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संगीत ईश्वर तक अपनी अरदास पहुंचाने का सबसे बेहतरीन जरिया माना जाता है। विशेष तौर पर इस्लाम
में कव्वालियों के माध्यम से अल्लाह से दरख्वास्त की जाती है, और अल्लाह जरूर ही संगीतमय खाहिशों
को सुनता है। इस्लाम में संगीत की सुरम्य शैली कव्वाली का खासा महत्व है, और संगीत का यह रूप बेहद
लोकप्रिय भी है।
सूफी शैली की इस संगीत का इतिहास 700 साल से भी ज्यादा पुराना है। कव्वाली सबसे पहले भारतीय
उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद और सूफ़ी परंपरा के भीतर भक्ति संगीत की मुख्य धारा के रूप में उभरकर आई।
आज इसकी लोकप्रियता भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश सहित दुनियां के कई देशों में फ़ैल चुकी है।
अंतराष्ट्रीय तौर पर आधुनिक कव्वाली को लोकप्रिय करने का सबसे बड़ा श्रेय महान कव्वाली गायक
नुसरत फतेह अली खान को जाता है। यह विशेष रूप से पाकिस्तान के पंजाब, हैदराबाद, दिल्ली और भारत
के अन्य हिस्सों में, उत्तर भारत में; साथ ही बांग्लादेश के ढाका और चटगांव डिवीजन में काफी सुनी और
पसंद की जाती है।
सबसे पहले इसका प्रदर्शन मूल रूप से पूरे दक्षिण एशिया के सूफी मंदिरों अथवा दरगाहों में किया गया,
परंतु 20वीं शताब्दी के अंत तक इसे अंतराष्ट्रीय दर्शकों ने पूरे विश्व में लोकप्रिय कर दिया। नुसरत फ़तेह
अली के साथ-साथ कव्वाली संगीत को अजीज मियां, नुसरत फतेह अली खान और साबरी ब्रदर्स ने
अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रदर्शित किया। अन्य प्रसिद्ध कव्वाली गायकों में फरीद अय्याज और अबू मुहम्मद,
राहत फतेह अली खान, बदर मियांदाद, रिजवान और मोअज्जम डुओ, दिवंगत अमजद साबरी, वडाली
ब्रदर्स, निजामी बंधु, बहाउद्दीन कुतुबुद्दीन, कुतुबी ब्रदर्स, शामिल हैं। अनेक प्रसिद्ध सूफी गायक जैसे
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान, फरीद अय्याज और अबू मुहम्मद सहित आदि कव्वाली के प्रसिद्ध
'कव्वाल बच्चों का घराना' स्कूल से संबंधित हैं, जो दिल्ली में स्थित था।
कव्वाल (अरबी: وْل) एक प्रकार की "कविता (भविष्यद्वक्ता) होती है, उस व्यक्ति को कव्वाल कहा जाता है,
जो अक्सर एक कौल को दोहराता है (गाता है), कव्वाली वह संगीत होती है जो कव्वाल द्वारा गाई जाती है।
भारत में फ़ारसी, अरबी, तुर्की और भारतीय परंपराओं को जोड़कर कव्वाली बनाने का श्रेय 13वीं शताब्दी के
अंत में दिल्ली के सूफी संत अमीर खुसरो, सूफियों के चिश्ती को दिया जाता है। मध्य एशिया और तुर्की में
कव्वाली के समान रूपों को संदर्भित करने के लिए समा शब्द का प्रयोग किया जाता है। भारत, पाकिस्तान
और बांग्लादेश में भी कव्वाली के एक सत्र के लिए महफिल-ए-समा का नाम औपचारिक रूप से इस्तेमाल
किया जाता है।
सूफी कव्वाली को सुनने के लिए कुछ मानदंडों को पूरा करने की शर्त रहती है, जैसे गायक कोई बच्चा अथवा
महिला न होकर एक व्यसक होना चाहिए। सुनने वाले को सबकुछ अल्लाह की याद में सुनना चाहिए।
कव्वाली के लिए प्रयोग किये जाने शब्दों में तनिक भी अश्लीलता नहीं होनी चाहिए। संगीत वाद्ययंत्र सभा
में उपस्थित नहीं होना चाहिए। यदि ये सभी मानदंड पूरे किये गए हैं तो "सीमा' कव्वाली सुनने के लिए
अनुमति दे दी जाती है। हालांकि इन सभी शर्तों में संगीत वाद्ययंत्र के उपयोग ने अपना रास्ता खोज लिया,
और आधुनिक कलाकारों द्वारा कव्वाली की महफ़िलों में अब हारमोनियम, तबला और ढोलक जैसे
वाद्ययंत्र आम तौर पर प्रयोग किये जाते हैं।
संगीत का यह सुरम्य रूप कव्वाली मुसलमानों को अल्लाह के साथ अपने संबंधों के बारे में अधिक जागरूक
करता है। दक्षिण एशियाई संगीत और साहित्य में संगीत कला का श्रेय आमतौर पर अमीर खुसरो (1244-
1325) को दिया जाता है, जिन्हें "भारत की कोकिला" भी कहा जाता है। उन्होंने न केवल इसे शैली के रूप में
जन्म दिया, बल्कि इसे संभव बनाने के लिए तत्वों का भी निर्माण किया।
प्रदर्शन के दौरान औपचारिक वाद्य यंत्रों के अलावा, ताली बजाना लयबद्ध संरचना पर जोर देने और
दर्शकों को जोड़ने का काम करता है। आधुनिक काल में संगीत कार्यक्रम में सितार के स्थान पर
हारमोनियम का प्रयोग किया जाता है। जैसे-जैसे संगीत कार्यक्रम आगे बढ़ता है, गति और तेज़ होती जाती
है, और फिर धीमी हो जाती है। यदि दर्शकों ने किसी विशेष भाग के लिए अच्छी प्रतिक्रिया दी है, तो इसे तब
तक दोहराया जाएगा, जब तक कि दर्शक इससे थक न जाएं। एक कव्वाली पाठ कथात्मक और/या
उपदेशात्मक हो सकता है, लेकिन अक्सर विभिन्न काव्य स्रोतों से दोहों का एक विषयगत संघ होता है जो
श्रोता को अल्लाह से इंसानी रिश्ते की याद दिलाता है।
जैसे-जैसे सूफीवाद अपने स्थानीय स्वादों, भाषाओं, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक प्रथाओं को आत्मसात
करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में फैला उसके साथ-साथ कव्वाली में भी कई बदलाव आए हैं। कव्वाली भाषा का
स्थानीयकरण भारत-फारसी सूफी कवि अमीर खुसरो के समय में हुआ। सूफीवाद की तरह, कव्वाली भी
अनुभवात्मक है। बहुत कम उम्र से, एक शिष्य को सुनने के अभ्यास में दीक्षित किया जाता है।
प्रदर्शनात्मक तकनीक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती हैं। कव्वाली की लोकप्रियता का
ग्राफ 1950 के दशक की शुरुआत में फिल्म संगीत में इसके विनियोग और नुसरत फतेह अली खान की
विदेशी मंचों पर एक कलाकार के रूप में बेजोड़ प्रसिद्धि के कारण चरम पर पहुंच गया।
आज आबिदा परवीन, फरीद अयाज और राहत फतेह अली खान जैसे कव्वालों ने भावपूर्ण प्रस्तुति दी है,
जिन्होंने कव्वाली के मजाज को बरकरार रखते हुए कव्वाली को बिल्कुल नए अवतार में पेश किया है।
यद्यपि कव्वाली में, संगीत और धार्मिकता आपस में जुड़ी हुई है, परन्तु आधुनिक युग में साबरी ब्रदर्स और
राहत फतेह अली खान जैसे कुछ महान कव्वालों ने कुछ सामान्य रूप से समझी जाने वाली अवधारणाओं
को बनाए रखते हुए धार्मिक सामग्री को चतुराई से अलग कर दिया है, जिसे धर्मनिरपेक्ष के रूप में व्याख्या
किया जा सकता है। आज की कव्वालियां प्रेम, स्वतंत्रता और परमानंद की अवधारणाओं से संबंधित हो
सकती हैं, किंतु सबसे ऊपर मानवता से इनका गहरा बंधन नज़र आ रहा है।
संदर्भ
https://bit.ly/3snK1hY
https://bit.ly/3CS9Sn7
https://en.wikipedia.org/wiki/Qawwali
चित्र संदर्भ
1. कव्वाली के गायन का एक चित्रण (flickr)
2. पवित्र संत कवि अमीर खुसरो का का एक चित्रण (wikimedia)
3. दरगाह में कव्वालों का एक चित्रण (flickr)