मेरठ की रानी बेगम समरू की साहसिक कहानी

मेरठ

 11-05-2022 12:10 PM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

हमारे शहर मेरठ से 24 किमी की दूरी पर स्थित सरधना का विश्वप्रसिद्ध गिरजाघर, कारीगरी का अदभुत नमूना तो है ही, साथ ही यह अपने भीतर एक ऐसी दिलेर महिला “बेगम समरु” की कहानी भी संजोए है, जो औपनिवेशिक काल के दौरान चार हजार से ज्यादा लड़ाकों को लीड करती हुई, पूरे सरधना की जागीरदार बन गई। बेगम समरु का एक तवायफ से जागीरदार बनने का सफर न केवल साहसिक है, बल्कि फ़िल्मी भी लगता है।
1818 से 1836 ई. के बीच की अवधि को, शांति और समृद्धि के कारण मेरठ मंडल के स्वर्ण युग (Golden Age) के रूप में चिह्नित किया जाता है। मेरठ का स्वर्णिम युग बेगम समरू के शासन के दौरान अपने चरम पर पहुंच गया था। बेगम ने राजस्व प्रशासन, पुलिस, जेल प्रशासन, सैन्य नवाचारों के साथ-साथ अपनी जागीर में लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार और एक ऐसे ग्रामीण इलाकों में कानून- व्यवस्था बनाए रखने के लिए, कई सकारात्मक बदलाव किए। बेगम का मानना था की, “राजा या रानी की असली महिमा उसके प्रभुत्व की भौतिक सीमा से नहीं, बल्कि नैतिक प्रगति से निर्धारित होती है!” बेगम ने काश्तकारों की मदद करने के लिए, ऐसे साधनों को पेश करने की कोशिश की, जिससे भूमि की उपज बढ़ सके। उनकी जागीरों में किसानों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए, पुलों और सड़कों का निर्माण किया गया। जरूरतमंद किसानों को तरक्की ऋण वितरित किया गया। इसके साथ ही आपदा की स्थिति में राजस्व की छूट भी दी गई थी।
बेगम समरू का असली नाम फजराना था और उनका जन्म मेरठ से 30 मील उत्तर-पश्चिम में कुटाना मेंलगभग 1750-51 के बीच हुआ था। वह एक सैय्यिदिनी थी, और उनके पिता लुफ्त अली खान एक कुलीन व्यक्ति थे, और आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर थे। लुफ्त अली खान ने दो बार शादी की और फजराना उनकी दूसरी पत्नी से प्राप्त संतान थी। महज छह साल की उम्र में ही छोटी सी बच्ची फजराना ने अपने पिता को खो दिया, जिसके बाद उसकी मां, उसे अपने साथ लेकर दिल्ली पहुंच गई।
दरिद्रता से बचने के और आजीविका कमाने के लिए, फजराना, नाचौनियों (Dancers) में शामिल हो गई। इसी दौरान समरू भरतपुर में वर्ष 1765 के अंत में या उसके आसपास जनरल वाल्टर रेनहार्ड (GeneralWalter Reinhardt Sombre) के संपर्क में आईं, और उनकी जीवन साथी बन गई! वाल्टर रेनहार्ड्ट सोम्ब्रे 1760 के दशक से भारत में एक साहसी और भाड़े के यूरोपीय सैनिक थे। लगभग 1767 में, जब वे 42 वर्ष के थे, तब से उन्होंने 14 वर्षीय फरज़ाना (बेगम समरू) के साथ रहना शुरू कर दिया था। 1778 में जनरल की मृत्यु के बाद, उन्हें वाल्टर रेनहार्ड की सरधना विरासत, जागीर में मिली और उन्होंने स्थायी रूप से वहीं रहने का फैसला किया।
बेगम की पूरी जागीर में मुजफ्फरनगर से अलीगढ़ तक फैले गंगा के दोआबंद सहित सरधना, करनाल, बुढाना, बरनावा, बड़ौत, कुटाना और टप्पल के परगना क्षेत्र शामिल थे। इस जागीर का प्रमुख सीट परगना और प्रशासन की सीट सरधना थी। परगने में 332 गाँव शामिल थे। इन परगनाओं के अलावा उनके पास कुछ ट्रांस-यमुना सम्पदाएँ (Trans-Yamuna Estates) भी थीं। इस क्षेत्र में उनकी संपत्ति में दिल्ली से लगभग 14 मील दूर, लगभग 70 गांव भी शामिल थे। हालांकि बेगम खुद को एक सामंती संप्रभु (Feudal Sovereign) कहती थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कभी भी यह उपाधि नहीं दी। बेगम ने अपनी पूरी जागीर को आठ परगना में बांटा था, और सभी गांव इसकी इकाई थे। इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में चौधरी, कानूनगो, जमींदार, लंबरदारों का काम निश्चित राजस्व का भुगतान करना और कानून और व्यवस्था बनाए रखना था। ग्राम पंचायतों या जाति पंचायतों में कानूनी मामलों का फैसला किया जाता था।
उनके पास विरासत में मिली विशाल सेना भी थी! वर्ष 1836 में उनके सैनिकों की संख्या 4246 थी। इसमें छह बटालियन, अंगरक्षक, अनियमित घुड़सवार, सेना और तोपखाने में (इन्फैंट्री-2946, बॉडीगार्ड-266, कैवेलरी-245, आर्टिलरी-789) शामिल थे। ये बटालियन अच्छी तरह से सशस्त्र (armed) थीं। बेगम ने लगभग 100 विषम यूरोपीय (european) लोगों और लगभग 4,000 सैनिकों के सर्वोच्च कमांडर के रूप में अपना शासन शुरू किया! वह सरधना में, पगड़ी पहनकर और हुक्का पीते हुए अदालत का आयोजन करती थी। उन्होंने 1781 में बेवजह कैथोलिक धर्म अपना लिया और नया नाम जोआना नोबिलिस सोम्ब्रे (Joanna Nobilis Sombre) प्राप्त किया।
हालांकि इसके बावजूद उन्होंने मुगल पोशाक और शिष्टाचार बनाए रखा, सिवाय इसके की, कभी-कभी वह पर्दा नहीं करती थी और अपने यूरोपीय अधिकारियों के साथ भोजन करती थी। उन्होंने मेरठ में एक बड़ा और आलीशान घर बनाया गया था। यह मेरठ कॉलेज के दक्षिण में स्थित है। बेगम समरू एक उदार शासक थीं। जहां तक ​​सार्वजनिक सेवाओं में नियुक्ति/पदोन्नति का संबंध था, उनके लिए हिंदू, मुस्लिम या ईसाई के बीच कोई अंतर नहीं था। सेना को छोड़कर, जागीर की प्रशासनिक मशीनरी पूरी तरह से हिंदुओं और मुसलमानों के हाथों में थी। उसके शासनकाल में संगीत को सक्रिय रूप से संरक्षण दिया गया था और वह खुद नृत्य की बहुत बड़ी शौकीन थी। वह विशेष रूप से मेरठ में अपनी कोठी में मुशायरा (काव्य संगोष्ठी) आयोजित करती थी। कई यूरोपीय यात्रियों ने ऐसे अवसरों पर धन के भव्य प्रदर्शन का एक सुरम्य वर्णन भी दिया है।
उन्होंने युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व किया, और अनेक युद्धों को जीता। तत्कालीन शासकों में में उनका खौफ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था! एक उदाहरण के तौर पर 1788 में, रोहिल्ला सरदार गुलाम कादिर ने जब दिल्ली पर कब्जा कर लिया, और शाही परिवार को अपने खजाने के ठिकाने का खुलासा करने के लिए प्रताड़ित किया। यहां तक की उसने गुस्से में आकर बादशाह को अंधा भी कर दिया। लेकिन फिर युद्ध में बेगम की इंट्री हुई, और उन्होंने, कादिर के तोपखाने तथा सैनिकों का सामना करते हुए, उसे दिल्ली से भगा दिया। आगे चलकर 1787 में एक आयरिश डॉकवर्कर (Irish dockworker) से भारतीय भाड़े के सिपाही (mercenary) बने, जॉर्ज थॉमस (George Thomas) के साथ भी उनकी नजदीकियां बढ़ी और एक दूसरे के साथ मिलकर दोनों की साझेदारी खूब फली-फूली और उन्होंने कई लड़ाईयां जीतीं। इसी बीच बेगम को 40 साल की उम्र में जॉर्ज थॉमस से प्यार हो गया। और उन्होने आपस में शादी कर ली! जनवरी 1836 में बेगम समरू की मृत्यु हो गई। और उन्हें सरधना में ही बेसिलिका के नीचे दफना दिया गया।

संदर्भ
https://bit.ly/3smu1y8
https://bit.ly/3yoGtRz

चित्र संदर्भ
1  बेगम समरू के दरबार को दर्शाता एक चित्रण (SnappyGoat)
2. बेगम समरू की छवि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. सरधना चर्च में बेग़म समरू के सैनिकों एवं दरबारियों की मूर्तियाँ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. बेगम समरू की छवि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. जॉर्ज थॉमस (George Thomas) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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