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मेरठ की बेगम समरू के समय में व् भारत में कई अन्य बार देखा गया यातनाओं का दुखद दौर

मेरठ

 09-07-2022 08:57 AM
स्पर्शः रचना व कपड़े

मेरठ की रानी बेगम समरू के जीवन में भी एक दौर आया था जब उनको यातनाओं से प्रताड़ित किया गया। जॉर्ज थॉमस (George Thomas), (जिन्होंने 1787 से बेगम समरू की सेवा की थी) ने 1792 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया, क्योंकि बेगम ने जॉर्ज थॉमस के प्रतिद्वंद्वी ली-वासे (Le Vaisseau) से गुप्त रूप से शादी कर ली थी। इसी बीच जार्ज थॉमस ने बेगम का साथ छोड़ कर मराठा जागीरदार के यहाँ पहुँच गये। जहाँ सेना में उन्हें अच्छी जगह मिल गई। जॉर्ज को सरधना के पास एक जागीर प्राप्त हुई, और उन्होंने अपनी छोटी सी सेना को उठाया और प्रशिक्षित किया। 1795 में बेगम ने ली-वासे के कहने पर जार्ज थॉमस के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। बेगम की सेना में फूट पड़ गई, उनकी सेना में कुछ अधिकारी थे जो थॉमस के मित्र थे, उन्होंने रास्ते में विद्रोह कर दिया। बेगम ने अभियान रोक दिया, किन्तु उनकी सेना के तेवर वैसे ही रहे। बेगम और ली-वासे ने फरार होने की योजना बनाई, मगर पकड़े गए। उसके सैनिकों की कमान वाल्टर रेनहार्ड के बेटे ज़फ़रियाब खान को दी गई, जिन्होंने बेगम और उनके फ्रांसीसी पति को गिरफ्तार कर लिया। ली-वासे ने तो ख़ुदकुशी कर ली, पर बेगम इस प्रयास में नाकाम रहीं, उन्हें बंदी बना लिया गया और जागीर भी चली गई। हालांकि इस घटना के कई संस्करण है, कुछ कहते है कि ली वासे ने खुद को मार डाला और बेगम ने खुद की आत्महत्या का नकली प्रयास करने की कोशिश की। हालांकि, सालूर नाम के एक सहानुभूतिपूर्ण फ्रांसीसी अधिकारी द्वारा उन्हें घर में नजरबंद किए जाने से पहले उनके कुछ क्रोधित सैनिकों द्वारा पकड़ लिया गया था और प्रताड़ित किया गया, उन्होंने अपने ही सैनिकों द्वारा दी गई यातनाओं का सामना करना पड़ा।
भारतीय उपमहाद्वीप में, यातना का एक लंबा इतिहास रहा है। इतिहास के तीन महत्वपूर्ण चरणों अर्थात प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत और ब्रिटिश भारत के दौरान प्रचलित यातना और अमानवीय दंड बीते दर्दनाक दिनों की याद दिलाते हैं। प्राचीन भारत में दंड के लिए न्यायशास्त्र का उपयोग किया जाता था, जैसा की हम जानते ही है कि हिंदुओं के प्रमुख पवित्र चार वेद हैं ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद, और साम वेद। ये विभिन्न कालखंडों की रचना हैं, जिनके बीच काफी समय का अंतराल है। इन्हीं वेदों की साहित्यिक परंपराएं धर्मशास्त्र के संकलन के प्रमुख स्रोतों में से एक हैं। धर्मशास्त्र धर्म के नियमों को निर्धारित करने वाली प्राचीन संस्कृत रचनाएँ हैं। संक्षेप में, इसमें मनुष्य के आचरण के नियम हैं। धर्मशास्त्र के लेखकों में, मनु को सबसे प्रमुख के रूप में स्वीकार किया जाता है। मनु दंड के चार रूपों की बात करते है: वाक-दंड (चेतावनी), धिक्दंड (निंदा), धनदंड (आर्थिक दंड जैसे जुर्माना या संपत्ति की जब्ती) बधादंडा (सभी प्रकार के शारीरिक दंड सहित मृत्युदंड)। उस समय बधादंड या शारीरिक दंड के कारण कई लोगों को यातनाएं दी जाती थी, इसमें पिटाई, शरीर के अंगों को अलग कर देना, नेत्रहीन क्र देना, मृत्युदंड, अपराधी के कान के छेद में गर्म तेल डालना आदि शामिल था। भारतीय न्यायशास्त्र में, न्याय देना और सजा देना संप्रभुता के प्राथमिक गुणों में से एक था। राजा राज्य की न्यायपालिका का प्रमुख भी था, और यातनाएँ निष्पादन के तरीकों से जुड़ी थीं। इस समय ऐसे विभिन्न तरीके थे जिनके द्वारा सरलता के साथ मौत की सजा दी जा सकती थी, जैसे की हाथी द्वारा मौत रौंदना, जलाना, भूनना, टुकड़े-टुकड़े करना, अपराधी के मुंह में पिघला हुआ गर्म लोहे को डालना आदि। कुल मिलाकर, दुनिया भर की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की तरह, प्राचीन भारत में, कठोर दंड का उपयोग जुस टैलियोनिस (Jus talionis) पर आधारित था जिसे पुरातन विधानों में सार्वभौमिक रूप से दर्शाया गया है। अमानवीय दंड मध्यकालीन काल (1206-1806 ईस्वी) के दौरान विभिन्न मुस्लिम राजवंशों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया।
भारत में मुस्लिम शासन तेरहवीं शताब्दी में मजबूती से स्थापित हुआ और अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत तक फला- फूला। इस दौरान मुस्लिम शासकों द्वारा इस्लामी सिद्धांतों और नियम कानून के दावों के बावजूद उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सनक के आधार पर दंड दिया। अपराधियों को हाथियों के पैरों के नीचे रौंदना उस समय आम बात थी। जहाँगीर के शासनकाल के दौरान, एक डकैत, जिसे पहले सात बार दोषी पाया गया था,उसको मरते दम तक हर एक अंगों को फाड़ा गया था। शाहजन यदि कोई अधिकारी न्याय करने में विफल हो जाता था तो वो उसको जहरीले सांपों से दंडित करता था। मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासनकाल के दौरान, निंदा करने वाले व्यक्तियों को अदालत के पहले द्वार के बाहर ही मार दिया जाता था जहां उनके शरीर तीन दिनों तक खुले में पड़े रहते थे। इस काल में कैदियों की स्थिति आम तौर पर थी दयनीय थी। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान ब्रिटिश नियंत्रण में भातर था, अंग्रेजी अदालते बंगाल, बिहार और उड़ीसा के प्रेसीडेंसी शहरों में काम कर रहे थे जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के कारखाने स्थापित किए गए थे। 1750 के बाद से, यातना के कई प्रावधान धीरे-धीरे यूरोप के आपराधिक कोड से हटाए जा रहे थे। अंग्रेजों ने अंग-भंग की सजा की अमानवीय बताया और अक्टूबर 1791 के गवर्नर जनरल की कार्यवाही के तहत, अंग-भंग की सजा को कठोर कारावास से बदल दिया गया और प्रत्येक अंग को सात साल की सजा के तौर पर गिना गया। इस दौरान कई क्रूर प्रथाओं को मिटाने के प्रयास किये गए, क्योंकि यूरोपीय लोगों ने न्याय के लिए मानवता के सभ्य मानकों को लागू करने की इच्छा जाहिर की। ब्रिटिश शासन के लिए नैतिक, सभ्य कानून के शासन का विचार महत्वपूर्ण था। लेकिन स्थिति जैसी दिख रही थी वैसी थी नहीं, ब्रिटिश राज के दौरान कोड़े मारने और जीवन भर के लिए कारावास दोनों का इस्तेमाल अक्सर किया जाता था। कोड़े मारना भारतीय दंड संहिता 1860 के तहत नहीं बल्कि 1864.75 में पारित एक अधिनियम के प्रावधानों के तहत लगाया गया था। संक्षेप में, अंग्रेजों ने मानवतावाद की आधुनिक भावना के साथ भारतीय दंड संहिता की शुरुआत की, लेकिन स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने यातनाओं की सारी हदे पार कर दी थी। नृशंस जलियाँवाला बाग हत्याकांड को कैसे भूलाया जा सकता है। उस समय स्वतंत्रता सैनानियों को तोपों से उड़ा देना, गोली मार देना, कोड़े मारना, जीवनभर के लिए दंड देना, कारावास, कठोर कारावास और मनमाने ढंग से मौत की सजा आदि जैसी क्रूर और अमानवीय यातनायें दी जाती थी ।
यातना को आम तौर पर एक कैदी पर जानबूझकर;गंभीर दर्द या पीड़ा देने के रूप में परिभाषित किया जाता है, अधिकतर देशों में यातना देने पर प्रतिबंध भी लगाया गया है, उन्नीसवीं सदी के अंत तक, यातना देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों द्वारा निंदा की जाने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी अत्याचारों से स्तब्ध, संयुक्त राष्ट्र ने 1948 मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा तैयार की, जिसने यातना को प्रतिबंधित किया। यातना ने मानवाधिकार आंदोलन के आरंभ को प्रेरित किया। 1970 के दशक की शुरुआत में, एमनेस्टी इंटरनेशनल (Amnesty International ) के अंतरराष्ट्रीय निषेध के बावजूद यातना के खिलाफ एक वैश्विक अभियान शुरू किया, और अंततः 1984 में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर (United Nations Convention against Torture ) की ओर अग्रसर हुआ।
यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या सजा के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Convention), यातना की व्यापक परिभाषा प्रदान करता है। यातना को अपराधी को जानबूझकर गंभीर दर्द या पीड़ा (चाहे वह शारीरिक या मानसिक हो) देने के रूप में परिभाषित किया गया है। इस कन्वेंशन के अंतर्गत यातना को एक दण्डित अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। यह कन्वेंशन राज्यों को अपने क्षेत्राधिकार के अंदर किसी भी क्षेत्र में यातना को रोकने के लिये प्रभावी उपाय करने की आवश्यकता पर बल देता है, साथ ही यह ऐसे लोगों को जिनके संबंध में यह विश्वास है कि जहाँ भी जाएंगे ऐसी ही समस्या उत्पन्न करेंगे, को किसी भी देश में परिवहन के लिये प्रतिबंधित भी करता है। यह परिभाषा सरकारी कर्मियों, कानून प्रवर्तन कर्मियों, चिकित्सा कर्मियों, सैन्य कर्मियों जैसे आधिकारिक क्षमता में अभिनय करने वालों द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अत्याचार को स्पष्ट रूप से सीमित करती है। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान देखा गया की युद्ध में युद्धबंदियों के खिलाफ इतनी क्रूरता दिखाई जाती है की जिसे सुनने भर से दिल दहल जाता है। इस उद्देश्य से जिनेवा में यूरोपिये देशों के साथ मिलकर युद्ध बंनदियों के लिए अधिकार तय किये, इसी लिए इसे जिनेवा कन्वेक्शन नाम (Geneva Conventions) दिया। जेनेवा समझौता मुख्य रूप से युद्धबंदियों के मानवाधिकारों को बनाये रखने के लिए बनाया था ताकि युद्ध के दौरान शत्रु देश द्वारा बंदी बनाये गये सैनिकों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाये। जेनेवा समझौते में चार संधियां और तीन अतिरिक्त प्रोटोकॉल (मसौदे) शामिल हैं। यह संधि युद्ध बंदियों के मानवाधिकारों का संरक्षण करती है।
मानवता को बरकरार रखने के लिए पहली संधि 1864 में हुई थी, इसमें युद्ध के दौरान घायल और बीमार सैनिकों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई। इसके बाद दूसरी संधि 1906 में हुई इसमें युद्ध के दौरान समुद्र में घायल, बीमार और जलपोत के सैन्य-कर्मियों की रक्षा और अधिकारों की बात की गई, और तीसरी संधि 1929 में हुई थी जो कैदियों को उचित और मानवीय उपचार देने के बारे में बात करती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1949 में 196 देशों ने मिलकर चौथी संधि की थी जो कि अब तक लागू है, यह कब्जे वाले या युद्ध वाले क्षेत्र के साथ-साथ नागरिकों के संरक्षण की बात कहता है।

संदर्भ:
https://bit.ly/3ynBTkZ
https://bit.ly/3yqg1FJ
https://bit.ly/3Pbji2j
https://bit.ly/3bYSNit

चित्र संदर्भ

1. बेगम समरूऔर यातना को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. बेगम समरू की छवि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. यातना को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. भारतियों पर की गई यातना को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. कैद में मृत कैदी के कंकाल को दर्शाता एक चित्रण (flickr)

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