्पादन करते हैं।भारत के जातीय लोगों द्वारा भी कई अछूते जंगलों की जैव-विविधता को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गई है और आदिवासियों के पवित्र उपवनों में कई वनस्पतियों और जीवों का संरक्षण किया है, अन्यथा ये वनस्पतियां और जीव प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र से गायब हो गए होते।
वहीं उत्तर-पूर्व, मध्य और प्रायद्वीपीय भारत में स्थित पवित्र उपवन प्राकृतिक वन हैं। इसलिए पवित्र उपवनों में सभी प्रकार की मानवीय गतिविधियों का हस्तक्षेप प्रतिबंधित है। वर्तमान परिदृश्य में भारत जैव विविधता में समृद्ध है और आदिवासी लोगों द्वारा जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाई गई है। हालांकि, तेजी से औद्योगिक क्रांति के कारण संरक्षण के प्रयास लंबवत और क्षैतिज दोनों दिशाओं में किए जाने हैं। विविधता का संरक्षण, टिकाऊ प्रबंधन, ऐसे मूल्यवान वनस्पतियों का प्रचार और उनके स्वस्थानी के साथ-साथ एक्स-सीटू (Ex-situ) संरक्षण इस शताब्दी की आवश्यकता है।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3ENl9Ix
https://bit.ly/3EHuv8t
https://bit.ly/3ggcZyX

चित्र संदर्भ
1.सामान लेकर चल रही आदिवासी महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2.पारंपरिक वेश भूषा पहने आदिवासी समुदाय को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3.जंगल में आदवासी परिवार को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4.खेत में काम करती आदिवासी महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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