लोक कथायें, पहेलियाँ, लोकोक्तियाँ आदि समाज के अभिन्न अंग हैं, इनसे समाज के विभिन्न पहलुओं को देखा व समझा जा सकता है। पहेलियों का स्थान भारतीय समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण है तथा इनसे कई कहानियाँ भी उद्धृत हुई हैं, पंचतंत्र में भी पहेलियों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसी ही एक पहेली और उससे सम्बन्धित एक कहानी मेरठ में कई सदियों से चली आ रही है, वर्तमान काल में पहेलियों का रंग मेरठ से हटते जा रहा है पर कहीं-कहीं कोनो में आज भी ये पहेलियाँ जिन्दा हैं। देवर को खाना परोसकर देने के बाद भाभी घड़े से पानी लेने गयी तो पाया कि घड़े में पानी नहीं है। इसे अनुचित समझकर और देवर के कुपित होने की आशंका से भयभीत भाभी ने उसे बातों में लगाना चाहा। भाभी ने कहा: देवर: खाना खाने से पहले मेरी बात बताओ- वही नाम पेड़ का, वही नाम फल का, फल का है कुछ और मेरी बात बताकर देवर, टुकड़ा खाओ तोर। देवर इस पहेली का उत्तर सोचने लगा और भाभी घड़ा लेकर पानी लाने हेतु जाने लगी तभी देवर ने भी अपनी पहेली दाग दी और कहा- आकाश है बाकी झोंपड़ी, पाताल धरे हैं अण्डे। मेरी बात बताकर भाभी, तभी उठाना हण्डे। अब भाभी भी वचनबद्ध हो गयी और दोनों एक-दूसरे की पहेली का उत्तर खोजने लगे। तनिक देर बाद घर में माँ और बेटी भी आ गयीं और दोनों देवर-भाभी के इस असमंजस को आश्चर्य से देखने लगीं। माँ के पूछने पर बेटे ने सारी कथा कह सुनायी। सारी बात सुनकर माँ ने कहा- वाके खाये से हाथी झूमे, तेली पेलै घानी। तू तो भैया रोटी खा लें, ये भर लावे पानी।। इतना सुनकर बेटी से भी चुप न रहा गया और उसने भी कह दिया- एक अचंभा मैंने देखा, सुनले मेरे बीरा। उसी पेड़ पर मैंने देखे, गुड़, बैंगन और जीरा।। चारों व्यक्तियों ने एक दूसरे से जो पूछा उसका उत्तर समान ही है। उत्तर है महुआ। इसी प्रकार से समय व्यतीत करने के लिये व हसीं ठिठोली के लिये पहेलियों का एक बड़ा योगदान हुआ करता था समाज व परिवार में आधुनिकता की आँधी व व्यस्तता में पहेली परम्परा का पूर्ण रूप से लोप हो गया। 1. राजभाषा पत्रिका, मेरठ जनपद की एक कथामूलक पहेली, डॉ रामानन्द शर्मा, रज़ा पुस्तकालय, रामपुर
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