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जूट उत्पादन एक श्रम प्रधान उद्योग है और यह अकेले पश्चिम बंगाल में लगभग दो लाख श्रमिकों
और देश भर में 4 लाख श्रमिकों को रोजगार प्रदान करता है। जूट ही एकमात्र ऐसी फसल है, जिसमें
अंतिम फसल से पहले ही कमाई आने लगती है।बीजों को अप्रैल और मई के बीच लगाया जाता है
और जुलाई और अगस्त के बीच फसल को काटा जाता है।वैसे तो जूट की फसल चार महीने तक
रहती है, लेकिन इसके दो महीने होने पर ही इसके पत्तों को तोड़कर सब्जी मंडियों में बेच दिया जाता
है। लंबी, कठोर घास 2.5 मीटर तक बढ़ती है और इसके प्रत्येक भाग के कई उपयोग होते हैं।तने की
बाहरी परत उस रेशा का उत्पादन करती है जो जूट उत्पाद बनाने में उपयोग किया जाता है। लेकिन
पत्तियों को पकाया जा सकता है, तथा लकड़ी के आंतरिक तनों का उपयोग कागज के निर्माण के लिए
किया जा सकता है और फसल कटने के बाद जमीन में रह जाने वाली जड़ें फसलों की उपज में सुधार
करती हैं।
चावल की तुलना में जूट को बहुत कम पानी और उर्वरक की आवश्यकता होती है। यह काफी हद तक
कीट-प्रतिरोधी है, और इसका तेजी से विकास सुनिश्चित करता है कि जंगली घास को उगने का समय
भी नहीं मिलता है। इन सबसे ऊपर, जूट पर मौद्रिक लाभ धान की तुलना में दोगुना है। एक एकड़
भूमि में लगभग नौ क्विंटल (Quintal)रेशा का उत्पादन होता है।विश्व में जूट दूसरा सबसे प्रचुर मात्रा
में उपयोग होने वाला प्राकृतिक रेशा है।
इसमें उच्च तन्यता ताकत, ध्वनिक और गर्मी रोधक,
आरामदायक, कम विस्तीर्ण होने की क्षमता, कृत्रिम और प्राकृतिक रेशा दोनों के साथ सम्मिश्रण में
आसानी और एंटीस्टेटिक (Antistatic) गुण मौजूद हैं।जूट का उपयोग तापावरोधन, जियोटेक्सटाइल
(Geotextiles), सक्रिय कार्बन पाउडर (Carbon powder), दीवार का आवरण, फर्श, वस्त्र, कालीन,
रस्सी, बोरी, हस्तशिल्प, पर्दे, कागज, चप्पल, और फर्नीचर (Furniture) के लिए किया जा सकता है।
भारतीय जूट उद्योग भारत के पूर्वी भाग में बहुत पुराना और प्रमुख है।भारत सरकार ने अपने राष्ट्रीय
न्यूनतम साझा कार्यक्रम (National Common Minimum Programme) में विशेष ध्यान देने के
लिए जूट उद्योग को शामिल किया। यह भारतीय कपड़ा उद्योग का एक अभिन्न अंग है।17वीं
शताब्दी से 20वीं शताब्दी के मध्य तक,ब्रिटिश शासन के तहत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British
East India Company)पहले जूट व्यापारी थे।इस कंपनी द्वारा कच्चे जूट का व्यापार किया जाता था।
20वीं शताब्दी की शुरुआत के दौरान, मार्गरेट डोनेली प्रथम (Margaret Donnelly I) डंडी (Dundee) में
एक जूट मिल के जमींदार थे, जिसने भारत में पहली जूट मिल की स्थापना की थी।जूट के पहले माल
को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा वर्ष 1793 में निर्यात किया गया था।वर्ष 1830 की शुरुआत में, डंडी के
बुनकरों ने हाथ से चलाने वाली सन मशीनरी को जूट के धागे की कताई करने वाली मशीन में बदल
दिया। इससे भारतीय उपमहाद्वीप (जूट का एकमात्र आपूर्तिकर्ता) से कच्चे जूट के निर्यात और
उत्पादन में वृद्धि को देखा गया। वहीं उस समय तक वृद्धि के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र मुख्य रूप से
कोलकाता की ओर बंगाल में थे। सर्वप्रथम बिजली से चलने वाली बुनाई का कारखाना वर्ष 1855 में
कलकत्ता के पास हुगली नदी पर रिशरा में स्थापित किया गया था।वर्ष 1869 तक, लगभग 950
करघों के साथ पांच मिलें स्थापित की गईं। विकास इतना तेज था कि, वर्ष 1910 तक, 38 कंपनियां
लगभग 30,685 करघों का संचालन कर रही थीं। वर्ष 1880 के मध्य तक जूट उद्योग ने लगभग
पूरे डंडी और कलकत्ता का अधिग्रहण कर लिया था। बाद में 19वीं शताब्दी में फ्रांस (France),
अमेरिका (America), इटली (Italy), ऑस्ट्रिया (Austria), रूस (Russia), बेल्जियम (Belgium) और
जर्मनी (Germany) जैसे अन्य देशों में भी जूट का निर्माण शुरू हुआ।19वीं शताब्दी में जूट उद्योग
में उत्कृष्ट विस्तार को देखा गया।
भारतीय जूट उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लगभग 0.26
मिलियन श्रमिकों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है, और यह लगभग 4.0 मिलियन कृषि परिवारों को
उपजीविका प्रदान करता है।वहीं तृतीयक क्षेत्र में संलग्न लगभग 0.14 मिलियन लोग जूट उद्योग का
समर्थन करते हैं। वर्तमान में यह लगभग 1000 करोड़ रुपये के निर्यात में योगदान देता है।भारत
सरकार ने अपने राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में विशेष ध्यान देने के लिए जूट उत्पादन को
शामिल किया है।भारतीय जूट उद्योग केंद्र सरकार की 6, राज्य सरकार की 4, सहकारी समितियों की 2,
और निजी स्वामित्व की कुल 64 जूट मिलों का गठन करता है।भारत में आज लगभग 78 जूट मिलें
हैं और अकेले पश्चिम बंगाल राज्य में लगभग 61 जूट मिलें हैं। आंध्र प्रदेश में 7 जूट मिलें हैं, उत्तर
प्रदेश में 3 जूट मिलें हैं और बिहार, ओडिशा, असम, त्रिपुरा और मध्य प्रदेश में एक-एक जूट मिल
हैं।वित्त वर्ष 2006-07 में निर्यात में कुल जूट माल 104.3 हजार मीट्रिक टन था, जिसका मूल्य
583.55 करोड़ रुपये था।वहीं जूट के सामान का निर्यात 1100-1200 करोड़ रुपये के बीच था। कच्चे
जूट का उत्पादन 90-180 लाख के बीच होता है।साथ ही जूट के विभिन्न उत्पादों का भारतीय निर्यात
1998-99 में 93.4 करोड़ रुपये से बढ़कर 2004-05 में 257.3 करोड़ रुपये हो गया, जो भारत के कुल
जूट माल के निर्यात का 22% है।भारतीय जूट उद्योग भारतीय कपड़ा उद्योग का एक अभिन्न अंग
है और यह लगभग 0.26 मिलियन श्रमिकों को प्रत्यक्ष और लगभग 40 मिलियन श्रमिकों को अप्रत्यक्ष
रूप से रोजगार प्रदान करता है।यह अकेले पश्चिम बंगाल में लगभग दो लाख श्रमिकों और देश भर में
4 लाख श्रमिकों को रोजगार देता है।
वहीं 2021 में 150 साल से अधिक पुराना जूट उद्योग कोविड-19 महामारी के कारण कच्चे माल की
कमी और आपूर्ति श्रृंखला व्यवधानों से त्रस्त होने के कारण खाद्यान्न पैकेजिंग की मांग को पूरा
करने में विफल रहा।इस वजह से जूट के बोरे की 1,500 करोड़ रुपये के लगभग 4.8 लाख गठरी की
आपूर्ति नहीं की जा सकी और नवंबर और दिसंबर 2021 में प्लास्टिक द्वारा कार्य को प्रतिस्थापित
किया गया क्योंकि मिलें पर्यावरण के अनुकूल पैकेजिंग सामग्री की आपूर्ति नहीं कर सकीं।यह क्षेत्र,
जो पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश, मेघालय और त्रिपुरा में लगभग 3.7 लाख
श्रमिकों और कई लाख किसान परिवारों को रोजगार प्रदान करता है, हालांकि यह 2021 में कच्चे जूट
की कीमत में अभूतपूर्व वृद्धि की वजह से अस्थायी रूप से बंद रहा, और इस पर निर्भर श्रमिकों तथा
किसानों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3ICjCUg
https://bit.ly/3tFXDYk
https://bit.ly/3wG9Iyp
https://bit.ly/36qpQcY
चित्र संदर्भ
1. फाइबर जूट श्रमिकों को दर्शाता एक चित्रण (Max Pixel)
2. जूट के खेतों को दर्शाता एक चित्रण (Pixabay)
3. "भारत के मैनचेस्टर, भारतीय डंडी, और कलकत्ता जूट मिलों सहित भारत और सीलोन के पत्र ... 1895-96 को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
4. जूट के बोरो को दर्शाता एक चित्रण (Pixabay)
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