भारत में ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं, जो हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रदर्शित करते हैं। इन्हीं उदाहरणों में से एक है, मेरठ स्थित बाले मियां की दरगाह। इस दरगाह में जहां आपको मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग ईश्वर की इबादत करते हुए नजर आयेंगे, वहीं हिंदू सम्प्रदाय के लोग भी पूजा-अर्चना करते दिख जाएंगे। इस प्रकार बाले मियां की दरगाह जहां मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, वहीं हिंदू धर्म के लोगों के लिए भी महत्व रखती है। यह दरगाह वास्तव में सैयद सालार मसूद गाजी उर्फ बाले मियां की है, जिसे 1035 ईस्वी में स्थापित किया गया। ऐसा माना जाता है कि, सैयद सालार मसूद गाजी अल्लाह के दूत थे तथा इमाम हनीफा के परिवार के सदस्य थे। उन्होंने मानव जाति के कल्याण के लिए काफी काम किया तथा हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्म के अनुयायियों के हक के लिए लड़ते हुए यहीं पर शहादत प्राप्त की। उसके बाद से ही इस स्थान पर उनकी दरगाह स्थापित है। हिंदू-मुस्लिम कल्याण की उनकी भावना के कारण ही दोनों ही धर्म के लोग बाले मियां की दरगाह पर आकर मन्नतें मांगते हैं। नौचंदी मेले के दौरान, दरगाह में हर साल मई माह में बाले मियां का मेला भी लगता है, जो लगभग एक महीने तक चलता है। देश के विभिन्न स्थानों से श्रद्धालु आकर इस मेले में भाग लेते हैं। ऐसी किवदंती है कि, बाले मियां का विवाह जोहरा नाम की महिला से होने वाला था। लेकिन, उनको ये शादी मंजूर नहीं थी। विवाह वाले दिन इतनी तेजी से आंधी-तूफान आया कि, उनका विवाह नहीं हो सका। तब से मेले के अंतिम दिन बाले मियां की बारात जाती है, जो गंतव्य तक नहीं पहुंच पाती। स्थानीय लोग बताते हैं कि, उस दिन से हर साल जब भी इनकी शादी का कार्यक्रम आयोजित कराया जाता है, तब आंधी-तूफान जरूर आता है। मेले के आयोजन की तारीख ब्राह्मणों के द्वारा पंचाग से तय होती है। लोग इस जगह आकर कनूरी नामक एक रस्म करते हैं, जिसमें बाबा को मुर्गे का मांस चढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि, शरीर के जिस हिस्से में बीमारी होती है, उस हिस्से का चांदी का प्रतिरूप यदि बाबा की दरगाह में चढ़ाया जाता है तो, वो असाध्य बीमारी ठीक हो जाती है। मन्नत मांगने वाले श्रद्धालुओं की मन्नत पूरी होने पर यहां एक विशेष ध्वज चढ़ाया जाता है। इस मेले को पूर्वांचल की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल भी माना जाता है।
वर्तमान समय में एक अन्य प्रमुख विशेषता भी दरगाह में देखने को मिलती है। मेला नौचंदी में बाले मियां की मजार पर सबसे बड़ी देग (हांडी) लगाई गई है, जिसका उपयोग भक्तों के लिए लंगर पकाने के लिए किया जाता है। शामली में निर्मित इस हांडी में एक बार में 300 किलो चावल पकाया जा सकता है। हांडी में लगे एल्युमिनियम (Aluminium) का वजन 1.274 कुंटल (Quintal) है, जबकि इसके बाहर 210 किलोग्राम का लोहा लगाया गया है, ताकि हाँडी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर खिसकाया जा सके। इस हांडी को स्थापित करने में 1.633 लाख रुपए का खर्चा हुआ है। हर शुक्रवार को मजार पर लगने वाले लंगर के लिए यह हांडी उपयोग में लायी जाती है। हांडी में चावल पका है या नहीं, यह देखने के लिए लोहे की सीढ़ी स्थापित की गयी है, जिस पर चढ़कर हांडी के मुंह तक जाना पड़ता है। लोगों का मानना है कि, हांडी में बने खाने में हमेशा बरकत रहती है तथा लंगर में चाहे कितने भी लोग आ जाएँ, इस हांडी में बना खाना कभी कम नहीं पड़ता। धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने वालों के लिए बाले मियां की मजार एक सबक है, जो सबको एक ही मालिक की सन्तान होने का संदेश देती है।
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