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प्रायः हमारे समाज में हर उस वस्तु अथवा विचार को निरर्थक समझा जाने लगता है, जो पुरानी हो गई हो,
एवं उपयोग में न हो। हालांकि कुछ मायनों में यह सही भी है। जैसे यदि हम सैकड़ों मील का सफर, वाहन से
तय करने के बजाय, प्राचीन लोगों की भांति पैदल चलकर करेंगे, तो यह निश्चित तौर पर मुर्खता ही है!
हालांकि पैदल चलने में कोई भी अपवाद नहीं है, लेकिन सैकड़ों मील पैदल चलने में हमारे समय का भी तो
ह्रास होता है। हालांकि कई बार पुराने तौर तरीकों को त्यागकर नए विचारों एवं अविष्कारों का प्रयोग करना
एक समझदारी भरा निर्णय साबित हो सकता है। किंतु शिक्षा जैसे संवेदनशील एवं अतिमहत्वपूर्ण क्षेत्र में
यदि हम प्राचीन भारतीय तौर-तरीकों (गुरुकुल संस्कृति) का कुछ बदलावों के साथ पुनः पालन करने लग
गए, तो निश्चित तौर पर यह न केवल भारत में शिक्षण संबंधी कई समस्याओं को हल कर सकता है। साथ
ही हमें पुनः विश्व गुरु होने का गौरव भी प्राप्त हो सकता है।
भारत में प्राचीन काल से ही शिक्षा को मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू समझा गया है। इसके प्रमाण
के तौर पर विश्व का सबसे पुराना विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय भारत में ही स्थित है। यदि हम
महाभारत एवं रामायण जैसे प्राचीन हिन्दू ग्रंथों का अवलोकन करते है, तो पाते हैं की प्राचीन समय में
भारत में बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल (घर से दूर आवासीय संस्थान ) भेजा जाता था।
प्राचीन समय में गुरुकुल ही शिक्षा का एकमात्र साधन थे, जहां छात्र अपनी शिक्षा अवधि के दौरान शिक्षा
ग्रहण करते थे।
एक ओर जहां वर्तमान में भारतीय विद्यालयों में माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं तक छात्रों को
सामान्य विषय पढ़ाए जाते हैं। एवं उसके बाद उन्हें उनकी रूचि के विषयों को ही पढ़ाया जाता है। वही
प्राचीन गुरुकुलों में छात्रों को आज के विपरीत “हर विषय का ज्ञान, हर छात्र को नहीं दिया जाता था”।
बल्कि एक छात्र को केवल उन्हीं विषयों अथवा कार्यों का ज्ञान दिया जाता था, जिन्हे उसे अपने बड़े हो जाने
पर उपयोग में लेना अथवा पूरा करना पड़ता था। इसलिए गुरुकुल शिक्षा बचपन से ही विशेषज्ञता आधारित
शिक्षा प्रणाली थी। हालांकि वर्तमान में भारत में सर्व शिक्षा (सभी के लिए शिक्षा) का अभियान चला हुआ है,
लेकिन इसके बावजूद निरक्षरता ने 'सभी के लिए शिक्षा' के सपने को खोखले सपनों में बदल दिया है।
जिसमें जनसंख्या विस्फोट को एक बड़ा कारण माना जा रहा है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार केवल 64.8% लोग साक्षर हैं और 35.2% अभी भी निरक्षर हैं किसी भी
राष्ट्र के लिए अपनी आबादी की एक बड़ी संख्या को अनपढ़, अज्ञानी और अकुशल रहने देना सबसे बड़ा
जोखिम है।
भारत में प्राचीन समय से ही शिक्षा को हमेशा बहुत अनुशासित और सुव्यवस्थित माना गया है, तीसरी
शताब्दी ईसा पूर्व में, पारंपरिक और धार्मिक ज्ञान, प्रमुख विषय माने जाते थे। लिखने का काम ताड़ के पत्ते
और पेड़ की छाल पर किया जाता था, एवं अधिकांश शिक्षण, ऋषियों और विद्वानों द्वारा मौखिक रूप से
किया जाता था।
भारत में शिक्षा, सीखने की गुरुकुल प्रणाली के साथ और अधिक प्रासंगिक हो गई, जहां धर्म, दर्शन, युद्ध,
चिकित्सा, ज्योतिष विद्या, प्रमुख विषय थे।
गुरुकुल शिक्षा की सबसे बड़ी एवं अनूठी प्रासंगिकता यही थी की, “गुरुकुल में शिक्षा मुफ्त में ग्रहण एवं
प्रदान की जाती थी।” हालांकि पाठ्यक्रम की समाप्ति पर सम्पन्न परिवार के द्वारा स्वेच्छा से कुछ
अनुदान गुरु दक्षिणा के रूप में भेंट किया जाता था।
प्राचीन भारत में सभी क्रियाकलापों का मुख्य स्रोत धर्म माना जाता था। यह एक सर्वव्याप्त रुचि का विषय
था, और इसमें न केवल प्रार्थना और पूजा बल्कि, दर्शन, नैतिकता, कानून और सरकार भी शामिल थी। उच्च
जातियों के लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन अनिवार्य था। जीवन में शिक्षा के सभी चरणों को
सुव्यवस्थित रूप से परिभाषित किया गया था। पहले चरण के दौरान, बच्चा अपने घर पर प्रारंभिक शिक्षा
प्राप्त करता था। दूसरे चरण में माध्यमिक एवं औपचारिक स्कूली शिक्षा केवल लड़कों तक ही सीमित थी,
तथा जिसकी शुरुआत उपनयन, या धागा समारोह के बाद की जाती थी। यह मुख्य रूप से तीन उच्च
जातियों के लड़कों के लिए कमोबेश अनिवार्य थी।
ब्राह्मण लड़कों का उपनयन समारोह 8 साल की उम्र में, क्षत्रिय लड़कों का 11 साल की उम्र में और वैश्य
लड़कों ने 12 साल की उम्र में किया जाता था। दूसरे चरण की शिक्षा ग्रहण करने के लिए लड़का अपने पिता
के घर को छोड़कर अपने गुरु के आश्रम (गुरुकुल) में प्रवेश करता था, जो कि जंगल के बीच स्थित एक घर के
सामान ही था।
आचार्य गुरुकुल में प्रवेश करने वाले बच्चों को अपने बच्चे के रूप में मानते थे, उन्हें मुफ्त शिक्षा देते थे, और
उनके रहने और खाने के लिए कुछ भी नहीं लेते थे। हालाँकि अपने शिक्षण सत्र के दौरान शिष्य को यज्ञ
करना पड़ता था, अपने गुरु के घर का काम करना पड़ता था। और अपने मवेशियों की देखभाल भी करनी
होती थी।
इस स्तर केअध्ययन में वैदिक मंत्रों ("भजन") और सहायक विज्ञानों का पाठ शामिल था। हालाँकि, शिक्षा
का चरित्र जाति की आवश्यकताओं के अनुसार भिन्न था। पुरोहित वर्ग के बच्चों के लिए त्रयी-विद्या, या
तीन वेदों का ज्ञान अनिवार्य था। गुरुकुल में छात्र को ब्रह्मचर्य - यानी सादा पोशाक पहनना, सादा भोजन
करना, सख्त बिस्तर का उपयोग करना और ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
गुरुकुल में छात्रों की अवधि सामान्य रूप से 12 वर्ष तक थी। जो लोग अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते थे,
उनके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं थी। महिलाओं को शिक्षा से वंचित नहीं किया गया था, लेकिन आमतौर
पर लड़कियों को घर पर ही शिक्षा दी जाती थी। प्राचीन भारत में स्त्रियों को शिक्षा और अध्यापन का समान
अधिकार दिया जाता था। 'गायत्री' या 'मैत्रेयी' जैसी महिला द्रष्टा 'परिषद' (विधानसभा) की शैक्षिक बहस
और कार्यवाही में प्रमुख भागीदार थीं।
धार्मिक विषय की प्रकृति के अनुसार छात्र का पहला कर्तव्य अपने विद्यालय के विशेष वेद को याद करना
था, जिसमें सही उच्चारण पर विशेष जोर दिया जाता था। भारत में प्राचीन शिक्षा प्रणाली में तीन सरल
प्रक्रियाएं थीं - श्रवण, मनन और निध्यासन।
श्रवण ज्ञान को तकनीकी रूप से श्रुति कहा जाता था (जो कानों से सुना जाता था न कि लिखित में जो देखा
जाता था)।
मनन का अर्थ होता है, कि छात्र को शिक्षक द्वारा दिए गए पाठों के अर्थ की व्याख्या करने की आवश्यकता
होती थी। ताकि वे पूरी तरह से आत्मसात हो सकें। यह श्रवण के माध्यम से प्राप्त ज्ञान के बारे में किसी भी
संदेह को दूर करने के लिए होता था।
निध्यासन का अर्थ है ,उस सत्य की पूर्ण समझ हो जाना जो उसे सिखाई जाती है। ताकि छात्र केवल समझने
के बजाय सत्य को जी सके।
पहली सहस्राब्दी की शुरुआत और उससे कुछ समय पूर्व तक्षशिला विश्वविद्यालय, नालंदा
विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय और उज्जैन जैसे विश्वविद्यालयों की शुरुआत हुई। जहां
पहली बार अध्ययन के ठोस विषय जैसे खगोल विज्ञान, व्याकरण, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, साहित्य, कानून,
चिकित्सा, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और अर्थशास्त्र (राजनीति, लोक प्रशासन और अर्थशास्त्र), गणित और
तर्कशास्त्र अस्तित्व में आए। प्रत्येक विश्वविद्यालय को किसी एक विषय में विशेषज्ञता प्राप्त की।
उदाहरण के तौर पर तक्षशिला में चिकित्सा आधारित ज्ञान दिया जाता था, उज्जैन विश्वविद्यालय में
खगोल विज्ञान एवं नालंदा विश्वविद्यालय अध्ययन की लगभग सभी शाखाओं से परिपूर्ण था।
संदर्भ
https://ugcnetpaper1.com/education-in-ancient-india/
https://www.britannica.com/topic/education/Education-in-classical-cultures
http://www.educationindiajournal.org/home_art_avi.php?path=&id=267
चित्र संदर्भ
1. गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते छात्रों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. होम अनुष्ठान करते हुए (1915) आर्य समाज गुरुकुल स्कूल के छात्रों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. गुरु शिष्य परंपरा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. माँ गायत्री को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का एक चित्रण (istock)