भारत में नृत्य के विभिन्नत रूप पाए जाते हैं, जिनमें से अधिकांश ऐतिहासिक नृत्य मुख्यत: हमारे धर्म और पौराणिक कथाओं से ही संबंधित हैं।नृत्यं के अंतर्गत ताल-लय पर अंग संचालन के साथ भाव का समन्वओय होता है।नृत्य शरीर के विभिन्नत अंगों की गतिविधि, मुख और नयनों के माध्याम से भावों की अभिव्यतक्त्ति का संयोजन है। नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्यकला की दो शैलियां होती हैं - तांडव तथा लास्य।
तांडव नृत्य लौकिक सृजन और विनाश का प्रतीक होने के साथ-साथ जीवन और मृत्यु के प्राकृतिक चक्र का प्रतीक भी माना जाता है। दक्षिण भारत में अधिकांश धार्मिक क्षेत्रों में नृतकियों द्वारा ताण्ड्व नृत्यम ही किया जाता है। तांडव नृत्य के विपरीत लास्य नामक नृत्य या देवी पार्वती के नृत्य के रूप में जाना जाता है। इसका नाम सौंदर्य, अनुग्रह, खुशी और करुणा है। इस नृत्य के लयबद्ध चरण सद्भाव, अनुग्रह और कोमलता से भरे हुए हैं और शिव नृत्य ताण्डवव वीर रस से भरपूर है। यह दुनिया के निर्माण के प्राचीन गति के सामंजस्य का प्रतीक है।जिस नृत्य में वीर-रस का प्रदर्शन होता ह ै, उसे तांडव कहते है। तांडव नृत्या पुरूषों के लिए अधिक उपयुक्तन है, क्यों कि उसमें कुछ ऐसे अंगहारों का प्रदर्शन किया जाता है, जो पुरूष प्रधान हैं। तांडव स्त्री और पुरूष दोनों के द्वारा किए जा सकता है। शास्त्रों के अनुसार सात ताण्डूव नृत्यक हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं: आनंद, संध्याि, कालिका, त्रिपुर, संहार। इसके अतिरिक्त दो तांडव जो शिवजी ने पार्वती के साथ किए हैं गौरी, उमाहैं। वीर रस, वीभत्सत रस, भयानक रस, प्रलयकारी रूप दर्शाने वाला नृत्य ताण्डिव नृत्य, के अंतर्गत आता है। तांडव में शिव की पांच की पांच क्रियायें सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव व अनुग्रह को प्रदर्शित किया जाता है। नृत्य में वीरता रौद्रता आवेश व क्रोध का भाव रहता है। शास्त्रों में तांण्ड व का प्रतीक शिव को माना गया है।
तांडव नृत्य में दो भंगिमाएँ होती हैं- रौद्र रूप एवं आनंद रूप। रौद्र रूप काफी उग्र होता है और जबकि तांडव का दूसरा रूप आनंद प्रदान करने वाला होता है। माना जाता है कि शिव के रौद्र तांडव से विनाश होता है और आनंदरूपी तांडव से ही सृष्टि का उत्थान होता है। इस रूप में तांडव नृत्य का संबंध सृष्टि के उत्थान एवं पतन दोनों से है।शिव सिद्धान्त परंपरा में, शिव को नटराज ("नृत्य का राजा") के रूप में नृत्य का सर्वोच्च स्वामी माना जाता है। नटराज, शिव का दूसरा नाम माना जाता है। वस्तुत: नटराज के रूप में शिव एक उत्तम नर्तक तथा सभी कलाओं के आधार स्वरूप हैं।नटराज की मूर्ति में नृत्य के भावों एवं मुद्राओं का समावेश है। माना जाता है कि शिव ने ऋषि भरत को तांडव अपने भक्त तांडु के माध्यम से दिखाया था। कई अन्य विद्वानों का अलग मत भी है, उनके अनुसार तांदु खुद रंगमंच पर कार्य करते होंगे या लेखक होंगे और उन्हें बाद में नाट्य शास्त्र में शामिल किया गया। इसके साथ ही उन्होंने देवी पार्वती के लास्य नृत्य की विधा भी ऋषि भरत को सिखाई थी। लास्य महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक नृत्य है, जिसमें हाथ मुक्त रहते हैं और इसमें भाव को प्रकट करने के लिये अभिनय किया जाता हैं जबकि तांडव में अभिनय नहीं किया जाता है। बाद में शिव के आदेश पर मुनिभरत ने इन नृत्य विधाओं को मानव जाति को सिखाया। यह भी विश्वास किया जाता है कि ताल शब्द की व्युत्पत्ति तांडव और लास्य से मिल कर ही हुई है।
पार्वती की प्रतीकात्मक छवियां, उनके हावभाव बुद्धि, प्रकृति की शक्ति और अनुयायियों की सुरक्षा को व्यक्त करती हैं। स्त्रीा श्रृंगार और कोमलता की प्रतीक होती हैं, इसलिए उसके द्वारा केवल नृत्यृ का प्रदर्शन ही लोक-रंजक होता है। जिस तरह तांडव स्त्री -पुरूष के द्वारा किया जा सकता है, उसी तरह लास्यश भी स्त्री्-पुरूष द्वारा किया जा सकता है। शास्त्रों क्त- मान्यवता है कि लास्यि के अंगों को सफलतापूर्वक प्रदर्शित करने हेतु श्री कृष्ण् ने रस-मण्ड ल की स्थासपना की। रस के अंतर्गत अनेक प्रकार के वात्सदल्ये आदि रसों से युक्त् जिनमें माधुर्य, सौंदर्य, कोमलता आदि हो, लास्य नृत के अन्तार्गत आते हैं। श्रृंगार प्रधान, लावण्येमयी व विलासयुक्तर नृत्यल ही लास्या नृत्यि कहलाते हैं। शास्त्रों में लास्यय का प्रतीक पार्वती को माना जाता है।
भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का प्रथम प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है। इस ग्रंथ का संकलन संभवत: दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व का है, हालांकि इसमें उल्लेखित कलाएं काफी पुरानी हैं। इसमें 36 अध्याय हैं जिनमें रंगमंच और नृत्य के लगभग सभी पहलुओं को दर्शाया गया है। नृत्य या अभिव्यक्ति नृत्य, इसमें एक गीत के अर्थ को व्यक्त करने के लिए अंग, चेहरे का भाव, और हाथ के इशारे एंव मुद्राएं शामिल होते हैं। नाट्यशास्त्र में ही भाव और रस के सिद्धांत प्रस्तुत किया गया था और सभी मानवीय भावों को नौ रसों में विभाजित किया गया – श्रृंगार (प्रेम); वीर (वीरता); रुद्र (क्रूरता); भय (भय); वीभत्स (घृणा); हास्य (हंसी); करुण (करुणा); अदभुत (आश्चर्य); और शांत (शांति)। किसी भी नृत्य का उद्देश्य रस को उत्पसन्न) करना होता है, जिसके माध्यम से नर्तकी द्वारा भावों को दर्शकों तक पहुंचाया जाता है।
नाट्यशास्त्र में वर्णित भारतीय शास्त्रीय नृत्य तकनीक दुनिया में सबसे विस्तृत और जटिल तकनीक है। इसमें 108 करण, खड़े होने के चार तरीके, पैरों और कूल्हों के 32 नृत्य-स्थितियां, नौ गर्दन की स्थितियां, भौंहों के लिए सात स्थितियां, 36 प्रकार के देखने के तरीके और हाथ के इशारे शामिल हैं जिसमें एक हाथ के लिए 24 और दोनों हाथों के लिए 13 स्थितियां दर्शाई गई हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3xElB68
https://bit.ly/3e9kKm5
https://bit.ly/3xIfu0P
https://bit.ly/2SfEFY5
https://bit.ly/2QMbcop
https://bit.ly/3ufKm6z
चित्र संदर्भ :-
1.तांडव का एक चित्रण (Wikimedia)
2.तांडव का एक चित्रण (staticflickr)
3 .लास्य नृत्यन का एक चित्रण (staticflickr)