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हिंदू-मुस्लिम एकता भारतीय उपमहाद्वीप में एक धार्मिक राजनीतिक अवधारणा है, जो यहां के दो सबसे बड़े
विश्वास समूहों के सदस्यों, हिंदू और मुस्लिमों के साथ-साथ आम जनता के भले के लिए काम करती है। इस
अवधारणा को भारत के विभिन्न शासकों, जैसे कि मुगल सम्राट अकबर,भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नेताओं,
जैसे कि महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान,के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों और आंदोलनों,
द्वारा तैयार किया था। मुगल भारत में, सम्राट अकबर ने हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत की, अपने दरबार में
हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को अधिकारियों के रूप में नियुक्त किया।अकबर ने हिंदू और इस्लाम दोनों के
त्योहारों में भाग लिया और उन्हें बढ़ावा दिया, उन्होंने फूल वालन की सेर जैसे उत्सवों को भी नागरिकों के साथ
मनाया (हालांकि कहा जाता है कि इस त्योहार को अकबर II ने उन्नीसवीं सदी में बहुत बाद में शुरू किया गया
था)। छत्रपति शिवाजी ने भी हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। मराठा हिंदवी स्वराज्य में कई मुसलमान
ऊँचे पदों पर थे।1857 में भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध में, भारत के हिंदुओं और मुसलमानों ने अंग्रेजों से
लड़ने के लिए लामबंदी की।यहां तक कि मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में
हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत की। 1916 के लखनऊ समझौते को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के युग के
दौरान "हिंदू-मुस्लिम एकता को प्राप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम" के रूप में देखा गया था। इस साझा
संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण तत्व आज भी जिंदा हैं और जब तक सभ्यता रहेगी तब तक जिंदा रहेंगे। ये तत्व
साझा संस्कृति की धुरी हैं। इनमें इसमें सबसे प्रमुख अक्षरांकन, सुलेख या कैलीग्राफी (Calligraphy) है।
हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक यह पत्थर का सुलेख एक बहुत ही कठिन कौशल है तथा भारत में
पारंपरिक रूप से प्राचीन वास्तुकला जैसे कि कुतुब मीनार, ताजमहल आदि में इस्लामी सुलेख के बहुत
प्रभावशाली कैलीग्राफी के उदाहरण हैं, दिलचस्प बात तो यह है कि कई मस्जिदें और मुस्लिम इमारतें हैं जिनमें
हिंदू कारीगरों द्वारा कैलीग्राफी कि गई है। हाल ही में मेरठ की शाही जामा मस्जिद में नक्काशी का काम हिंदू
कारीगर द्वारा किया गया,यह इतना खूबसूरत था कि प्रबंधकों ने भी इनके काम की तारीफ की।
मेरठ की जामा मस्जिद में वर्तमान में चल रही मरम्मत, हिंदू-मुस्लिम एकता का एक बेहतरीन उदाहरण है,
और इसकी सुंदरता दुनिया का ध्यान आकर्षित कर रही है। बेशक, यह बात मेरठ या भारत में हम में से
अधिकांश को आश्चर्यचकित नहीं करेगी, फिर भी यह उल्लेखनीय है।बीते साल कोरोना वायरस के कहर के
कारण इस मस्जिद के काम को बीच में ही रोक दिया गया था। प्राप्त जानकारी के मुताबिक तीनों कारीगरों ने
दिल्ली की जामा मस्जिद सहित देशभर की करीब 40 से ज्यादा मस्जिदों में काम किया है। मस्जिदों के अलावा
तीनों कारीगरों ने दिल्ली के स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर और देश के कई जैन मंदिरों में भी काम किया है।
हालांकि उन्होंने अपने जीवन में 60 प्रतिशत काम इस्लामिक इमारतों में ही किया है। जामा मस्जिद को 1019
ईस्वी में उत्तर भारत में निर्मित पहली मस्जिद माना जाता है। ऐसे में यहां नवीनीकरण की आवश्यकता
थी।जामा मस्जिद के दरवाजों पर पवित्र कुरान की आयतें लिखी हुई हैं, इसके साथ ही यहां के गुंबदों पर भी
मस्जिद का इतिहास उर्दू में लिखा गया है।
यह मस्जिद पूर्व और मुगल काल के बाद की वास्तुकला के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करती है। इसके निर्माण के
लगभग 1000 वर्षों के बाद भी इसकी संरचना आज भी मजबूत बनी हुई है। इसके इतिहास की बात करें तो
महमूद गजनवी ने मेरठ के इस रकबे पर जामा मस्जिद बनवाने का ऐलान किया था। यह बात सन् 1019 के
आसपास की है। वहीं उलेमाओं का मानना है कि करीब 700 साल पहले सुल्तान नासिरुद्दीन ने शाही जामा
मस्जिद के रूप में इसका निर्माण शुरू करवाया था।प्रोफ़ेसर जैनुस साजिदीन सिद्दीकी कहते हैं कि मस्जिद के
तीन गुंबद मध्य एशिया की वास्तुकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां के इतिहासकारों का कहना है कि मस्जिद
का निर्माण नसीरुद्दीन महमूद के शासनकाल में पूरा हुआ था। बाद में, ब्रिटिश शासन के दौरान मीनारों का
निर्माण किया गया और कुछ हिस्सों का पुनर्निर्माण किया गया। कई सौ वर्ग मीटर में फैली जामा मस्जिद
आज भी बेहतर स्थिति में है। भारत सरकार इस मस्जिद को ऐतिहासिक धरोहर के रूप में अपने संरक्षण में
लेने के लिए मस्जिद प्रबंधन से कह चुकी है, लेकिन प्रबंधन ने मना कर दिया था। इस मस्जिद का रखरखाव
और खर्चा लोगों से चंदा लेकर होता है। शाही मस्जिद स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मुस्लिम नेताओं और आजादी
के लिए लड़ रहे लोगों की गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गयी थी। इसके ऐतिहासिक महत्व और
कैलीग्राफी (Calligraphy) या सुलेख को निहारने के लिए लोग दूर-दूर से यहां आते हैं।
कैलीग्राफी या सुलेख किसी पाठ के निकाय को सुंदर रूप देने तक ही सीमित नहीं है यह उससे कहीं अधिक है।
यह कला का एक रूप है; अभिव्यक्ति का एक रूप जिसे सीखने में महीनों या वर्षों लग जाते हैं। यह हमारे
चारों ओर मौजूद है और जाने-अनजाने में हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गयी है। सदियों से मौजूद, सुलेख
ने कई कलाकारों को अपनी अद्भुत प्रतिभा के माध्यम से आश्चर्यजनक लिपियां तैयार करके कला में क्रांति
लाने के लिए उत्सुक और प्रेरित किया है। सुलेख की उत्पत्ति लगभग 3000 ईसा पूर्व हो गयी थी, जब से रोम
(Rome) में लैटिन लिपि (Latin script) अस्तित्व में आई, उस दौरान इसे पत्थरों पर उकेरा गया था, दीवारों
पर चित्रित किया गया, और पहली शताब्दी तक, रोमन कर्सिव लिपि (Roman cursive) दैनिक उपयोग का
हिस्सा बन गयी। जैसे-जैसे रोमन साम्राज्य का विस्तार हुआ, वैसे-वैसे लिपि का भी विस्तार हुआ। बाद की
शताब्दियों में विभिन्न क्षेत्रों में विविध विविधताएँ विकसित होने लगीं, जिनमें से कई आज आधुनिक सुलेख का
आधार हैं।
भारत में, सुलेख के शुरुआती संकेतों का पता राजा अशोक के शिलालेखों से लगाया जा सकता है, जिन्हें पत्थर
पर उकेरा गया था। इसके बाद, तांबे और ताड़ के पत्तों का उपयोग किया गया, और भारतीय व्यापारियों,
उपनिवेशवादियों, सैन्य साहसी, बौद्ध भिक्षुओं और मिशनरियों (missionaries) द्वारा भारतीय लिपि को भारत
लाया गया। हालाँकि, यह फ़ारसी और अरबी सुलेख की शुरूआत भी थी, जिसके बाद इस क्षेत्र में वास्तविक
क्रांति आयी। अद्वितीय और प्रभावशाली मिश्रणों का नियमित रूप से उत्पादन होने लगा। सुलेख की कुफिक
शैली (Kufic style) का उपयोग प्रसिद्ध ग्रंथों (सबसे विशेष रूप से, कुतुब मीनार की दीवारों पर) को लिखने के
साथ-साथ मुगल राजाओं की उपलब्धियों को नोट करने के लिए किया जाता था। आगे चलकर ज़ूमोर्फिक सुलेख
(Zoomorphic calligraphy ) भी पेश किया गया था, और बहुत से अरबी और फ़ारसी सुलेख, यद्यपि भारतीय
शैली के साथ, आज भी उपयोग किए जाते हैं।
कैलीग्राफी, लेखन से संबंधित एक दृश्य कला है। इस विशिष्ट शैली को सीखा व अपनाया जाता हैं। आजकल
का अक्षरांकन हस्तनिर्मित से लेकर कंप्यूटर के द्वारा निर्मित किया जाता है।इस सुलेख अभ्यास को
अभिव्यंजक, सामंजस्यपूर्ण और कुशल तरीके से संकेतों को रूप देने की कला के रूप में भी परिभाषित किया
जा सकता है। आधुनिक कैलीग्राफी के विविध परिक्षेत्र मे क्रियात्मक अभिलेखों और डिज़ाइन से लेकर ललित
कला के वे नमूने भी शामिल है जिनकी लिखावट स्पष्ट नहीं होती है। परंपरागत कैलीग्राफी मुद्रण कला और
गैर-परंपरागत हस्त लेखन से बिल्कुल अलग होती है हालाँकि कैलीग्राफी मे इन दोनों का समावेश हो सकता है।
कैलीग्राफी आज भी विवाह और अन्य समारोहों के निमंत्रण पत्रो, फ़ॉन्ट डिज़ाइन (font design) और मुद्रण
कला, मौलिक हस्त निर्मित प्रतीक चिह्न (लोगो (logo)) निर्माण, धार्मिक कला सामग्री, घोषणाओं, ग्राफिक
डिज़ाइन (graphic design), पेशेवर कैलिग्राफिक आर्ट (commissioned calligraphic art), और स्मृतिपत्र से
संबंधित कार्यों में उपयोग होती है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3hRO16U
https://bit.ly/36ONmNh
https://bit.ly/3kOsTjA
https://bit.ly/3eI7e8X
https://bit.ly/3hWGbsN
https://bit.ly/2UwdFoI
https://bit.ly/3zmyfHa
चित्र संदर्भ
1. उर्दू सुलेख का एक चित्रण (flickr)
2. ताजमहल पर सुलेख, भारत का एक चित्रण (flickr)
3. अपनी तीन लिपियों के साथ जॉर्जियाई भाषा के कलात्मक लेखन की सदियों पुरानी परंपरा है जिसका एक चित्रण (wikimedia)