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पौधों द्वारा पारे का अवशोषण कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधन में पाए जाने वाले पारे से होता है, ऐसा माना जाता है कि यह ईंधन जैविक अवशेषों के भूगर्भीय परिवर्तन से बनते हैं। तापमान और दबाव में परिवर्तन के परिणामस्वरूप यह पूरी तरह विस्तृत या संकुचित हो जाता है। यह एक अच्छा विद्युत चालक होने के साथ-साथ बहुत अधिक घनत्व और उच्च सतह तनाव वाला पदार्थ है। तरल रूप में पारा कई उत्पादों के निर्माण में उपयोग में लाया जाता है। वर्षों पूर्व पारे के यौगिकों का प्रयोग कीटनाशकों में किया जाता था। साथ ही कुछ पेंट (Paints), फार्मास्यूटिकल्स (Pharmaceuticals) और सौंदर्य प्रसाधन में इसका इस्तेमाल संरक्षण के लिए बायोसाइड (Biocide) की तरह भी किया जाता था। धातु के रूप में पारे का उपयोग दबाव को मापने और नियंत्रित करने के लिए मैनोमीटर (Manometer) में, सोने और चांदी के निष्कर्षण के लिए, तापमान मापने के लिए थर्मामीटर (Thermometers) में, क्लोर-क्षार उत्पादन के लिए उत्प्रेरक के रूप में, इलेक्ट्रिकल (Electrical) और इलेक्ट्रॉनिक स्विच (Electronic Switch) में, फ्लोरोसेंट लैंप में और दंत चिकित्सा में मिश्रण के रूप में किया जाता है। रासायनिक यौगिकों के रूप में पारा डिटर्जेंट, विस्फोटक और रंजक (कई वर्षों पहले), बैटरी में (एक डाइऑक्साइड (Dioxide) के रूप में), कागज उद्योग में, प्रयोगशाला में अभिकारक के विश्लेषण के लिए और फार्मास्यूटिकल्स (Pharmaceuticals) में एंटीसेप्टिक (Antiseptics) के रूप में प्रयोग किया जाता है। किंतु एक बहु-उपयोगी पदार्थ होने के बावजूद भी पारा अथवा मर्करी के इस्तेमाल पर रोक लगाते हुए कई देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है। इसका कारण यह है कि यह एक विषाक्त पदार्थ है। यह पदार्थ जीवों और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। परंतु भारत इस विषाक्त पदार्थ का एक बहुत बड़ा आयातक देश है। वर्ष 1996 में भारत में पारे का आयात 254 टन था जो 2002 में बढ़कर 531 टन हो गया। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र, नई दिल्ली में आयोजित भारत में पारा प्रदूषण पर हुए सम्मेलन में देश के भूजल में पारे से फैल रहे प्रदूषण पर चर्चा की गई। पिछले कुछ वर्षों में पारे का आयात दुगना हो गया है जिसके परिणामस्वरूप भूजल प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है। इसके अलावा जलीय जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर गहरा संकट घिर गया है। जहाँ एक ओर अमेरिका (America) जैसे कई देशों ने पारे के उपयोग को पूर्ण रूप से बंद कर दिया है वहीं दूसरी ओर भारत में इसकी खपत 2002-2003 में 1,386 टन तक पहुँच गई है। भारत में पारा और अन्य विषाक्त पदार्थों का उपयोग मुख्यत: विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों के लिए कच्चे माल के रूप में किया जाता है। भारतीय कोयले प्रति मिलियन में 0.01-1.1 भाग पारे का होता है और कोयले को जलाने से यह पदार्थ निकलता है। एक अनुमान के अनुसार, हर साल इस प्रक्रिया से लगभग 75 टन पारा निकलता है। यह पारा पर्यावरण में पहुँचकर गम्भीर बीमारियों का कारण बनता है।
वर्तमान समय में पूरा विश्व कोरोनावायरस या कोविड-19 (COVID-19) के संक्रमण से जूझ रहा है। हालाँकि विशेषज्ञों द्वारा इसकी एक वैक्सीन की खोज कर ली गई है जो इस रोग के संक्रमण से लड़ने के लिए कारगर मानी जा रही है। परंतु अभी तक इसे जड़ से समाप्त नहीं किया जा सका है। आँकड़ों द्वारा यह पता चला है कि वायरस के कारण हुई मौतों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या अधिक है। इसका कारण उम्र, उच्च रक्तचाप, मोटापा, डायबिटीज, लिम्फोपेनिया (Lymphopenia), प्रो-इंफ्लेमेटरी साइटोकिन्स (Pro-Inflammatory Cytokines) के उच्च स्तर और अतिसक्रियता या हाइपरकोएगुलैबिलिटी (Hypercoagulability) को माना जाता है। यह सभी कारक पारे की विषाक्तता के कारण पनपते हैं। हर साल दुनियाभर में सीफ़ूड, कॉस्मेटिक्स (Cosmetics), चावल, कॉर्न सिरप (Corn Syrup), दंत चिकित्सा और वक्सीन (vaccines) के माध्यम से न जाने पारे की कितनी मात्रा हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती है। इसके अलावा खनन प्रक्रिया, जीवाश्म ईंधन, खाद्य प्रसंस्करण और विभिन्न अन्य स्रोतों से लगभग 47–53 पारा जीवमंडल में पहुंचता है और हमारे शरीर और वातावरण को नुकसान पहुंचाता है। कोविड-19 जैसे खतरनाक रोगों से बचने के लिए सर्वप्रथम पारे के इस्तेमाल पर नियंत्रण करना अतिआवश्यक है।
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