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भारत देश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों का समावेश है। यहाँ अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग न केवल रहते हैं बल्कि वर्षों से अपने रीति-रिवाजों का स्वतंत्रतापूर्वक पालन भी करते आ रहे हैं। पूरे देश में हर धर्म के त्यौहारों को बड़ी ही धूम-धाम से और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करना हमारे देश की पुरानी परंपरा और विशेषता है। विभिन्न धर्मों में से एक जैन धर्म जिसकी उत्पत्ति ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में हुई थी। यह धर्म अपनी धार्मिक परंपराओं और अद्भुत वास्तुकला के लिए पूरे विश्व में विख्यात है। सभी के प्रति अहिंसा और प्रेम की भावना रखना इस धर्म के मुख्य उपदेशों में निहित है। जैन धर्म के आधुनिक और मध्ययुगीन अनुयायियों ने वर्षों पहले कई मंदिरों और मठों की स्थापना की थी। उन्हीं में से एक उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर है। वर्ष 1801 में राजा हरसुख राय जो बादशाह शाह आलम द्वितीय के शाही कोषाध्यक्ष थे, के शासनकाल के दौरान इस मन्दिर के मुख्य भाग का निर्माण हुआ था। जैन धर्म के सभी मंदिरों में प्रसिद्ध वास्तुकला चित्रकारी और मूर्तिकला की सुंदर झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम जो जैन स्मारक बनाए गये थे वे जैन साधुओं के मठों और ब्राह्मणवादी हिंदू मंदिर योजना पर आधारित थे। मंदिरों की दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियों की अद्भुत नक्काशी की गई है, जिनमें इस धर्म की मंत्रमुग्ध कर देने वाली वास्तुकला को साक्षात देखा जा सकता है। तीर्थंकर, उद्धारक, यक्ष और यक्षिणी, अलौकिक पितृ देवता के डिज़ाइन (Designs) जैन चित्रकला और शिल्पकला के मुख्य उदाहरण हैं। 16 वें जैन तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित दिगम्बर जैन मन्दिर हस्तिनापुर का सबसे प्रचीन जैन मंदिर है।
हस्तिनापुर, जैन धर्म के तीन तीर्थंकरों शांतिनाथ (16वें), कुंथुनाथ (17वें) और अरनाथ (18वें) की जन्मभूमि है। अत: इस मंदिर के मुख्य भाग पर श्री शांतिनाथ जी की पद्मासन मुद्रा में सुंदर मूर्ति विद्यमान है और दोनों ओर श्री कुंथुनाथ व श्री अरनाथ जी की मूर्तियां सुसज्जित हैं। यह सभी मूर्तियां यहाँ के आकर्षण का केंद्र हैं। इस मंदिर में दूर-दूर से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। जैन, बौद्ध और हिंदू वास्तुकलाओं में कई समानताएँ मिलती हैं।
इसका कारण यह भी हो सकता है कि प्रचीन काल में मूर्तिकार किसी धर्म विशेष के लिए कार्य नहीं करते थे बल्कि वे आमतौर पर सभी धर्मों की कलाकृतियाँ बनाने में माहिर थे। इसलिए एक धर्म की मूर्तिकला की छवि दूसरे धर्म की कलाकृतियों में स्पष्ट दिखाई दे जाती है। उत्तर भारत में स्थित जैन मंदिरों के निर्माण में उत्तर भारतीय नागर शैली का और दक्षिण भारत में स्थित जैन मंदिरों में द्रविड़ शैली का उपयोग किया गया है। जैन आइकॉनोग्राफी (Jain Iconography) में अधिकतर देवी-देवताओं की मूर्तियां ध्यान की मुद्रा में और निर्वस्त्र अवस्था (Naked Positions) में बनाई गई हैं। देवों की इस अवस्था में बनाई गई मूर्तियां कई बार विवादास्पद भी रह चुकी हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त हुई कई प्रतिमाएँ जैन धर्म की मूर्तियों के समान दिखती हैं। मूर्तियों के अलावा पवित्र धार्मिक प्रतीक जैसे पुष्प कमल और स्वस्तिक आदि की चित्रकारी को भी जैन धर्म की वास्तुकला में सम्मलित किया गया हैं।
लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की और अब तक की सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा को पटना संग्रहालय में आज भी सुरक्षित रखा गया है। जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पर्सवा (Pārśva) की कांस्य छवियां जो ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की हैं, मुंबई और पटना के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय (The Prince of Wales Museum) में रखी गई हैं। जैन धर्म में प्रसिद्ध तीर्थकरों के दिये ज्ञान को सदियों तक लोगों के बीच जीवित रखने के उद्देश्य से उनकी कलाकृतियों को पवित्र स्थलों जैसे मंदिर की दीवारों पर चित्रित कर दिया जाता था। जैन धर्म के अनुयायी अपने जीवन में कुछ धार्मिक नियमों के साथ-साथ तीर्थकरों द्वारा दिये गये उपदेशों का पालन भी करते हैं। जो उन्हें सदैव शांति, सद्गुण और कल्याण का मार्ग दिखाते हैं।
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