गिल्ली-डंडा शब्द यथाशब्द ‘टिप-कैट (Tip-cat)’ से व्युत्पन्न हुआ था। यह भारतीय पारंपरिक स्वदेशी खेलों में से एक है। गिल्ली-डंडा की एक व्याख्यात्मक परिभाषा दी गई है: "दो छड़ियों (एक लंबी और दूसरी छोटी) का उपयोग करके खेला जाने वाला खेल है। इसे छोटी छड़ी के एक कोने पर लंबी छड़ी से मारकर खेला जाता है। इस खेल को अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण एशियाई देशों जैसे बांग्लादेश (Bangladesh), भारत, श्रीलंका (Sri Lanka) के देशों में खेला जाता है। बांग्लादेश में, इसे 'डंगुली खेल' के रूप में जाना जाता है; जबकि नेपाली में इसे 'दांडी बायो' के रूप में जाना जाता है, ये दोनों एक समान खेल हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्राचीन खेल है, जिसकी संभवतः 2500 साल पहले मौर्य राजवंश के शासन काल में उत्पत्ति हुई थी और इसके नाम की उत्पत्ति ‘घाटिका’ से की गई थी। इसे सामान्यतः एक बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल (Baseball) या क्रिकेट (Cricket) के बल्ले से थोड़ी छोटी होती है। इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं जो किनारों से थोड़ी नुकीली या घिसी हुई होती है।
कुछ वर्षों पहले तक अधिकांश भारत की कई गलियों में बच्चे हाथ में एक डंडा और गिल्ली लेकर खेलते हुए नज़र आते थे, किंतु क्रिकेट के आगमन, व्यस्त जीवन शैली तथा आधुनिक जीवन के कारण धीरे-धीरे भारत में इसका प्रचलन कम होने लगा और यह खेल लगभग लुप्त होने की कगार पर आ गया है। हालांकि इस खेल के इतना लोकप्रिय होने की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसमें कोई खर्चा नहीं आता था। इस खेल को खेलने के लिए एक 2-3 फीट लम्बे लकड़ी के डंडे और 3 से 6 इंच लंबी एक गिल्ली की जरूरत होती है, जिसके दोनों किनारों को नुकीला कर दिया जाता है, जिससे उस पर डंडे से मारने पर गिल्ली उछल जाती है। खेल के नियम भी बिल्कुल आसान हैं, इस खेल में खिलाड़ियों की संख्या कितनी भी हो सकती है, 2, 4, 10 या इससे भी अधिक, बस वे दो समूहों में बंटे होते हैं। एक छोटे से घेरे में खड़े होकर, खिलाड़ी एक पत्थर पर गिल्ली को एक झुके हुए तरीके से खड़ा करता है, गिल्ली का एक छोर जमीन को छूता है जबकि दूसरा छोर हवा में होता है।
इसके बाद खिलाड़ी गिल्ली के उठे हुए सिरे पर मारने के लिए डंडे का इस्तेमाल करता है, जो गिल्ली को हवा में उड़ा देता है। जब यह हवा में होती है, तो खिलाड़ी डंडे को गिल्ली से इतनी जोर से मरता है कि वह काफी दूर जाकर गिरे। गिल्ली को मारने के बाद, खिलाड़ी को एक प्रतिद्वंदी द्वारा गिल्ली के पुनर्प्राप्त किए जाने से पहले गोले के बाहर पूर्व-सहमत बिंदु तक भागकर जाना होता है और छूने की आवश्यकता होती है। गिल्ली के कोई विशेष आयाम नहीं होते हैं और इसमें सीमित संख्या में खिलाड़ी भी नहीं होते हैं। वर्तमान समय में गिल्ली-डंडा को विलुप्त होने से बचाने के लिए कई कदम भी उठाए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन की सलाहकार समिति और इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ ट्रेडिशनल स्पोर्ट्स एंड गेम्स (International Council of Traditional Sports and Games) ऐसे सभी पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित और बढ़ावा देने के इच्छुक है, जो दुनिया में लगभग विलुप्त हो रहे हैं। इसकी मदद से ये खेल पुनः अपना अस्तित्व बनाए रख सकते हैं।
वहीं प्रसिद्ध हिन्दी लेखक प्रेमचंद ने "गिल्ली-डंडा" नामक एक लघु कहानी में इस खेल का इस्तेमाल पुराने और आधुनिक समय के बीच अंतर और भारत में जातिगत असमानता को चित्रित करने के लिए किया। इस कहानी का नायक और कथाकार अपनी युवावस्था में अपने मित्रों के साथ खेले गये गिल्ली-डंडा खेल का स्मरण करते हुए बताता है कि उनके मित्रों में एक मित्र था जो गिल्ली डंडा की प्रत्येक बारी में जीतता था। नायक एक दिन अपने उस मित्र (गया) के साथ खेल रहा था और उसको उसकी बारी दिये बिना वह घर लौट जाता है। कुछ दिनों बाद नायक के पिता का तबादला किसी शहर में हो जाता है।
अब काफी सालों बाद जब नायक वापिस अपने पुराने शहर आता है तो अपने पुराने मित्रों की खोज करता है। वह अपने सभी मित्रों से तो नहीं मिल पाता लेकिन उसे गया मिल जाता है। जब नायक गया को साथ में गिल्ली डंडा खेलने का प्रस्ताव रखता है तो गया बड़ा हिचकिचाता है, क्योंकि उसकी नज़र में अब नायक एक बड़ा अफसर है और वह उसके सामने कुछ भी नहीं। जब नायक और गया गिल्ली डंडा खेलने पहुंचे तो वहाँ गया नायक से हार गया। जिससे उन्हें लगने लगा शायद गया खेल भूल गया। लेकिन अगले दिन गया को खेलते देख नायक को यह महसूस हो गया कि अब उन दोनों के बीच जात-पात की दीवार खड़ी हो गई है।
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