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सर्दियों के साथ ही भारत में शादियों का मौसम भी आ जाता है। ढेरों रस्मों से सजी भारतीय शादियों की तैयारियाँ महीनों पहले से शुरू हो जाती हैं। इन तैयारियों में एक बहुत महत्वपूर्ण काम है शादी का कार्ड या आमंत्रण पत्र छपवाने का। शादी के कार्ड छपवाने का चलन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि लगभग हर जगह है। इन कार्डों का इतिहास छपाई मशीन के इतिहास से ज्यादा पुराना नहीं है।
1447 से पहले जब प्रिंटिंग मशीन या छपाई मशीन का आविष्कार नहीं हुआ था तब इंग्लैंड में एक व्यक्ति (town crier) पूरे नगर में घूम कर जोर-जोर से आवाज देकर शादी की घोषणा करता और लोगों को निमंत्रण दिया करता था। यह ठीक वैसा ही है जैसे पुराने जमाने में भारत में नगाड़ा या मुनादी पिटवा कर राजाओं के द्वारा जन सामान्य को कोई सूचना दी जाती थी।
मध्यकाल में यूरोप में शिक्षित और समृद्ध सामंती वर्ग में अशिक्षित तथा गरीब निम्न वर्ग से अलग दिखने की होड़ पनपी। शादी के कार्ड का चलन भी सामंती वर्ग ने ऐसे ही खुद को अलग दिखाने के लिए शुरू किया। उस वक्त के कार्ड बेहद सजावटी और हाथों से बने होते थे इनमें बहुमूल्य चीजें भी जड़ी होती थीं।
प्रिंटिंग मशीन के आने के बाद छपाई पहले से अधिक आसान, कुशल और कम समय में होने लगी अब कार्डों की कीमतें काफी गिर गई थीं और मध्यमवर्गीय लोग भी इन्हें खरीद सकते थे। इस कारण से कार्ड का इस्तेमाल भी बढ़ गया। उस समय के निमंत्रण पत्र काफी विस्तृत होते थे और हर आमंत्रित व्यक्ति का नाम उस पर लिखा होता था। औद्योगिक क्रांति के बाद छपाई के तरीके और सहज होते गए, साथ ही कार्डों का उपयोग भी बढ़ता गया।
लोकतंत्र के आगमन के साथ ही सामंतवादी युग और उसके तौर-तरीकों का जन-सामान्य से अलगाव भी खत्म हो गया। अब सिर्फ कुलीन नहीं बल्कि कोई भी व्यक्ति शादी के कार्ड छपवा और बटवा सकता था। आधुनिक समय में और अधिक उन्नत तकनीकों जैसे थर्मोग्राफी एवं लेटर प्रेस प्रिंटिंग आने से छपाई और आसान होती गई।
भारत में शादी के कार्डों का इतिहास 19वीं सदी तक का ही है। भले यह तरीका अंग्रेजों से सीखा हो पर हमने इसे अपनी संस्कृति में भली-भांति ढाल लिया है। इंग्लैंड की तरह ही यहां का कुलीन वर्ग उनकी नकल कर शादियों के कार्ड छपवाने लगा। 19वीं सदी के यह कार्ड बहुत ही बेरंग, सादा और आकार में छोटे होते थे। इन का मुख्य उद्देश्य बस शादी से जुड़ी जानकारी जैसे- जोड़े का नाम, शादी का समय तथा स्थान बताना होता था। 1950 तक कार्ड इतने ही सादा छपते रहे। जिसका कारण था भारतीय समाज और सरकार की समाजवाद की ओर बढ़ती रुचि एवं उपभोक्तावाद से दूरी। लोग ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाला तरीका अपनाने में रुचि ले रहे थे।
1960 के दशक में चटकीले रंगों का प्रयोग करने से कार्ड और आकर्षक बन गए। 1980 के दशक का समय तो जैसे कार्ड का स्वर्णिम काल था। क्योंकि इस समय कार्डों में भारतीय संस्कृति में रचे-बसे चित्रों और संकेतों जैसे भगवान गणेश का चित्र या श्री राधा-कृष्ण का प्रयोग होने लगा और उन में भारतीयता आ गई।
1990 से आज तक के समय में शादी के कार्ड में रंगों, डिजाइन तथा प्रयुक्त सामग्री की दृष्टि से बहुत बदलाव आए हैं। अब आकर्षक रंगों एवं अनोखी डिजाइन को पसंद किया जाता है। कार्ड की पैकेजिंग पर भी अधिक ध्यान दिया जाता है और इसे भी कार्ड की तरह ही बेहद आकर्षक बनाया जाता है। कई लोग तो लिफाफे पर कीमती चीजें जड़वा कर अपना वैभव दर्शाते हैं। कार्ड का आकार भी पहले की अपेक्षा अब काफी बड़ा हो गया है। नई-नई आकृतियों में कार्ड ढाले जा रहे हैं और लोकप्रिय हो रहे हैं। शादी के कार्ड का एक अलग ही उद्योग विकसित हो गया है जहाँ कलात्मकता, रचनात्मकता और तकनीक तीनों की ही आवश्यकता है।