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"हमें सबसे पहले जनजातियों को पिछड़ा मानने के पूर्वाग्रह को छोड़ना होगा। प्रत्येक जनजाति की एक समृद्ध
और जीवंत सांस्कृतिक परंपरा है। हमें उसका सम्मान करना चाहिए। "उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू
कहते है कि जनजातीय समाज अपने स्वभाव से ही संस्कृति, परम्परा को सँवारते आ रहे हैं। हर एक सभ्य
समाज की यह सर्वोपरि आवश्यकता है कि वह अपनी जनजातीय संस्कृति, परम्परा आख्यान, मिथक, विश्वास को
कायम रखे। समय-समय पर देश और दुनिया के संवेदनशील तथा गुणी लेखकों ने जनजातीय समाज के सरल
और गूढ़ रहस्यों को समझने के प्रयास किया हैं। उन्हीं में से एक है वेरियर एल्विन (Verrier Elwin), इनके
अध्ययन हमारी मूल्यवान सम्पदा हैं। भारतीय जनजातियों पर शोध करने वाले मानवशास्त्रियों में वेरियर
एल्विन का विशिष्ट स्थान है। भारत में जनजातीय संस्कृतियों पर अग्रणी शोधकर्ताओं में से एक, वेरियर
एल्विन की विरासत 26 से अधिक पुस्तकों, कई लेखों और 10,000 से अधिक श्वेत-श्याम (black and white)
तस्वीरों तक फैली हुई है, जो उन जनजातीय संस्कृतियों का दस्तावेजीकरण करती हैं, जिनके संपर्क में वह भारत
में मध्य और उत्तर पूर्व के राजनीतिक परिवर्तन के समय आए थे।
डॉ. एल्विन का जन्म ब्रिटिश पश्चिम अफ्रीका (British West Africa) में हुआ था। एलविन ने ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय के मर्टन कॉलेज (Merton College of Oxford University ) से अंग्रेजी में सम्मान के साथ
स्नातक किया, और धर्मशास्त्र में आगे की पढ़ाई के बाद, वे एक मिशनरी बन गए और 1927 में भारत के लिए
रवाना हो गए। वे 1927 में एक मिशनरी के रूप में भारत आए थे तथा पुणे में क्रिश्चियन सर्विस सोसाइटी में
शामिल हुए। वेरियर एल्विन इंग्लैंड से भारत मुख्यतः मिशनरी कार्य के लिए आए थे, मगर अपने अंतर्द्वंद्वों,
गांधी जी के विचार और सानिध्य, जनजातियों की स्थिति, मिशनरियों के कार्यों के तरीकों को देखकर उनके
विचार बदल गए। फिर उन्होंने जनजातियों के बीच रहकर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करने का
निश्चय किया; और इसी दौरान अपने विख्यात मानवशास्त्रीय शोध कार्य किए।
देश के लाखों लोगों की स्थिति
में सुधार के लिए समर्पित एक आम आदमी के रूप में, डॉ एलविन उस समय मध्य भारत गए, जो उपमहाद्वीप
के सबसे गरीब और सबसे उपेक्षित क्षेत्रों में से एक था। वहाँ वह गोंड जनजातियों, आदिवासियों के पास गए, जो
कि रीति-रिवाजों और संस्कारों से समृद्ध थे। वह शामराव हिवाले के नाम से एक बहुत ही सक्षम स्वयंसेवक से
मिले और उन्होंने मध्य भारत (आज का मध्य प्रदेश) की गोंड जनजाति का अध्ययन किया। एल्विन ने कोसी
नाम की एक राज गोंड आदिवासी लड़की से शादी की। अपने शोध कार्यों के कारण वह भारतीय जनजातीय
जीवनशैली और संस्कृति पर बड़े विद्वानों में से एक बन गए खासकर गोंडी लोगों के बीच काफी मशहूर हुए।
गोंडी, गोंड या कोइतूर एक भारतीय जनजातीय समूह हैं। वे भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में से एक हैं।
वे मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, बिहार और ओडिशा राज्यों में फैले हुए
हैं। उन्हें भारत की सकारात्मक भेदभाव की प्रणाली के उद्देश्य से अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध
किया गया है। इनकी अपनी गोंडी भाषा है, जो द्रविड़ी भाषा परिवार से है। द्रविड़ गोंडी भाषा तेलुगु से संबंधित
है। भारत की 2011 की जनगणना में लगभग 2.98 मिलियन गोंडी भाषी दर्ज किए गए थे। हालांकि, कई गोंड
हिंदी, मराठी, उड़िया और तेलुगू जैसी क्षेत्रीय रूप से प्रमुख भाषाएं बोलते हैं।
गोंड शब्द की उत्पत्ति के बारे में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है। संभवत यह शब्द बाहरी लोगों द्वारा इस
जनजाति को संदर्भित करने के लिए प्रयोग किया जाता था। कुछ लोग मानते हैं कि इस शब्द की उत्पत्ति कोंडा
शब्द से हुई है जिसका अर्थ है पहाड़ी। गोंड स्वयं को कोइतूर कहते हैं, जिसे औपनिवेशिक विद्वान खोंड के स्व-
पदनाम कुई से संबंधित मानते थे।
गोंडों की उत्पत्ति आज भी बहस का विषय बनी हुई है। कुछ लोगों ने दावा किया है कि गोंड असमान
जनजातियों का एक समूह था जिन्होंने शासकों के एक वर्ग से मातृभाषा के रूप में प्रोटो-गोंडी (proto-Gondi)
भाषा को अपनाया था, जो मूल रूप से विभिन्न पूर्व-द्रविड़ भाषाओं को बोलते थे। आरवी रसेल (R. V. Russel )
का मानना था कि गोंड दक्षिण से गोंडवाना में आए थे। गोंडों का पहला ऐतिहासिक संदर्भ कुछ मुस्लिम लेखक
14 वीं शताब्दी में गोंड जनजाति के उदय के रूप में चिह्नित करते हैं। विद्वानों का मानना है कि गोंडों ने
गोंडवाना में शासन किया, जो अब पूर्वी मध्य प्रदेश से लेकर पश्चिमी ओडिशा तक और उत्तरी आंध्र प्रदेश से
उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने तक फैला है, गोंड लोगों ने 13 वीं और 19 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना
में शासन किया था।
गोंड लोगों ने चार राज्यों में शासन किया और वे गढ़ा-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला हैं। उन्होंने अपने
शासनकाल के दौरान कई किलों, महलों, मंदिरों, टैंकों और झीलों का निर्माण किया। गोंडों का पहला राज्य चंदा
का था , जिसकी स्थापना 1200 में हुई थी, अगला गढ़ा राज्य था, बाद में खेरला और देवगढ़ राज्यों की स्थापना
हुई। 16 वीं शताब्दी के अंत तक गोंडवाना राजवंश जीवित रहा। गढ़ा-मंडला अपनी योद्धा-रानी, रानी दुर्गावती
के लिए प्रसिद्ध है, जिन्होंने 1564 में अपनी मृत्यु तक मुगल सम्राट अकबर के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। तब
मंडला पर उनके बेटे बीर नारायण का शासन था, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ अपनी मृत्यु तक लड़ाई लड़ी थी।
देवगढ़ की स्थापना 13वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि जटबा नामक एक मुगल ने
एक मंदिर उत्सव के दौरान पिछले शासकों को मार डाला था।
आइन-ए-अकबरी में बताया गया है कि, देवगढ़ में
2000 घुड़सवार, 50,000 पैदल और 100 हाथी थे और जटबा नामक एक सम्राट द्वारा शासित था। मुगलों
द्वारा कुछ समय तक इन राज्यों पर शासन किया गया, लेकिन अंततः, गोंड राजाओं को इन्हे वापस कर दिया
गया और वे केवल मुगल आधिपत्य के अधीन थे। 1740 के दशक में, मराठों ने गोंड राजाओं पर हमला करना
शुरू कर दिया, जिससे राजा और प्रजा दोनों मैदानी इलाकों से जंगलों और पहाड़ियों में शरण लेने के लिए भाग
गए। गोंड राजाओं के क्षेत्र पर मराठाओं का कब्जा तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध तक जारी रहा, इसके बाद अंग्रेजों
ने शेष गोंड जमींदारों पर नियंत्रण कर लिया और राजस्व संग्रह पर कब्जा कर लिया। औपनिवेशिक शासन के
दौरान, गोंडों को औपनिवेशिक वन प्रबंधन प्रथाओं द्वारा अधिकारहीन रखा गया। 1910 का बस्तर विद्रोह,
औपनिवेशिक वन नीति के खिलाफ आंशिक रूप से सफल सशस्त्र संघर्ष था, जिसने बस्तर के मड़िया और
मुरिया गोंडों के साथ-साथ इस क्षेत्र की अन्य जनजातियों के लिए जंगल तक पहुंच से वंचित कर दिया। 1920
के दशक की शुरुआत में, हैदराबाद राज्य के आदिलाबाद के एक गोंड नेता कोमाराम भीम ने निज़ाम के खिलाफ
विद्रोह किया और एक अलग गोंड राज की मांग की। उन्होंने ही जल, जंगल, जमीन का प्रसिद्ध नारा गढ़ा, जो
आजादी के बाद से आदिवासी आंदोलनों का प्रतीक रहा है।
गोंड समूह अपने रीति-रिवाजों व परम्पराओं से बंधा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक कई परम्पराओं को आज
भी निभाते चले आ रहे हैं। प्राचीन गोंड कई खगोल विज्ञान विचारों पर विश्वास करते थे। सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र और
मिल्की वे (Milky Way) के लिए उनके अपने स्थानीय शब्द थे। अधिकांश गोंड अभी भी प्रकृति पूजा की अपनी
पुरानी परंपरा का पालन करते हैं। लेकिन भारत के अन्य जनजातियों की भांति उनके धर्म पर हिंदू धर्म का
महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। इनके मूल धर्म का नाम “कोया पुनेम” (Koyapunem) है, जिसका अर्थ होता है- “प्रकृति
का मार्ग”। कुछ गोंड सरना धर्म का पालन भी करते हैं। कई गोंड आज भी हिंदू धर्म का अनुसरण करते हैं और
विष्णु तथा अन्य हिंदू देवी देवताओं की पूजा करते हैं। गोंड लोक परंपरा में बारादेव के नाम से जाने वाले एक
उच्च देवता की पूजा की जाती है। गोंडी लोगों के पास रामायण का अपना संस्करण है जिसे गोंड रामायणी के
रूप में जाना जाता है। ‘करमा’ गोंडों का मुख्य नृत्य है। पुरुषों द्वारा किया जाने वाले सैला नृत्य का भी चलन
गोंड जनजाति में है। सिर के साफे में मोर पंख की कलगी और हाथ में डंडा या फारसा इन नृत्य का मुख्य
आकर्षण है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3QV5N8W
https://nyti.ms/3xXyZDp
https://bit.ly/3ynRD8U
चित्र संदर्भ
1. भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में से एक, गोंड जनजाति की संस्कृति को दर्शाता एक चित्रण (StageBuzz)
2. एक आदिवासी गांव (गोंडी जनजाति), उमरिया जिला, की महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. गोंडों द्वारा सैला और कर्मा नृत्य को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. गोंडी धर्म का प्रतीक और राज्य चिन्ह को दर्शाता एक चित्रण (facebook )
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