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भारत में विभिन्न समुदायों की एक विस्तृत विविधता देखने को मिलती है, जिनमें से पश्तून या पठान भी एक हैं।पश्तून, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से अफगान के नाम से भी जाना जाता है, एक ईरानी (Iranian) जातीय समूह है। ऐसा अनुमान है, कि पश्तूनों की कुल संख्या लगभग 630 लाख है,हालांकि, यह आंकड़ा अफगानिस्तान में एक आधिकारिक जनगणना की कमी के कारण 1979 से विवादित है। पश्तूनों का अधिकांश भाग अफगानिस्तान (Afghanistan) में अमु दरिया (Amu Darya) नदी के दक्षिण तथा पाकिस्तान (Pakistan) में सिंधु नदी के पश्चिम में मौजूद है। इन क्षेत्रों में खैबर पख्तूनख्वा (Khyber Pakhtunkhwa) और उत्तरी बलूचिस्तान (Balochistan) शामिल हैं। भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें, तो यहां पश्तून ब्रिटिश राज से पहले और उस दौरान सिंधु नदी के पूर्व में स्थित विभिन्न शहरों में आकर बसे। इन शहरों में कराची, (Karachi), लाहौर (Lahore), रावलपिंडी (Rawalpindi), मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, रोहिलखंड, जयपुर और बैंगलोर शामिल थे। भारत के कुछ क्षेत्रों में उन्हें काबुलीवाला (Kabuliwala) के नाम से भी जाना जाता है।
रबिन्द्र नाथ टैगोर की लोकप्रिय कहानी “काबुलीवाला” एक छोटी बच्ची और बुज़ुर्ग पठान के स्नेह को दर्शाती है । भारत में इस समुदाय की उपस्थिति वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल आदि क्षेत्रों में मौजूद है। भारत के अलावा ये समुदाय ईरान (Iran), यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom), कनाडा (Canada), ऑस्ट्रेलिया (Australia) आदि देशों के विभिन्न क्षेत्रों में भी निवास करते हैं।पश्तून अफगानिस्तान का सबसे बड़ा जातीय समूह है, जिसकी कुल आबादी देश की कुल आबादी का लगभग 48% है। इसके अतिरिक्त, यह पाकिस्तान में दूसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है,जो देश की कुल आबादी का 15% - 18% हिस्सा बनाता है। पूरे विश्व की बात करें, तो पश्तून दुनिया में 26 वां सबसे बड़ा जातीय समूह है। पूरे विश्व में लगभग 350–400 पश्तून जनजातियों और वंशों की उपस्थिति का अनुमान लगाया गया है।पश्तूनों की उत्पत्ति को लेकर कई धारणाएं या विचार मौजूद हैं, इसलिए इनकी उत्पत्ति की सटीक जानकारी अभी उपलब्ध नहीं हो पायी है।लेकिन इतिहासकारों का मानना है, कि पहली और दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के बीच मौजूद प्राचीन लोग जिन्हें, पक्थस (Pakthas) कहा जाता था, पश्तूनों के पूर्वज हो सकते हैं। हालांकि, इतिहासकारों और खुद पश्तूनों के सिद्धांत और विचार इस बारे में एक-दूसरे के विपरीत हैं। पश्तून परंपरा के अनुसार, वे इज़राइल (Israel) के राजा शाऊल (Saul) के पोते अफगाना (Afghana) के वंशज हैं। इतिहासकारों, मानवविज्ञानियों और स्वयं पश्तूनों का मानना है, कि पश्तून मुख्यतः पूर्वी ईरानी लोग हैं, जो पश्तो को अपनी पहली भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं तथा अफगानिस्तान और पाकिस्तान में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार इस समुदाय द्वारा पश्तून वह व्यक्ति कहलाता है, जो पूर्वी ईरानी लोगों से उत्पन्न हुआ है,तथा समान भाषा, संस्कृति और इतिहास को साझा करता है। ऐसे व्यक्ति भौगोलिक रूप से एक दूसरे के निकटवर्तीय स्थानों में रहते हैं, तथा एक-दूसरे को रिश्तेदारों के रूप में स्वीकार करते हैं। पश्तूनों को पश्तूनवली (Pashtunwali) का पालन करना आवश्यक होता है। पश्तूनवली, पश्तून लोगों की पारंपरिक जीवन शैली है। यह एक प्रकार का सांस्कृतिक कोड है, जिसमें अफगानिस्तान की पश्तून जनजाति के रीति-रिवाज और प्रथाएं निहित हैं। रूढ़िवादी आदिवासी, किसी भी गैर-मुस्लिम व्यक्ति को पश्तून मानने से इंकार कर सकते हैं, हालांकि कुछ का मानना है, कि पश्तूनों की पहचान सांस्कृतिक आधार पर की जानी चाहिए, न कि धार्मिक आधार पर।इस प्रकार पश्तून समाज धर्म से समरूप नहीं है, अर्थात वे किसी भी धर्म से सम्बंधित हो सकते हैं। पश्तूनों का भारी बहुमत सुन्नी मुस्लिमों के अंतर्गत आता है, किंतु इसमें एक छोटा हिस्सा शिया समुदाय का भी शामिल है। पश्तूनों में हिंदू पश्तून भी शामिल हैं, जिन्हें शीन खलई (Sheen Khalai) नाम से भी जाना जाता है। पश्तून, पितृसत्तात्मक जनजातीय वंश की परंपरा का अनुसरण करते हैं,जिसके अनुसार केवल वे लोग ही पश्तून होंगे, जिनके पिता पश्तून हैं। वे इस बात को कम महत्व देते हैं, कि एक पश्तून को केवल पश्तो भाषा का ही उपयोग करना चाहिए, अर्थात वह पश्तो, दारी, हिंडको, उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी आदि किसी भी भाषा का इस्तेमाल कर सकता है।
उत्तर प्रदेश में पश्तूनों की उपस्थिति की बात करें, तो माना जाता है, कि उनकी उपस्थिति यहां कम से कम 10 वीं शताब्दी से है। विभिन्न मध्ययुगीन स्रोत दिल्ली सल्तनत की सेनाओं में पश्तूनों की उपस्थिति का उल्लेख करते हैं। पश्तून लोदी वंश के उदय के साथ, बड़े पैमाने पर अफगानों के आगमन की शुरुआत हुई। इसके बाद लोदी की जगह मुगलों ने ले ली, किंतु उन्होंने अपनी सेनाओं में पश्तूनों को नियुक्त करना जारी रखा। मुगल साम्राज्य के विखंडित होने के साथ, दो पश्तून संघ, रोहिलखंड के रोहिल्ला और फर्रुखाबाद के बंगेश अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयास करने लगे।अवध क्षेत्र में, नानपारा के ककर राजाओं ने भी एक स्वतंत्र रियासत का निर्माण किया।18वीं शताब्दी के अंत तक, अंग्रेजों ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था, तथा रामपुर को छोड़कर सभी पश्तून राज्यों पर कब्जा कर लिया गया था, जो एक ब्रिटिश संरक्षित राज्य बना।उत्तर प्रदेश में पश्तूनों का एक बड़ा समुदाय निवास करता है तथा यह राज्य के सबसे बड़े मुस्लिम समुदायों में से एक है। उत्तर भारत में मेरठ शहर को पश्तूनों का सबसे पुराना निवास स्थल माना जाता है,तथा गौरी (Ghauri) कम से कम आठ सौ वर्षों से यहां बसे हुए हैं। जिले की अन्य पठान जनजातियों में ककर, बंगेश, तारीन और अफरीदी शामिल हैं। उन्हें ‘खान’नाम से भी जाना जाता है, जो उनके द्वारा आमतौर पर उपयोग किया जाने वाला उपनाम है। हालांकि, इस उपनाम का उपयोग केवल पठानों द्वारा नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश का खानज़ादा समुदाय, जो मुस्लिम राजपूत है, को भी खान के रूप में जाना जाता है।वास्तव में,अवध में खानज़ादा और पठानों के बीच की सीमा स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा, पठान खानज़ादा वाक्यांश का उपयोग मुस्लिम राजपूत समूहों का वर्णन करने के लिए भी किया जाता है, जो मुख्य रूप से गोरखपुर में पाए जाते हैं। इन्हें पठान समुदाय में समाहित किया गया है।रोहिलखंड और दोआब और अवध के कुछ हिस्सों में, आंशिक पश्तूनों के समुदाय भी हैं, जैसे कि रोहिल्ला का कृषि किसान समुदाय। कुछ मान्यताओं के अनुसार,मेरठ के पास इंचोली गांव की स्थापना एंचोली (Ancholi) के अफगानी शहर से आए पठानों द्वारा की गयी थी।
संदर्भ:
https://bit.ly/3odXIxS
https://bit.ly/3tUvMRb
https://bit.ly/2SKO4XX
चित्र संदर्भ
1. जाकिर हुसैन भारत के तीसरे राष्ट्रपति, एक अफरीदी पठान का एक चित्रण ((wikimedia)
2. काबुलीवाला कथाकार का एक चित्रण ( (youtube)
3. पश्तून पठानों का एक चित्रण (wikimedia)