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कोविड-19 (Covid-19) महामारी एक अभूतपूर्व वैश्विक आर्थिक और श्रम बाजार संकट में बदल गई है, जिससे लाखों श्रमिकों और उद्यमों को नुकसान पहुंचा है। जबकि, नौकरियों पर कोरोना महामारी के प्रभाव की व्यापक व्याख्या की गयी है, वहीं वेतन पर इसके प्रभाव को कम ही प्रदर्शित किया गया है। श्रमिकों के वेतन पर महामारी का क्या प्रभाव पड़ा है? श्रमिकों के वेतन की सुरक्षा के लिए सरकारों और सामाजिक भागीदारों ने क्या महत्वपूर्ण उपाय किए हैं? संकट से पहले और उसके दौरान न्यूनतम मजदूरी कैसे विकसित हुई? आदि प्रश्नों पर चर्चा कम ही की गयी है। श्रमिकों को उनकी उत्पादक क्षमता के अनुसार उचित वेतन प्राप्त करवाने और उन्हें शोषण से बचाने के लिए भारत में ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ पारित किया गया। 'न्यूनतम मजदूरी' को भारतीय संविधान के अनुसार, कुशल और अकुशल श्रमिकों के लिए आय के स्तर के रूप में परिभाषित किया गया है, एक ऐसा आय स्तर जो किसी भी श्रमिक के लिए न केवल एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करे, बल्कि जीवन के लिए बहुत आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान करे। न्यूनतम मजदूरी के तहत श्रमिकों का आय स्तर इतना होना चाहिए कि, वे कम से कम अपनी मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपड़ा और मकान) को पूरा कर सकें। इस कानून का मुख्य उद्देश्य कार्यस्थलों में श्रमिकों या कर्मचारियों के साथ होने वाले शोषण को रोकना है। हालांकि, भुगतान करने के लिए एक उद्योग की क्षमता को ध्यान में रखते हुए संविधान ने 'उचित वेतन' (Fair wage) को भी परिभाषित किया है। उचित मजदूरी से तात्पर्य उस मजदूरी से है, जो न्यूनतम मजदूरी से कुछ अधिक होती है। इस मजदूरी की न्यूनतम सीमा न्यूनतम मजदूरी है, लेकिन उच्चतम सीमा उद्योगों के भुगतान करने की क्षमता द्वारा निर्धारित की जाती है। मजदूरी निर्धारण की शुरूआत को देखें तो, नवंबर 1948 में केंद्रीय सलाहकार परिषद ने उचित मजदूरी की एक त्रिपक्षीय समिति नियुक्त की थी। यह समिति एक न्यूनतम मजदूरी की अवधारणा के साथ आई, जो श्रमिकों के न केवल जीवन निर्वाह और दक्षता संरक्षण की गारंटी (Guarantee) देती है, बल्कि शिक्षा, चिकित्सा आवश्यकताओं और कुछ अन्य प्रकार की सुविधाओं के स्तर को भी प्रदान करती है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत, मजदूरी तय करने पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों का प्रभुत्व है। निर्दिष्ट अंतराल पर न्यूनतम मजदूरी की समीक्षा करने और उनमें संशोधन करने के लिए वेतन बोर्ड (Boards) स्थापित किए गये हैं। जीवन जीने की लागत, क्षेत्रीय उद्योगों की भुगतान करने की क्षमता, खपत पैटर्न (Pattern) आदि में अंतर होने के कारण न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत, अनुसूचित रोजगार में मजदूरी दर विभिन्न राज्यों, क्षेत्रों, कौशल, व्यवसायों आदि में भिन्न-भिन्न है। इसलिए, पूरे देश में एक समान न्यूनतम मजदूरी दर नहीं है और संरचना अत्यधिक जटिल हो गई है। सभी राज्य अलग-अलग व्यवसायों और उन व्यवसायों के भीतर कौशल स्तरों के लिए अलग-अलग न्यूनतम मजदूरी निर्दिष्ट करते हैं। श्रमिकों के कौशल स्तरों को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जा सकता है, जिसमें उच्च कुशल, कुशल, अर्ध-कुशल और अकुशल स्तर शामिल हैं। उच्च कुशल श्रमिक से तात्पर्य ऐसे श्रमिक से है, जो कुशलता से काम करने में सक्षम है और कुशल कर्मचारियों के काम का पर्यवेक्षण करता है। एक कुशल कर्मचारी वह है, जो स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए कुशलता से काम करने और जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम है। उसे उस व्यापार, शिल्प या उद्योग का गहन और व्यापक ज्ञान होना चाहिए जिसमें वह कार्यरत है। अर्ध-कुशल श्रमिक को उन्नत प्रशिक्षण या विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन इसके लिए अकुशल श्रमिक की तुलना में अधिक कौशल की आवश्यकता होती है। एक अकुशल कर्मचारी वह है, जो ऐसे कार्यों को करता है, जो साधारण होते हैं। उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों का आर्थिक मूल्य न्यूनतम होता है। अपने कार्य के लिए उसे अधिक अनुभव की आवश्यकता नहीं होती, हालांकि, कर्मचारी का व्यावसायिक वातावरण के साथ परिचित होना आवश्यक है। 2012 में न्यूनतम मजदूरी दर सबसे अधिक अंडमान और निकोबार में 322 रुपये प्रति दिन थी, जबकि, सबसे कम न्यूनतम मजदूरी त्रिपुरा में 38 रुपये प्रति दिन थी। 2017 तक, मुंबई में, एक सफाई कर्मचारी के लिए न्यूनतम मजदूरी 348 रुपये प्रति दिन निर्धारित की गयी थी।
भारत और कुछ अन्य देशों की आधिकारिक न्यूनतम मजदूरी दरों को निम्नलिखित सूची के माध्यम से देखा जा सकता है। इस सूची के माध्यम से भारत और अन्य देशों की न्यूनतम मजदूरी बनाम क्रय शक्ति समता (Purchasing power parity - PPP) की तुलना की जा सकती है। क्रय शक्ति समता, विभिन्न देशों में कीमतों की एक माप है, जो देशों की मुद्राओं की पूर्ण क्रय शक्ति की तुलना करने के लिए विशिष्ट वस्तुओं की कीमतों का उपयोग करती है।
2019 में संसद ने देश भर में न्यूनतम मजदूरी को अनिवार्य करते हुए कोड ऑन (Code on) वेतन विधेयक, 2019 पारित किया। यह कानून 178 रुपये प्रति दिन के सार्वभौमिक न्यूनतम भुगतान को अनिवार्य करता है। न्यूनतम मजदूरी को निर्धारित कर देना भारत की समस्याओं को ठीक नहीं कर सकता है, क्यों कि, निर्धारित की गयी, यह मजदूरी उच्च स्तरीय श्रम मंत्रालय पैनल (Panel) द्वारा अनुशंसित मजदूरी प्रति दिन 375 रुपये के आधे से भी कम है। साथ ही यह सातवें केन्द्रीय वेतन आयोग द्वारा जारी किये गए 700 रुपये के उचित वेतन से भी काफी कम है। भारत में, छोटे और असंगठित व्यवसाय 90% से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देते हैं।
नया कानून सभी कर्मचारियों को आवरित करना चाहता है, जो श्रम अधिकारियों से उत्पीड़न के खतरे को उभारेगा। कार्यबल का 50% हिस्सा स्व-नियोजित है। लगभग 30% कार्य बल अनियमित रूप से कार्य करता है, जो श्रम बाजार में उतार और चढ़ाव की स्थिति उत्पन्न करता है। इस प्रकार नया कोड वास्तव में केवल कुल कार्यबल के 20% हिस्से पर ही काम करता है। इस प्रकार ऐसे अनेकों कारण हैं। कोरोना महामारी का प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ कर्मचारियों के वेतन पर भी हुआ है। महामारी ने शीर्ष कमाई करने वाले कर्मियों और कम वेतन वाले कर्मियों के बीच की खाई को और भी अधिक चौड़ा किया है। इसका असर कम वेतन वाले लोगों पर अधिक दिखा है। इस दौरान जहां कई कर्मचारियों के वेतन में कटौती की गयी है, तो अनेकों ने रोजगार नुकसान का भी सामना किया है। इस नुकसान से उभरने के लिए आय और कुल मांग का समर्थन करने की आवश्यकता होगी और उद्यमों को सफल और टिकाऊ बने रहना होगा।
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