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दास्तानगोई शब्द दो फारसी शब्दों “दास्तान” और “गोई” से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है, दास्तां या दास्तान बयां करना। इस प्रकार यह शब्द कहानी कहने की कला को संदर्भित करता है। यह उर्दू मौखिक कहानी कला का रूप है, जिसकी उत्पत्ति 13वीं सदी में हुई तथा इसकी फारसी शैली 16वीं शताब्दी में विकसित हुई। दास्तां प्रायः मौखिक प्रकृति के होते थे, जो उच्च स्वर में पढ़े जाते थे। इसमें मुख्य रूप से नायक के साहस, जादू और युद्ध की दास्तां बताई जाती थी। इसने दुनिया के हर हिस्से को कवर किया तथा लोगों को नायकों और प्रेमियों की उन कठिनाइयों को बताया, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं देखा। दास्तानगोई के सबसे महत्त्वपूर्ण संदर्भों में से एक पाठ 19वीं सदी का है, जिसमें अमीर हमजा के साहसिक शुरुआती कार्यों के 46 खंड शामिल हैं तथा इसका शीर्षक “दास्तान ए अमीर हमजा” है।
भारतीय उपमहाद्वीप में यह कला 19वीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंची और कहा जाता है कि 1928 में मीर बकर अली के निधन के साथ इसका भी अंत हो गया। किंतु 2005 में इतिहासकार, लेखक और निर्देशक महमूद फारूकी ने दास्तानगोई की परंपरा को पुनर्जीवित किया। वर्तमान समय में इस परंपरा ने एक नया रूप प्राप्त कर लिया है जहाँ जिन्न, परियाँ और तिलिस्म-ए-होशरूबा मौजूद नहीं हैं। दास्तान बयां करने वाले अब मुख्य रूप से अप्रवासियों की रुग्ण स्थिति, उनकी पहचान से सम्बंधित संकट, निर्वासन और जिस मनोवैज्ञानिक आघात से वे गुजर रहे हैं, उसकी दास्तान बयां करते हैं।
इसी प्रकार की दास्तान कनाडा स्थित भारतीय मूल के रंगमंच-कलाकार, कवि, नाटककार तथा दास्तानगोई कलाकार जावेद दानिश भी करते हैं।वे अक्सर अपनी दास्तानगोई कृतियों में अपने अप्रवासी जीवन की कहानी बयां करने के लिए हमारे शहर मेरठ का संदर्भ देते हैं, जैसे वे कहते हैं –"अच्छी भली रोटियां पका रहा था मेरठ में"। तो आइए आज इस वीडियो के जरिए हम उनकी बात सुनें तथा इस पुराने कला रूप का आधुनिकीकरण उन्होंने जिस तरह से किया है, उसकी सराहना करें। "दास्तान हिजरतों की” जावेद दानिश की दास्तानगोई है, जिसे उन्होंने अकलैंड (Auckland) में लाइव प्रस्तुत किया।
संदर्भ:
https://bit.ly/3r1uk0j
https://bit.ly/3DNyz7d
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