अपने आस-पास दिख रहे बाज़ार से आए हर सामान में हम एक लेबल लगा हुआ ज़रूर पाते हैं। इन्हें ट्रेड लेबल कहा जाता है जिन पर कंपनी एवं ब्रांड का नाम, उत्पाद का नाम और उससे जुड़ी कुछ जानकारी छपी होती है।
समय के साथ इन लेबलों के स्वरूप में बड़ा बदलाव आया है। प्रिंट वाले लेबलों का चलन 19वीं सदी से दवाइयां बनाने वाली कंपनियों से शुरू हुआ था। इन लेबलों पर दवाओं के विषय में ज़रूरी जानकारी जैसे उनके लेने का समय, मात्रा, और अन्य चीज़ें लिखी होती थीं। फार्मेसी उद्योग (pharmaceutical industries) में ही पहली बार स्टॉक लेबल (stock label) का प्रयोग हुआ था जिस पर एक तरफ जानकारी लिख कर दूसरी ओर कोई चिपकाने वाला पदार्थ लगा कर उत्पाद पर लगा दिया जाता था। ये लेबल कितने महत्वपूर्ण थे इस बात का अंदाज़ा 1845 में अमेरिका में छपी किताब History of Drug Containers and their Labels से लगाया जा सकता है। इस किताब में फार्मेसी कंपनियों द्वारा लगाए गए लेबलों की गुणवत्ता की तुलना की गई थी। कंपनियों में लेबलों को बेजोड़ बनाने की प्रतिस्पर्धा छिड़ गई। वे नई-नई तकनीकों जैसे रंगीन प्रिंटिंग और उत्कीर्णन (engraving) आदि का इस्तेमाल करने लगीं।
अपने आप चिपकने वाले लेबलों (self-adhesive labels) का आविष्कार 1930 के दशक में आर. स्टैनटन. एवरी R. Stanton Avery के द्वारा किया गया था। 1980 के दशक में बारकोड (Barcode) के चलन ने लेबलों को और अधिक सामान्य कर दिया। ज्यादातर बड़ी-बड़ी कंपनियां लेबलों का उपयोग करती थीं और उन पर बारकोड भी प्रिंट किया गया होता था जिसे किसी स्कैनर की मदद से पढ़ा जा सकता था।
परंतु यह 1990 का दशक था जब सस्ते प्रिंटरों और लेबल बनाने सॉफ्टवेयर प्रोग्राम्स (software programs) आने की वजह से लेबलों की छपाई तेजी से बढ़ गई। अब हर छोटा व्यापारी भी अपना कोई अलग लेबल छाप कर अपना उत्पाद बेच सकता था। आधुनिक समय में लेबलों में काफी विविधता है। ये लेबल प्लास्टिक, काग़ज़ या विनाइल (vinyl) के बने हो सकते हैं। स्मार्ट लेबल जिनमें महीन कंप्यूटर चिप (computer chip) डली होती हैं, का भी प्रयोग होने लगा है।
भारत में ट्रेड लेबल
भारत में ट्रेड लेबल के चलन का एक अलग ही इतिहास है जो औपनिवेशिक (colonial) काल से जुड़ा हुआ है। व्यावसायिक लेबलों का प्रयोग यहाँ कपड़ा उद्योग से शुरू जिन्हें टिकट या शिपर्स टिकट (shipper’s ticket) कहा जाता था। इन्हें कपड़े के थान पर लगा कर ब्रिटेन (Britain) से भारत के शहरों (बॉम्बे, कलकत्ता और अमृतसर) के लिए भेज दिया जाता था। 1800-1900 के बीच ये टिकट लेबलों के रूप में बहुत लोकप्रिय रहीं।
भारत में अपने माल की साख बनाने एवं यहाँ की कम शिक्षित जनता को भी आकर्षित करने के लिए इन कंपनियों ने कई हथकंडे अपनाए। भारतीय परिवेश के चित्रों, देवी-देवताओं, कथा-चित्रों, लघु-चित्रों एवं लोक-चित्रों का सहारा लेकर इन लेबलों तथा उत्पादों ने अपनी जगह बना ली। लेबलों में शब्दों का प्रयोग न के बराबर रखा गया ताकि कम शिक्षित और अशिक्षित लोग भी इनकी ओर आकर्षित हो सकें। एड्रियन विलसन (Adrian Wilson) के अनुसार इन लेबलों में सिर्फ ब्रांड का नाम और कपड़े का प्रकार एवं लंबाई ही इंगित की जाती थी।
अपने आप चिपकने वाले लेबलों का भारत में सर्वप्रथम 1970 के दशक में मनोहर लाल भाटिया ने प्रयोग किया था। यह तकनीक विकसित देशों के मुकाबले लगभग 40 साल पुरानी पर भारत के लिए आत्मनिर्भर बनाने वाली थी। 1983 में नई दिल्ली की एक कंपनी विनायक सूड ऑफ लिडल्स (Vinayak Sood of Liddles) ने एक रोटेरी लेबल प्रेस लगा कर लेबल की छपाई को और तेज बना दिया। 1999 में अमर छजेड (Amar Chhajed) के अल्ट्रावायलेट स्याही (Ultraviolet ink) वाला छपाईखाना लगाने के बाद यह तेजी और बढ़ गई।
आधुनिक समय में भारत की लेबल-छपाई तकनीक पहले से बेहतर एवं कुशल हैं। उच्च तकनीक एवं बेहतर डिज़ाइन वाले लेबल ग्राहकों को आकर्षित करने के साथ-साथ आवश्यक जानकारी भी उपलब्ध करवा रहे हैं। साथ ही ब्रांड के लिये वफ़ादार ग्राहक भी बना रहे हैं।
संदर्भ:
https://www.bbc.com/news/world-asia-india-37194282
http://www.valeofleven.org.uk/docs/TextileTradeTickets.pdf
https://www.printweek.in/features/evolution-self-adhesive-label-production-india-18226
https://bit.ly/3cxkywN
https://bit.ly/39FM9tS
https://unitedlabelcorp.com/history-of-the-label/
https://www.navitor.com/blog/the-history-of-labels/
https://ellco.no/en/about-us/ellcos-label-academy/history-of-labeling/
चित्र संदर्भ:
मुख्य तस्वीर में पुराने इंडियन टेक्सटाइल लेबलओ को दिखाया गया है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर में पुराने इंडियन टेक्सटाइल लेबलओ को दिखाया गया है। (बीबीसी)
तीसरी तस्वीर में चॉकलेट के पुराने लेबल को दिखाया गए हैं। (विकिमीडिया)