पुस्तकें हमारी वह अमूल्य धरोहर हैं, जो आज भी हमें हमारे अतीत के साक्षात दर्शन करा देती हैं। हमारे अतीत की कई ऐसी विरासत हैं, जो समय के साथ धुंधला गयी हैं या हम उन्हें भुला चुके हैं लेकिन उस दौरान लिखी गयी पुस्तकों में ये आज भी जिंदा हैं। ऐसी ही धरोहर में से एक हैं मेरठ के प्रसिद्ध हज़रत शाहपीर दरगाह के भीतर स्थित कब्रिस्तान जिसमें मुस्लिम संत गोहर शाह और एक अन्य हिंदू संत - मनोहर नाथ की कब्र दफन की गयी हैं। इनकी समाधि दरगाह के मैदान में थी, आज इन्हें लोगों द्वारा भुला दिया गया है। इस मकबरे का निर्माण वर्ष 1628 में मुगल महारानी और सम्राट जहाँगीर की पत्नी, नूरजहाँ द्वारा स्थानीय सूफी संत हज़रत शाहपीर की स्मृति में करवाया गया था। जिसके विषय में विस्तारपूर्वक आप हमारे लेख (https://prarang.in/meerut/posts/4747/One-of-the-amazing-architectural-artifacts-is-the-tomb-of-Hazrat-Shahpeer) में पढ़ सकते हैं।
मकबरे में मौजूद कब्रों का विस्तार पूर्वक वर्णन 1844 में अंग्रेजी मेजर जनरल डब्ल्यू एच स्लीमैन (English Major General WH Sleeman) ने अपनी पुस्तक "रामबेल्स एंड रिकॉलिक्शन ऑफ़ ए इंडियन ऑफिशियल" ("Rambles & Recollections of an Indian Official") के 71वें अध्याय में किया है। हिंदू और मुस्लिम दोनों ने नाथ हिंदू संत और मुस्लिम संतों को समान रूप से श्रद्धांजलि दी। इस एकता के प्रतीक की पुष्टि स्लीमैन ने अपनी पुस्तक में की है।
स्लीमैन लिखते हैं, 30 तारीख को, हम 12 मील की यात्रा के बाद मेरठ पहुंचे, और सूरज कुंड के पास अपना डेरा डाला, जो बाद में सूरज मल के नाम से जाना गया। यह दीग (Dig) के जाट थे, इनकी समाधी का उल्लेख इन्होंने अपनी पुस्तक के गोवर्धन प्रकरण में किया है। सूरज मल ने हिंदु संत, मनोहर नाथ की आत्मा द्वारा दिए गए सुझाव पर यहां पर बहुत बड़ा जलाशय बनवाया था। मनोहर नाथ जी को लगभग 200 वर्ष पहले इसी स्थान पर अंतिम अग्नि दी गयी थी और अब उनकी आत्मा जाट प्रमुख को सपने में दिखायी देती है। यह घटना तब से प्रारंभ हुयी जब जाट अपने राज्य विस्तार के दौरान इस स्थान पर अपनी सेना के साथ रूके। इस जलाशय के चारों ओर पक्की चिनाई कराई गयी थी और पानी निकालने के लिए सीढ़ियां बनायी गयी थीं। इसकी देखरेख और मरम्मत अब हमारी सरकार (ब्रिटिश सरकार(British Government)) कर रही है। जलाशय के उत्तर-पश्चिम में लगभग आधा मील की दूरी पर शाह पीर का मकबरा है, जो एक मुहम्मदान संत थे, इनको एक बार किसी हिंदू संत द्वारा पहाड़ से उतारा गया था, इसके बाद वे अपनी आखरी सांस तक एक-दूसरे के मित्र रहे।
कहा जाता है कि इन दोनों ने आसपास के लोगों के बीच कई अद्भुत चमत्कार किए थे, कुछ दंतकथाओं के अनुसार यह दोनों रोज सुबह निकट के जंगलों से आए शेरों की सवारी किया करते थे। मनोहर नाथ के विषय में कहा जाता है कि वे संगीत के बहुत शौकीन थे; यद्यपि वे लगभग तीन शताब्दी पहले मर चुके हैं, किंतु शौकीनों की एक भीड़ (अतालीस) हर रविवार दोपहर जलाशय के किनारे इस तीर्थस्थल पर इकट्ठा होती है, और मनभावन शैली में गीत गाती है। इन्हें सुनने के लिए यहां पर लागों का जमावड़ा लग जाता है। इसी प्रकार मुहम्मदान संत की समाधि पर हर गुरुवार दोपहर में कई पेशेवर नर्तक और गायक इकट्ठा होते हैं, जो लोगों के एक बड़े सम्मेलन के सामने नाचते, गाते और बजाते हैं, यहां पर गरीबों और बुजुर्गों को भोजन दिया जाता है। मुहम्मदान का मकबरा बड़ा और सुंदर है, इसे लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया है और संगमरमर से जड़ा गया है। इस पर कोई गुंबद नहीं है ऐसा प्रतीत होता है मानो जब वे अंतिम निंद्रा के बाद पुनर्जीवित हों तो उनके और स्वर्ग के मध्य कोई पर्दा ना रहे। उनकी समाधि के निकट ही गंज-ए-फन्न (Ganj-i-fann) है। पेशेवर गायक और नर्तकियां हर शुक्रवार दोपहर में यहां आती हैं और एक बड़े समागम के समक्ष अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं।
यहां पर गरीबों के लिए दान एकत्रित किया जाता है। मुहम्मदान संत के निकट ही गौहर साह का मकबरा बना है। एक बार मेरठ का एक व्यापारी, जिसने सदर बाजार में मकई पीसने के लिए एक बड़ी पवनचक्की लगायी थी, एक बूढ़े आदमी को गाली दे रहा था क्योंकि वह बूढ़ा आदमी वहां से गुजरते हुए उसकी पीसने की विधि पर कुछ संदिग्ध निगाह से देख रहा था। बूढ़े संत ने कहा, 'मेरे बच्चे' इस खिलौने के साथ अपने आप को खुश कर लो, क्योंकि इसके पास चलने के लिए अब कुछ ही दिन रह गए हैं। उसके ठीक चार दिन बाद मशीन (Machine) बंद हो गयी। गरीब व्यापारी इसे फिर से स्थापित करने का जोखिम नहीं उठा सकता था, और यह खराब ही रह गयी। मेरठ की मूल आबादी ने इसे गौहर साह का चमत्कार माना। उनकी मृत्यु से ठीक पहले मेरठ के आसपास का क्षेत्र पानी के नीचे था और लगातार बारीश के कारण कई घर गिर गए।
इन बूढ़े संत ने इस दौरान कस्बे की एक बड़ी सरई में अपना घर लिया था, लेकिन अपने अंतिम लक्ष्य को पाकर, उन्होंने अपने अनुयायियों पर ध्यान केंद्रित किया और वे उन्हें जंगल में ऐसे स्थान पर ले गए, जहां पर वे विश्राम कर सकें। वे तत्काल भवन छोड़कर जमीन पर रहने लगे, जिन लोगों ने भी उन्हें देखा उनके विषय में कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने गुणों के कारण यहां पर लंबे समय तक बने रहे और लोगों को गलत मार्ग पर जाने से रोकते रहे।
इनके मकबरे का निर्माण उनके अवशेषों के ऊपर किया गया था, जो दरबार के एक हिन्दू अधिकारी के पास थे, यह लंबे समय से रोज़गार के लिए बाहर था और बड़ी यातनाएं झेल रहा था। उसने कब्र का निर्माण जल्दी से पूरा नहीं किया था। वह अपने धर्मस्थल में नियमित रूप से चढ़ावा चढ़ाता है, क्योंकि उसकी जरूरत के समय में संत द्वारा की गयी दयालुता के लिए यह एक आभार अभिव्यक्ति थी। हर बुधवार दोपहर को अन्य कब्रों के समान पेशेवर गायक और नर्तक अपनी प्रतिभा को यहाँ प्रदर्शित करते हैं। यहां मौजूद संतों की कब्रों के चारों ओर की जमीन पर अन्य लोगों की कब्रों का जमावड़ा लगा था, यह उन लोगों की कब्र थीं जिन्होंने अपने अंतिम समय में संत के साथ दफन होने की इच्छा अभिव्यक्त की थी। ऐसे संत जिन्होंने जीवनभर वैभव और अहंकार को त्यागने के उपदेश दिए तथा अपने शिष्यों एवं उपासकों से भेंट स्वरूप कुछ भी नहीं लिया। इन्होंने अपने अस्तित्व को बनाए रखने हेतु सबसे महत्वपूर्ण चीज अर्थात भोजन को ही तब ग्रहण किया, जब उन्हें भूख लगती थी।
मेरठ आने के बाद पहली कुछ शामें मैं (स्लीमैन) पुराने संतों की कब्रों के बीच घूमा और उनके इतिहास के विषय में बहुत कुछ जाना। मुझे विशेषकर उन शौकिया गायक और पेशेवर नर्तकियों और संगीतकारों में दिलचस्पी थी, जो अपने-अपने तीर्थस्थलों में भीड़ के सामने अपनी प्रतीभा का प्रदर्शन करते हैं। यहां पर गरीबों को वस्तुएं दान की जाती हैं। यह हिन्दू और मुस्लिमों का संयुक्त धार्मिक स्थल था और दोनों यहां परोपकार के लिए शामिल होते थे। मनोहर नाथ की समाधि, हालांकि वह एक हिन्दू थे, लेकिन इसमें कई मुसलमान वैसे ही शामिल होते हैं जैसे हिन्दू तीर्थयात्री शामिल होते हैं। इन संत के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने समाधी ले ली थी, उन्होंने जीवित ही स्वयं को ईश्वर के लिए समर्पित कर लिया था और समाधी में बैठ गए। भारत में कुष्ठ रोग या किसी अन्य लाइलाज बीमारी से ग्रसित पुरुष प्रायः समाधि लेते हैं, यह विधिवत रूप से यह समाधी धारण करते हैं, जिससे ईश्वर उनके बलिदान को स्वीकार लें।
मैं एक संपन्न और सम्मानित धनी को जानता था, वे नागपुर की सरकार के तहत उच्च पद पर थे, इन्हें डॉक्टर (Doctor) ने एक लाइलाज बिमारी बताई, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने दो सौ मील की दूरी पर नेरबुड्डा नदी (Nerbudda River) पर समाधी लेने का निर्णय लिया। इन्होंने अपने परिवार और सगे-संबंधियों से अंतिम विदा लेकर, नाव के सहारे नदी के मध्य में गहरे पानी में जाकर समाधी संस्कार को पूर्ण करते हुए समाधी धारण की। उनके साथ गए सगे संबंधियों को भी अपने घर लौटने के बाद अपने अंतिम कर्तव्य का एहसास हो गया। हर वर्ष कई गरीब लोग लाईलाज बीमारी से मुक्ति पाने के लिए समाधी धारण कर लेते हैं।
इस समस्या को रोकने का एकमात्र तरीका यह है कि यूरोप के चिकित्सा विज्ञान (Medical Science of Europe) को भारत में लाया जाए, इस योजना पर सर्वप्रथम लॉर्ड डब्ल्यू बेंटिंक (Lord W Bentinck) कार्य कर रहे थे, जिसे लॉर्ड ऑकलैंड (Lord Auckland) द्वारा आगे बढ़ाया गया और दो अनुभवी पुरूष डॉक्टर्स गोओडवे (Doctors Goodeve) और ओ'शूघेसी (O'Shaughnessy) द्वारा अधीक्षण किया गया। यह इंग्लैण्ड द्वारा भारत को दिया गया सबसे बड़ा उपहार था।
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